बुधवार, 15 जुलाई 2015

वन महोत्सव पर विशेष
पेड़ पौधों से सुख-समृद्धि
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित 
हमारे देश में वृक्षों में देवत्व की अवधारणा और उनकी पूजा की परम्परा प्राचीनकाल से रही है । भारतीय संस्कृति वृक्ष पूजक संस्कृति है । वैदिक काल में प्रकृति के आराधक भारतीय मनीषी अपने अनुष्ठानों में वनस्पतियों को विशेष महत्व देते थे । 
वेदों और आरण्यक ग्रंथों में प्रकृतिक की महिमा का सर्वाधिक गुणगान है । उस काल के अनेक लोक देवताआें में वृक्षों को भी देवता कहा गया है । मोहन जोदड़ों और हड़प्पा की खुदाई में मिले अवशेषों से पता चलता है कि उस समय समाज में मूर्तिपूजा के साथ ही पेड़ पौधों और जीव जन्तुआें की पूजा की परम्परा भी थी । 
भारतीय साहित्य, चित्रकला और वास्तुकला में वृक्ष पूजा के अनेक प्रसंग मिलते है । यहां शाल भंजिका का उल्लेख अप्रासंगिक नहीं होगा जिसमें प्राय: अशोक, चम्पा, पलाश और शाल वृक्ष के नीचे विशेष मुद्रा में वृक्ष की टहनी पकड़े हुए नारी का चित्रण रहता है । अंजता में गुफा चित्रों और सांची के तोरण स्तंभों की आकृतियों में वृक्षपूजा के दृश्यों का आधिक्य है । जैन और बौद्ध साहित्य में वृक्ष पूजा का विशेष उल्लेख है । पालि साहित्य में अनेक विवरण है, जिनमें कहा गया है कि बोधिसत्व ने रूक्ख देवता बनकर जन्म लिया  था ।
हमारा प्राचीन ग्रंथ वेद में प्रकृति की परमात्मा स्वरूप में स्तुति है । इसके साथ ही वाल्मिकी रामायण, महाभारत और मनुस्मृति में वृक्ष पूजा के विविध विधानों का विस्तार से वर्णन मिलता है । नारद संहिता में २७ नक्षत्रों के नक्षत्र वनस्पति की जानकारी दी गयी है, हर व्यक्ति के जन्म नक्षत्र का वृक्ष उसका कुल वृक्ष है यही उसके लिए कल्पवृक्ष भी है जिसकी आराधना करने से मनोकामनाएं पूर्ण होती है । पीपल, गूलर, पलाश, आम और वट वृक्षों के पत्ते पंच पल्लव कहलाते हैं, सभी धार्मिक आयोजनों और पूजा पाठ में इनकी उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती है । 
हमारे प्राचीन साहित्य में जिन पवित्र एवं अलौकिक वृक्षों का उल्लेख किया गया है, इनमें कल्पवृक्ष प्रमुख है । मान्यता है कि समुद्र मंथन में निकले १४ रत्नों में एक कल्पवृक्ष भी था । पुराणों में वर्णन है कि कल्पवृक्ष को देवताआें का वृक्ष कहा गया है, इसे मनवांछित फल देने वाला नंदन वृक्ष भी माना जाता है । यह भी मान्यता है कि समुद्र मंथन में निकले १४ रत्नों में एक कल्पवृक्ष भी था । पुराणों में वर्णन है कि कल्पवृक्ष को श्रीकृष्ण देवराज इन्द्र से जीतकर लाए थे । पांडवों द्वारा अपने अज्ञात वास के दौरान किसी अन्य द्वीप से इसे लाने का भी उल्लेख आता है । महाभारत, रामायण, जातक ग्रंथों और जैन साहित्य में कल्पवृक्ष की चर्चा आयी है लेकिन वेदों में इसका उल्लेख नहीं मिलता है । 
वनस्पतिशास्त्रियों के अनुसार बाम्बोकेसी कुल के अडनसोनिया डिजिटेटा नामक पेड़ को भारत मे कल्पवृक्ष कहा जाता है इसको फ्रांसीसी प्रकृति प्रेमी वैज्ञानिक माइकल अडनसन ने सन् १७५४ में अफ्रीका के सेनेगल में सर्वप्रथम देखा था, इसी आधार पर इसका नामकरण अडनसोनिया डिजिटेटा हो गया । हमारे देश में कल्पवृक्ष का नाम गुरू गौरखनाथ से भी जुड़ा हुआ है । उज्जैन के निकट उन्होनें इसी वृक्ष के नीचे तपस्या की थी । बाद में उज्जैन के तत्कालीन राजा भृतहरि गुरू गोरखनाथ के शिष्य हो गए इसलिए इसका नाम गौरखइमली भी है । 
पादप जगत का कोई भी वृक्ष इसकी विशालता, दीर्घजीविता और आराध्यता में बराबरी नहीं कर सकता है । यह धीरे-धीरे बढ़ता है और सेकड़ों साल तक जिंदा रहता है, इसका बेहद मोटा तना धीरे-धीरे पतला होता जाता है । सर्दियों में जब इसकी पत्तियां झड़ जाती है, तब मोटा तना नीचे और पतली-पतली शाखाएं ऐसी लगती है, मानों धरती पर किसी पेड़ को उल्टा रख दिया गया हो । 
इन वृक्षों के आसपास का वातावरण सुगंधमय रहता है, इसके पत्र, पुष्प एवं छाल दुधारू पशुआेंको खिलाने से वे दूध अधिक देने लगते हैं इसकी लकड़ी से कलात्मक घड़े, लोटे, सुराही और गुलदस्ते बनाए जाते हैं, इसके गूदे को सूखा कर आटा बनाया जाता है, जो कागज बनाने के काम आता है । इसमें सुंगध विहिन सफेद मनोहारी पुष्प लगते हैं, इन अधोमुखी फूलोंमें एक ही पेड़ पर नर व मादा दोनों पुष्प होते हैं । इसकी गहरे रंग की पत्तियों में समानांतर रेखाएं होती हैं, ये पांच और सात के छत्रक में होती है । कल्पवृक्ष के पल्लव और पुष्प को शुभ मानकर विद्यार्थी अपनी पुस्तकों में, व्यापारी बही-खातों में, तथा पंडित पुजारी लोग अपनी पूजा में रखते हैं ।
प्राचीन काल में धरती के उपर आकाश को २७ बराबर भांगों में बांटा गया है जिसके हर एक भाग को एक नक्षत्र कहते हैं । इन नक्षत्रों की पहचान आसमान के तारों की स्थिति विन्यास से की जाती है । इन २७ नक्षत्रों की वनस्पति का नारद संहिता में विवरण है जो निम्नानुसार है :- 
क्रं. नक्षत्र वृक्ष का नाम  
१. अश्विनी कुचिला
२. भरणी आवंला
३. कृतिका गुलर
४. रोहिणी जामुन
५. मृगशीरा खेर
६. आद्रा शीशम
७. पुनर्वसु बांस
८. पुष्य पीपल
९. अश्लेषा नागकेसर
१०. मघा बरगद
११. पूर्वा फाल्गुनी पलास
१२. उत्तर फाल्गुनी पाकड़
१३. हस्त रीठा
१४. चित्रा बेर
१५. स्वाति अर्जुन
१६. विशाखा कटाई
१७. अनुराधा मोलश्री
१८. ज्येष्ठा चीड़
१९. मूल साल
२०. पूर्वाषाढ़ा जलवेतस
२१. उत्तराषाढ़ा कटहल
२२. श्रवण आंकड़ा
२३. धनिष्ठा खेजड़ी
२४. शतभिषक कदम्ब
२५. पूर्वा भाद्रपक्ष आम
२६. उत्तर भाद्रपक्ष नीम
२७. रेवती महुआ
पृथ्वी से आकाश की ओर देखने पर आकाश मेंस्थिति बदलने वाले पिण्डों को ग्रह कहते हैं । ग्रह का अर्थ है पकड़ना । भारतीय ज्योतिष में ग्रहों की संख्या नौ मानी गई है । नौ ग्रह वनस्पतियों की सूची निम्नानुसार है :-  सूर्य - आक, चन्द्र - पलाश, मंगल - खेद, बुध - अपामार्ग, बृहस्पति - पीपल, शुक्र - गुलर, शनि - खेजड़ी, राहु - दूब, केतु - कुश । इसमें प्रथम सात तो पिण्डी ग्रह हैं और अंतिम दो राहु और केतु पिण्ड रूप में नहीं बल्कि छायाग्रह हैं।
पांच पवित्र छायादार वृक्षों के समूह को पंचवटी कहते हैं । पौराणिक ग्रन्थ स्कंन्द पुराण के अनुसार पीपल, बेल, बरगद, आवंला व अशोक इन पांच वृक्षों के समूह को पंचवटी कहा गया है । 
इनकी स्थापना पांच दिशाआें में करना चाहिए । पीपल पूर्व दिशा में, बेल उत्तर दिशा में, बरगद पश्चिम दिशा में, आवंला दक्षिण दिशा में और अशोक को आग्नेय कोण (दक्षिण पूर्व) में लगाया जाना चाहिए। पुराणों में दो प्रकार की पंचवटी का वर्णन किया गया है । 
भगवान बुद्ध के जीवन की सभी घटनाएँ वृक्षों की छाया में   घटी ।  जन्म शालवन में एक वृक्ष की छाया में । प्रथम समाधि जामुन वृक्ष की छाया में । बोधि प्रािप्त् पीपल वृक्ष की छाया में तथा महानिर्वाण साल वृक्ष की छाया में हुआ । भगवान बुद्ध ने बौद्ध भिक्षुआें के साथ भ्रमण काल में अनेकों वनों एवं बागों में प्रवास किया था । ऐसे वनों की संख्या अनगिनत है जिनमें वैशाली में आम्रपाली का आम्रवन, मिथिला का मखादेव आम्रवन, नालंदा का प्रावारिक आम्रवन व अनुप्रिय का आम्रवन उल्लेखनीय है । इसके साथ ही राजगृह, किम्बिला और कंजगल के वेणु वनों का संबंध भगवान बुद्ध से आया है । 
पृथ्वी पर पाये जाने वाले जिन पौधों का नाम पवित्र कुरान-मजीद में आया है उन पेड़ों को अन्य वृक्षों में विशिष्टता प्राप्त् है । इन पवित्र पेड़ों में खजूर, बेरी, पीलू, मेहंदी, जैतून, अंगूर, अनार, अंजीर, बबूल और तुलसी मुख्य हैं । 
सिख धर्म में वृक्षों का अत्यधिक महत्व है । वृक्ष को देवता के रूप में देखा गया है । इसमें गुरू से जुड़े वृक्ष निम्न है :-  नानक मता का पीपल वृक्ष, रीठा साहब का रीठा वृक्ष, टाली साहब का शीशम, बेर साहब प्रमुख है । 

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