मंगलवार, 15 सितंबर 2015

कविता
पर्यावरणीय दोहे 
डॉ.मेहता नगेन्द्र सिंह

नदी किनारे सभ्यता, उपजी पहली बार । 
साथ-साथ विकसित हुआ, मानव का संसार । । 
मानव करता है अधिक, धरती का उपभोग । 
दोहन का कारण यही, ऐसा है संयोग ।।
धूल-धुआँ से भर गया, यह नीला आकाश ।
मैली हालत देखकर, धरती हुई उदास ।।
बंजर धरती रो रही, सिसक-सिसक बेजार ।
इसको तो बस चाहिए, हरियाली का प्यार ।।
धरती माँ के वक्ष पर, कैसे पड़ी दरार । 
कारक इसका कौन है, पूछ रहा संसार ।।
पादप खड़ा पहाड़ पर है बरसाता मेघ ।
वृक्षविहीन जमीन पर, कभी न छाता मेघ ।।
गरमी इतनी तेज हैं, नहीं गगन में मेह ।
नदी-ताल सब रेत हैं, कौन जताए नेह ।। 
मेघ बिना बारिश नहीं, कैसे उपजे धान ।
ताक रहा आकाश को, धरती-पुत्र किसान ।।
पादप की पूजा करें, देता जीवन-दान ।
इसीलिए यह जान लें, होता वृक्ष महान ।।
धुआँ उगलती चिमनियाँ रहती हैं दिनरात ।
अक्सर करती हैं यहाँ, अम्लों की बरसात ।।
अम्लों की बरसात से, होता नष्ट अनाज ।
दीिप्त्, धवलता खो रहा, शाहजहाँ का ताज ।। 

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