कविता
पेड़ों की पुकार
लोककवि घनश्याम सैलानी
मैं युग युग खड़ा हॅूं, मनुष्यो ! तुम्हारे लिए जीना चाहता हँू।
मुझे न काटो, मैं तुम्हारा हॅूं, तुम्हें कुछ देना चाहता हँू।
दूध और पानी, सघन छाया और वर्षा तुम्हें दे रहा हँू।
तुम्हें अन्न देने के लिए, खेतों की उर्वर मिट्टी रोक रहा हँू।
मेरी कुछ फलदार जातियां, तुम्हारे लिए पकती हैं ।
मैं मिठास लेकर पकना चाहता हँू, तुम्हारे लिए झुकना चाहता हँू।
मुझे मत काटो, मुझमें जीवन है, प्राण है ।
मुझे पीड़ा लगती है, तब ही तो पेड़ नाम है ।
मेरे टुकड़े पहाड़ से लुढ़कने पर भूस्खलन होगा ।
मैं ढाल पर हँूऔर नीचे गांव बसा है ।
हमारे रक्षक ही हमारे काल बन गए ।
चीड़ के पेड़ों को लीसा निकालने के लिए घायल कर दिया ।
गांव के लोगों ! तुम तरूण पेड़ों को छेदन देखते रहे ।
हमको रूलाकर हमारा खून चूसकर वे सम्पन्न बनें ।
घायल होकर हम निर्बल हुए और,
हैजा के रोगियों की तरह मरे ।
जहां हमारा सर्वनाश हुआ है, वहां आज धुल उड़ रही है ।
वहां की पहाड़िया खलवाट हो गई, जल स्त्रोत सूख गये ।
हमें न काटो, हमें बचाओ, हमें लगाओ, धरती सजाओ ।
हमारा क्या है, सब कुछ तुम्हार ही है ।
अक्षली पीढ़ी के लिए कुछ देकर जाओ ।
पेड़ों की पुकार
लोककवि घनश्याम सैलानी
मैं युग युग खड़ा हॅूं, मनुष्यो ! तुम्हारे लिए जीना चाहता हँू।
मुझे न काटो, मैं तुम्हारा हॅूं, तुम्हें कुछ देना चाहता हँू।
दूध और पानी, सघन छाया और वर्षा तुम्हें दे रहा हँू।
तुम्हें अन्न देने के लिए, खेतों की उर्वर मिट्टी रोक रहा हँू।
मेरी कुछ फलदार जातियां, तुम्हारे लिए पकती हैं ।
मैं मिठास लेकर पकना चाहता हँू, तुम्हारे लिए झुकना चाहता हँू।
मुझे मत काटो, मुझमें जीवन है, प्राण है ।
मुझे पीड़ा लगती है, तब ही तो पेड़ नाम है ।
मेरे टुकड़े पहाड़ से लुढ़कने पर भूस्खलन होगा ।
मैं ढाल पर हँूऔर नीचे गांव बसा है ।
हमारे रक्षक ही हमारे काल बन गए ।
चीड़ के पेड़ों को लीसा निकालने के लिए घायल कर दिया ।
गांव के लोगों ! तुम तरूण पेड़ों को छेदन देखते रहे ।
हमको रूलाकर हमारा खून चूसकर वे सम्पन्न बनें ।
घायल होकर हम निर्बल हुए और,
हैजा के रोगियों की तरह मरे ।
जहां हमारा सर्वनाश हुआ है, वहां आज धुल उड़ रही है ।
वहां की पहाड़िया खलवाट हो गई, जल स्त्रोत सूख गये ।
हमें न काटो, हमें बचाओ, हमें लगाओ, धरती सजाओ ।
हमारा क्या है, सब कुछ तुम्हार ही है ।
अक्षली पीढ़ी के लिए कुछ देकर जाओ ।
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