बुधवार, 15 जुलाई 2015

कविता
ताकि वसुधा हरित बने 
यशवन्त दीक्षित
पर्यावरण पर आँच आ गई, कैसी होगी अगली कहानी,
टूट रही प्रकृति की सासें, किसने उसकी पीड़ा जानी,
वृक्षों के बलिदान हो रहे 
भवनों के निर्माण हो रहे 
क्या होगा इस जग का आगे
क्यूँ हम सब अंजान हो रहे 
डूबो रही अगली पीढ़ी को, आज की ये अपनी नादानी ।
वन में कंटक की भरमार
कर रहा शासन पतझार
झिंगुर, कोयल, भंवरे गायब
कहाँ फूल-तितली का प्यार
सरवर-सरिता धूल में डूबे, रोती अब गंगा कल्याणी ।
जग-जीवन हर्षा ये कैसे,
मन को कुछ भी भाए कैसे,
सारा आलम विषमय है तो 
सुख-समृद्धि आये कैसे 
प्रज्ञा अपराध यूँही चला तो, याद आना है दादी-नानी ।
सभी शास्त्र ये कहते है
बरगद में शंभु रहते है 
अनवरत औषजन देती जो 
पीपल में विष्णु बसते है
जुड़ी हुई है देवो से, वृक्षों की कथा पुरानी । 
आओ फिर सिंगार करें हम
जख्मों का उपचार करें हम 
उपकार किसे उसने इतने तो 
कुछ उसका उद्धार करे हम 
ताकि वसुधा हरित बने और आये फिर नदियों में रवानी ।


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