विरासत
खादी को असरकारी बनाने का उद्यम
डॉ. सुगन बरंठ
खादी को असरकारी बनाना समय व पर्यावरण दोनों की आवश्यकता है ।
खादी वस्त्र और विचार की वर्तमान बुरी स्थिति के लिये सरकार और हम खादी संस्थावाले बराबर के जिम्मेदार हैं । दूसरी भाषा में कहंे तो अ-सरकारी खादी को असरकारी बनाने की दिशा में मनन, चिंतन और सारी शक्ति लगाना है। अब हमें अपनी लकीर बड़ी करना है और जो भी साथ आए उन्हें जोड़ना है । हमारी आत्मिक शक्ति सकारात्मक है। खादी विचार और वस्त्र को सर्वोदय दर्शन का अविभाज्य अंग मानकर इसका संरक्षण व संवर्धन हमारी जिम्मेदारी हैं ।
असरकारी खादी का काम करना चाहने वालों के सामने निम्न चुनौतियां दिखाई पड़ती हैंपहली चुनौती - असरकारी खादी विचारक उत्पादक और विक्रेताओं का भातृमंडल खड़ा करना, इसे स्थापित करना और बढाना । आज असरकारी खादी उत्पादन और बिक्री करने वाले बिखरे हुए हैं । हमंे एकत्रित आकर सर्व सेवा संघ के अंतर्गत अपना स्वायत्त संगठन खडा करना होगा । जिस तरह अनेक संस्थान सरकार के अंतर्गत होने पर भी स्वायत्त होते हैं, और सरकार उनकी कार्यनीति में हस्तक्षेप नहीं करती तथा उन्हें संसद द्वारा से सीधे मान्यता दी गयी होती है । उसी तरह यह संगठन सर्व सेवा संघ के अंतर्गत होते हुए की स्वायत्त हो । दूसरी बात है, हम अभी जितने हैं उतने मिलकर यह संगठन खडा करें और चलते चले । संख्या का भूत सर पर न बैठने दें । जिन्हंे खादी विचार और वस्त्र की शुद्धता की कदर है वे साथ में आ ही जाएंगे ।
दूसरी चुनौती - खादी की शुद्धता स्थापित करना । हमें यह भी देखना और समझना होगा की गैर पारंपारिक ऊर्जा (पवन, सौर ऊर्जा, कचरे से और बायोेगेस से उत्पादित ऊर्जा) का खादी उत्पादन में उपयोग करें या नहीं करे ? करे तो किस सैद्धान्तिक आधार पर ? इस पर बहस होकर निर्णय भी हो । इसी तरह इन्ही ऊर्जा के आधार पर अब करघे भी चलाने का तंत्रज्ञान विकसित हुआ है । इससे कताई, बुनाई के श्रम में राहत, आय में बढ़ोत्तरी और सूत एवम कपड़े की गुणवत्ता में सुधार को हम किस नजर से देखते है ? आज न गांधी की आंधी है न आजादी की लड़ाई । आज तो हमंे इसे पर्यावरण और स्थायी विकास की नजर से देखना और लोगों के सामने रखना है। इसलिये इस पर चर्चा अत्यावश्यक है । साथ ही हमारी अपनी प्रमाणपत्र व्यवस्था कैसी हो ।
तीसरी चुनौती - असरकारी खादी की बिक्री व्यवस्था एक तरह से यह चुनौती भी है और अवसर भी । आज का समाज खादी को एक तरफ पवित्र वस्त्र के रूप में देखता है दूसरी तरफ उससे भी कहीं ज्यादा वह इसे स्वास्थ्य और पर्यावरण के नजरिये से देखता है । पवित्र इस माने में कि यह राष्ट्रपिता और आजादी से तथा ग्रामीण गरीबों की महिलाओं, परित्यक्ताओं का आजीविका से जुड़ा वस्त्र है । पर उत्तर औद्योगिक व्यवस्था और जागतिकीकरण के दौर में मानव अब इतना संवेदनशील नहीं है । अत: खादी की पवित्रता केवल मानने भर की है । स्वास्थ्य आज के व्यक्ति को ज्यादा करीबी विषय लगता है । हम देखते हैंकि भाग दौड़ की इस जिंदगी में वह स्वास्थ्य के बारे में बहुत कुछ कर रहा है । इसी तरह एक वर्ग विशेष की सजीव व रसायन रहित खेती उत्पादनों में रुचि बढ़ रही है। इसी कड़ी में यह वर्ग विशेष वस्त्रों में खादी को महत्व देता है । यह वर्ग खादी बिक्री में हर तरह से हमारी मदद कर सकता है । यह हैं प्रदर्शनी लगाना, प्रचार-प्रसार करना, विचार फैलाना या अपनी संस्था में स्थायी केन्द्र खडे करना । परंतु बिक्री व्यवस्था से पहले हमारे सदस्यों के उत्पादन, विशेषता की जानकारी हो ।
चौथी चुनौती - स्वावलंबी खादी का क्या करंे ? पहले हर खादी संस्था अन्य कार्यकर्ताओं को सूत की बुनाई खुद के खर्चे से कर देती थी, जो स्वावलंबन हेतु कातते थे । अब ऐसे कार्यकर्ताओं की व नियमित पेटी चरखा पर कातने वालोें की संख्या कम हो रही है । अंबर पर फिर भी लोग स्वावलंबन के लिये कात रहे हैंऔर ऐसी संस्थाए बढ रही हैं । इसमें कुछ धर्मगुरू हमसे आगे निकल रहे हैं । अंबर चरखे पर कताई में गांव में अधिक समय रहने वाले युवा रुचि ले रहे हैं । हमंे इन्हें पूनी की पूर्ति और इनके सूत की बुनाई न्यूनतम दरों पर करनी ही होगी । पेटी चरखा का सूत को आजकल कारागीर बुनाई में नहीं लेते उनका कहना है, यह सूत कच्च आता है । पर असरकारी खादी संस्थाओं को स्वावलंबन के लिये कातने वालांे के लिए न्यूनतम दरांे पर व्यवस्था करनी ही होगी । यदि खादी विचार जिन्दा रहना है और उसे मात्र वस्त्र नहीं बनने देना है तो यह जरुरी है ।
पांचवीं चुनौती - आज खादी पर प्रबोधन करने वाले काफी लोग उपलब्ध हैं । वे चरखे के पीछे का सारा तत्वज्ञान, स्वावलंबन, समता, सामूहिकता, आत्मविश्वास से पर्यावरण तक खादी की सारी सैद्धान्तिकी लिखते हैं । इनकी क्षमता और चरखे निर्माता, देखभाल, दुरूस्ती, स्पेअर पार्ट, आदि का ज्ञान रखने वालों की क्षमता की जोड़कर हमें त्वरित खादी कोर्स/खादी विद्यालय शुरु करना होगा । आज तो इन दोनों में (प्रबोधक और तंत्रज्ञ) कोई आपसी संपर्क नहीं है । देश भर में इनमें समन्वय की आवश्यकता न हमें महसूस होती है न इस तरफ हमारा ध्यान ही है, इसका परिणाम यह है कि दोनांे कुशलतायें हमारे अपनों के पास होते हुए भी हम खादी का विस्तार नहीं कर पा रहे है ।
खादी आयोग ने या केन्द्र सरकार ने जो इस तंत्रज्ञान, यंत्रज्ञान संशोधन के लिए व्यवस्था खड़ी की है वे और खादी संस्थायंे, तथा खादी प्रबोधक (सर्वोदय वाले) एक दूजे को जानते तक नहीं हैं जैसे एमगिरी और सर्व सेवा संघ तथा ग्राम सेवा मंडल तीनों वर्धा में है, पर तीनों एक दूजे को पहचानते तक नहीं हैं । यह जगह आज खाली है। वहां मांग है । पर भरेगा कौन ?
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