मंगलवार, 17 जुलाई 2018

विशेष रिपोर्ट 
विकास के दावे और स्याह अँधेरा
श्रृष्टि जैन / मृदुला केंटुरा
विकास के तमाम दावे गाँवों में आकर खोखले लगने लगते हैं ।  बिजली, पानी, सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य के तमाम सूचकाँक यहाँ आकर दम तोड़ देते हैं। गांव के  लोग अपने प्रयासों से ही जी रहे हैं और इनकी जीवटता ही इन्हें बचाए हुए हैं । 
हमें विकास को करीब से जानने का मौका मिला । हम यह मानते हैं कि भारत क े सभी ६ लाख गाँव एक से नहीं होंगे, हो भी नहीं सकते । पर यह भी निर्विवाद सच है कि मौलिक अधिकार सभी को मिलना ही चाहिए, फिर चाहे वो गाँवों में बसें हों या शहरों में। 
हम दिल्ली से है। दिन रात विकास की चर्चा सुनते हैं और विकास के नाम पर बने दिल्ली के फ्लाई ओवर और मेट्रो में घूमते हुए अपनी पढ़ाई पूरी कर रहे हैं । पढ़-लिख कर जो समझ बनती है वह अपनी जगह लेकिन दावांे और वायदों की हकीकत जानना है, समाज को समझना है तो हमें निकलना तो होगा ही । यह सोचकर नेशनल फाउन्डेशन ऑफ  इंडिया से इंटर्नशिप की और निकल पड़े मध्यप्रदेश भोपाल में चारों ओर सरकारी नारों से पटी चमचमाती सड़कें दिल्ली सा ही अहसास देती है। कोई खास फर्क नहीं, न  दावांे में, न वायदों में।  
यदि इन सड़कों पर घूमते हुए होर्डिंग से विकास को समझें तो साल के बारह महीने आपको सावन ही नजर आयेगा । पर राजधानी के  आसपास ही जरा नजर डालें तो हमें लगभग दूसरी दुनिया के दर्शन हो  जायेंगे । कई बार लगता है कि हम किसी और देश में हैं । ठीक  वैसा ही जैसा कि अदम कहते हैं न  तुम्हारी फाइलों में शहर का मौसम गुलाबी है।..       
हम भी इस विकास को समझने पहुंचे मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से सटे सीहोर जिले के बिलकिसगंज विकासखंड के गाँव नारकोला में। पंचायत है-खामखेड़ा । केवल जानकारी के लिए बता दें कि खामखेडा गाँव भारत सरकार की विदेश मंत्री और यहाँ की सांसद सुषमा स्वराज का गोद लिया हुआ गाँव है । यह भी एक अबूझ-सी पहेली है कि एक गाँव गोद लो,     और बाकियों को उनके हाल पर छोड़    दो । बहरहाल, इस पर बाद में बात करेंगे, फिलहाल नारकोला। यहाँ बारेला और कोरकू आदिवासियों के  लगभग ७० घर । नारकोला तक कोई उचित पहुंच मार्ग नहीं है। जो है, उसे बरसात के समय तिन्सिल्ला नदी बंद कर देती है । 
नारकोला (भूरीघाटी) में ६-१४ वर्ष की उम्र के लगभग ६० बच्च्े हैं  पर यहाँ कोई स्कूल नहीं है। ४० से  ज्यादा बच्च्े आंगनवाड़ी जाने वाली उम्र के हैं, पर जाते नहीं हैं क्योंकि आंगनवाड़ी भी नहीं है। मन में सहज ही जिज्ञासा आई तो पूछ बैठे कि फिर बच्चें को जीवनरक्षक टीके कैसे लगे? पास   ही बैठी सीता बाई सहज भाव में कह  देती हैं, नहीं लगे । हमें कहा नहीं लगे मतलब, तो उन्होंने सहज भाव कायम रखा और कहा कि नहीं लगे। हम गुना, भाग और सारे समीकरण लगते हुए भी यह समझ नहीं पाए कि फिर इन बच्चें की प्रतिरक्षा प्रणाली कैसे विकसित हुई होगी । 
हमारी तन्द्रा तोड़ते हुए जोहर कोरकू बीच में बोलते हैं कि कभी-कभार जब ओनम (यानी एएनएम) बहनजी आ जाती हैं  तो लगा जाती हैं। कब से नहीं आई, तो सब एक-दूसरे से पूछने लगते हैं । लेकिन अंत तक कोई भी एक निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा । जोहर हमसे बात करते हुए बीच-बीच में अपना घर सुधारने लगते हैं । वे बारिश की तैयारी कर रहे हैं । धारे- धीरे कई लोग जुट गए हैं ।  अर्जुन से पूछा कि कहाँ तक पढ़े हैं, कुछ नहीं । सीता, कुछ नहीं । जोहर, कुछ नहीं । लब्बोलुआब यह कि पिछली पीढ़ी में से कोई भी नहीं पढ़ा, और न अभी कोई पढ़ता है क्योंकि  स्कूल ही नहीं है। 
संविधान में कहा गया है कि इसके लागू होने के १० वर्ष के भीतर सभी को प्राथमिक स्तर तक की शिक्षा उपलब्ध करा दी जायेगी । इसके बाद शिक्षा का अधिकार अधिनियम २००९ (आरटीई) भी आ गया पर नारकोला में तो कोई भी पीढ़ी अभी तक नहीं पढ़ी है। बातों-बातांे में पता चला कि इस गाँव के नाम का स्कूल ऊपर  बनाया जा रहा है। आरटीई के अनुसार सरकारी कागजों में एक किलोमीटर के अन्दर प्राथमिक स्कूल तो बन रहा है, लेकिन तिन्सिल्ला नदी का जिक्र कहीं नहीं है, जिसके चलते बच्च्े चाहकर भी स्कूल   जा नहीं पायेंगे ।
गाँव तिन्सिल्ला नदी के  चलते टीलों पर बसा है तो हमने सोचा कि  थोड़ा ऊपर चढ़कर देखते हैं । अचानक हमारे एक और साथी ने हमारा ध्यान आकर्षित कराया कि इस गाँव में कहीं भी बिजली का खम्भा नहीं दिख रहा      है । खूब खोजा लेकिन नहीं दिखा ।      पर मन यह मानने को तैयार ही नहीं    था क्योंकि कुछ दिनों पहले ही तो प्रधानमंत्री श्री मोदी ने `मन की बात` में कहा था कि अब देश के हर गाँव में बिजली पहुँच गई है। हम फिर जोहर के घर की तरफ भागे और पूछा तो पता चला कि साहब बात तो चल रही है बिजली आने की, पर अभी तक आई नहीं है। ये बात कब से चल रही है ? तो पचपन साल के जोहर कहते हैं कि हम लोग आप जैसे रहे होंगे, तब से। हमें बहुत जोर से दिल्ली की  याद आई । 
अब तक विकास की  इबारतों से पटे पड़े होर्डिंगों की हकीकत हमारे सामने आने लगी थी । हमने पूछा कि यहाँ पर मनरेगा के अंतर्गत आपको काम तो मिलता ही होगा । मनरेगा, इस नाम पर एक राय नहीं बनी । बाद में समझाने पर गिरंटी (गारंटी) बताया गया । पता चला कि  शुरू  में तो काम चला था लेकिन पिछले तीन सालों में कोई काम नहीं हुआ  । वैसे भी मध्यप्रदेश में विगत वर्ष केवल १ फीसदी लोगों को ही १०० दिन का रोजगार मिला है। आप लोग काम मांगते क्यों नहीं है ? इस सवाल पर तो सभी हमारी ओर ही निरीह भाव से देखने लगते हैं। जैसे कह रहे हों कि कितनी बार तो माँगा, पर कोई देता ही नहीं। 
हमने बेरोजगारी भंो और मुआवजे आदि की बात भी कह डाली, पर वे कुछ नहीं जानते हैं। जोहर, अर्जुन बताते हैं कि हम सभी परिवार सहित काम करने जाते हैं ।  सोयाबीन और गेहंू की कटाई के समय । दीगर काम के लिए आसपास । सवाल दिमाग में चल रहे थे कि जब टीके  लगाने कोई नहीं आता तो फिर गर्भवती महिलाओं की अनिवार्य तीन जांच कैसे होती होगी ? पता चला कि पारंपरिक तरीके ही काम आते हैं । अधिकाँश प्रसव घर में ही होते हैं । गाँव में अधिकाँश जनों का जन्म प्रमाण पत्र नहीं बना है ।
गाँव में राशन दुकान भी नहीं  है। राशन लेने तो ऊपर बावडिया चौर जाना होता है। इस गाँव में कभी कोई ग्रामसभा हुई? नहीं, वो तो पंचायत में होती है। इस गाँव में किसी को पेंशन मिलती  है? नहीं यानी इस गाँव में समस्त मूलभूत सरकारी सुविधाओं के आगे न लगा है । इस गाँव में केवल १-२ को ही प्रधानमंत्री आवास मिला हुआ है। इस गाँव में कोरकू और बारेला आदिवासी  हैं और जिन्हें विकास के  सबसे ज्यादा अवसरों की जरुरत है पर उन्हें मिलते नहीं है। गाँव में किसी के  यहाँ भी कोई अखबार नहीं आता है और बाहरी दुनिया से इनकी पहुँच रेडियो से ही होती है। शायद इसलिए भी वे सरकारी वायदों की हकीकत नहीं जानते है । 
विकास के तमाम दावे इस गाँव में आकर खोखले लगने लगते हैं ।  बिजली, पानी, सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य के तमाम सूचकाँक यहाँ आकर दम तोड़ देते हैं ।  ये अपने प्रयासों से ही जी रहे हैंं और इनकी जीवटता ही इन्हें बचाए हुए हैं । हम वापस दिल्ली जा रहे है, हमें विकास को करीब से जानने का मौका मिला । हम यह मानते हैं कि भारत के सभी ६ लाख गाँव एक से नहीं होंगे, हो भी नहीं सकते । पर यह भी निर्विवाद सच है कि मौलिक  अधिकार सभी को मिलना ही चाहिए, फिर चाहे वो गाँवों में बसें हों या शहरों में । इस चुनावी साल में अब हम जब भी जुमले/नारे सुनेंगे तो हमें एक बार जरुर नारकोला की याद आयेगी । 
हम दिल्ली की रोशनी से   नहाई सड़कों पर चल रहे होंगे तब भी हमारे सामने से नारकोला का स्याह चेहरा जरूर होगा । हमें तो  खूब `मन` की `दिल` की बात सुनाई जा रही है, पर इन आदि जनों के मन/दिल बात कोई सुन ले और उसे समझ जाये तब ही सही मायनों में विकास होगा । 

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