बुधवार, 15 जुलाई 2015

कृषि जगत
फसल बीमा बन सकता है तारणहार
राजकुमार कुम्भज
मौसम की बढ़ती प्रतिकूलता के चलते किसान को आर्थिक परंतु रूप से दिवालिया होने से बचाने में फसल बीमा एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है । फसल बीमा के  अब तक के अनुभव बहुत सकारात्मक नहीं रहे हैं । उम्मीद की जा सकती है कि केन्द्र की नई सरकार इस दिशा में ठोस कदम उठाएगी ।
क्या इस देश के किसानों को प्राकृतिक आपदा से पहली बार सामना करना पड़ रहा है ? क्या पहली बार प्राकृतिक आपदा से किसानों की फसल बर्बाद हुई है ? क्या पहली बार सूखे, बाढ़ आंधी, तूफान बेमौसम बारिश, ओले आदि ने भारतीय किसान की कमर तोड़ी है ? ऐसा अतीत में होता रहा है और बहुत संभव है कि आगे भी ऐसा ही होता रहे । यह सब प्रकृतिजन्य घटनाक्रम हैं और इन्हें रोक पाना संभव भी नहीं है । किन्तु कुछ मनुष्यजन्य उपायों से किसानों को होने वाले नुकसान को किसी हद तक कम किया जा सके इस दिशा में फसल बीमा की सुविधा एक बेहतर उपाय हो सकता है ।
भारतीय किसान के समक्ष मौसम और मूल्य दो ऐसे प्रमुख जोखिम हैं, जिनसे हमारी कृषि व्यवस्था दशकों से मुसीबतजदा रहती आई है । अच्छा मौसम रहने पर जब अच्छी फसल आ जाती है तो किसान को अच्छा मूल्य नहीं मिल पाता है, मौसम ने फसल बिगाड़ दी तो भी मार किसान पर ही पड़ती है । मौसम की तबाही और मूल्य की उठापटक से किसान का जीवन-चक्र अनिश्चितताओं के चक्रव्यूह में फस जाता है । तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाए तो उद्योगों के बजाए किसानों की सुरक्षा का सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है । यह आश्चर्यजनक है कि अभी भारत में बीमा सुविधा, बीस फीसदी से भी कम किसान तक ही पहुँच पाती है ।
फसल बर्बाद होने के बाद बीमा की रकम प्राप्त करने में किसान को कितनी कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है, इसका अंदाजा शहरी लोग नहीं लगा   सकते । बिहार के पटना जिले में मसूर की खेती करने वाले किसानों की फसल वर्ष २०१३ में खराब हो गई थी उन्हें उसका मुआवजा अभी तक नहीं मिला है । अब कहा जा रहा है कि बिहार के किसानों को दो सीजन की फसलों के नुकसान की बीमित राशि शीघ्र ही दे दी जाएगी । फसल बीमा दावा निपटान की इस धीमी गति से परेशान किसान आखिर अपनी फसल का बीमा करवाने की इच्छा क्यों करे ?
केन्द्र सरकार ने बीमा कंपनियों को बेमौसम  बारिश और ओलावृष्टि से बर्बाद हुई फसलों के बीमा दावों का निपटारा ४५ दिन में करने का जो निर्देश दिया था, वह भी कारगार साबित नहीं हो पा रहा है । अगर बीमा कंपनियों की तरफ बीमित फसल का क्लेम अगर तुरंत नहीं तो कम से कम केन्द्र सरकार द्वारा तयशुदा समयावधि में भी मिल जाए तो भी किसान थोड़ी राहत महसूस कर सकता है । 
बीमा कंपनियों द्वारा लेटलतीफी और क्लेम देने में जिस तरह की अडंगेबाजी की जाती है वह भी एक सर्वविदित सच्चई है । उनकी दिलचस्पी किसानों की बीमा राशि तक हड़प जाने में ज्यादा पाई गई   है । ऐसे में किसानों के लिए फसल बीमा का क्या औचित्य रह जाता है जहां दो दो सीजन गुजर जाने के बाद भी क्लेम का भुगतान नहीं मिल पाता हो ?
शायद इसी वजह सेे केन्द्रीय कृषि मंत्री राधामोहन सिंह ने पिछले वर्ष संशोधित राष्ट्रीय कृषि आय बीमा योजना लागू करने की घोषणा की  थी । यह एक बाजार आधारित योजना है । इस योजना को निजी क्षेत्र की सहभागिता से लागू किया जाना है । मौजूदा कृषि बीमा योजनाओं की अपेक्षा इस योजना से फसल बीमा का निपटारा समयबद्ध तरीके से  होगा । संशोधित राष्ट्रीय कृषि आय बीमा योजना और मौसम आधारित कृषि बीमा योजना इन दोनों ही योजनाओं को कंंपोनेंट स्कीम के  तौर पर लाया गया है । 
कंपोनेंट स्कीम जाहिर है कि केन्द्र और राज्य सरकार की सहभागिता पर आधारित होती है । इससे किसानों की उपज से होने वाली आय का पचास फीसदी बीमा के तौर पर मिल सकेगा । किन्तु राज्यों ने इस नई कृषि आय बीमा योजना का विरोध शुरू कर दिया    है । हालांकि केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह कह चुके हैं कि किसानों के  लिए कृषि आमदनी बीमा योजना भी जल्द शुरू की जाएगी । इधर केन्द्रीय खाद्य विकास मंत्री राम विलास पासवान ने भी पीड़ित किसानों के  लिए राज्य सरकारों को धन उपलब्ध करवाने का भरोसा दिया है । किन्तु बीमा कंपनियों की ओर से अभी तक दावों का भुगतान नहीं हो पाने से किसान बुरी तरह से हताश और निराश हैं । 
इस सबके बावजूद भारतीय किसान अब भी खेती को ही प्राथमिकता देते हैं  । आजादी के  बाद से ही देश की कोई भी सरकार फसल मूल्यों को काबू में नहीं रख पाई है । इससे एक बात तो बिलकुल ही साफ हो जाती है किबाजार की ताकतों के विरुद्ध सरकार का हस्तक्षेप नितांत निरर्थक साबित होता रहा है । फसलों का नुकसान होने पर किसानों को राहत दिए जाने के जो मानदंड हैं वे भी अंग्रेजों के जमाने के ही चल रहे हैं  ।  
वर्तमान परिस्थितियों में यह मानदंड निहायत हास्यास्पद और मूर्खतापूर्ण प्रतीत होते है। इनकी बानगी आज भी १००, ५०, और ७५ रुपये के चेक से मिल जाती है। किसी भी रोते हुए किसान को जब राहत के नाम इतनी राशि का चेक मिलता है तो सब हंसने लगते हैं  । यह हंसी किसी भी राज्य सरकार के लिए शर्म का विषय होना चाहिए । लेकिन ऐसा नहीं होता और किसान खुदकुशी कर बैठता है । 
फसल की बर्बादी के साथ ही साथ किसान की गरीबी भी उसका सामान्य जीवन अनजानी अश्चितताओं से भर जाती है । यह भी सत्य है कि ऐसे में भारत का गरीब किसान फसल बीमा की मामूली प्रीमियम भी नहीं भर पाता  है । देश के अधिकांश किसान इसी श्रेणी में आते हैं । हमारे देश के सत्तर फीसदी किसान आज भी अपनी आजीविका के लिए पूरी तरह से खेती किसानी पर ही अश्रित रहते हैं अर्थात इस बिंदु का एक आशय यह हुआ कि देश कि एक बहुत बड़ी आबादी अनायास ही अनिश्चितताओं से भरा जीवन जीने को विवश है । 
अगर कोई बीमा कम्पनी इन किसानों के लिए कम से कम प्रीमियम वाली कोई सामूहिक बीमा योजना प्रस्तुत करे तो कंपनी को बेहतर व्यवसाय मिल सकता है । एक अन्य सार्थक उपाय यह भी हो सकता है कि किसानांे के लिए फसल बीमा प्रीमियम का भुगतान खुद सरकार की ओर से कर दिया जाए । वर्तमान समय में सिर्फ वही राजनीतिक दल सत्ता में बना रह सकता है जो किसानों की समस्याओं का समाधान करने में साहस के साथ आगे बढ़े । आश्चर्य यह नहीं है कि हम ग्रामीण रोजगार सुरक्षा कार्यक्रम पर क्यों अरबों रुपये खर्च देते हैं  आश्चर्य यह है कि इतनी ही रकम हम फसल बीमा पर क्यों नहीं खर्च कर पाते ?
राहत की बात फिलहाल इतनी ही है कि सरकार ने पीड़ित किसानों से अगले तीन बरस तक कर्ज की किस्त और ब्याज वसूली पर रोक लगा दी हैं । इतना ही नहीं रबी फसल खराब हो जाने के बावजूद किसान खरीफ फसल के लिए नया कर्ज ले संकेगे और पुराने कर्ज का भुगतान सिर्फ चार फीसदी ब्याज पर कर सकेंगे । नई राष्ट्रीय कृषि आय फसल बीमा योजना के अंतर्गत यह व्यवस्था की जा रही है कि फसल बीमा प्रीमियम केन्द्र और राज्य सरकार मिलकर ५०-५० फीसदी वहन करेगी । इसमंे उपज की पैदावार की बजाय आय की गांरटी होगी । इससे किसान को उपज से होने वाली आय की ५० फीसदी राशि दावे बतौर मिल सकेगी । 
आवश्यकता इस बात की भी है कि किसान फसल बीमा के साथ ही साथ मौसम की मार से बचाए जाने और बाजार आधारित मूल्य मिलने की गारंटी भी हो । हमारे राजनीतिक दलों को वोट से अधिक कृषि संकट की फिक्र होना चाहिए ।

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