मंगलवार, 15 सितंबर 2015

सामयिक
श्रम की निर्विवाद महत्ता
शुभू पटवा
महात्मा गांधी ने शारीरिक एवं मानसिक श्रम, दोनों को बराबर माना और समान महत्ता भी दी । आज की दुनिया रोबोट के माध्यम से भविष्य रचने का प्रयास कर रही है । परंतु शारीरिक श्रम का महत्व हमेशा बना रहेगा ।
यह समझना निरी भूल ही है कि श्रम केवल शरीर से ही होता है । मानसिक श्रम भी श्रम है । यह श्रम विलास नहीं है । परन्तु महात्मा गांधी ने शरीर श्रम को जो महत्व दिया और उसे अपने एकादश व्रत में जोड़ा तो ऐसा उन्होंने शरीर श्रम को प्रतिष्ठा प्रदान करने के लिए ही किया    होगा । उन्हें मानसिक श्रम और शरीर श्रम के मध्य किसी तरह की होड़ नहीं करनी थी । गांधीजी ने यह इसलिए भी किया होगा कि शरीर श्रम की महत्ता दोयम दर्जे की न मानी जाए । दोनों का अपना अपना महत्व है । दोनों प्रतिस्पर्धी नहीं बल्कि एक दूसरे के पूरक हैं एवं समतुल्य हैं । 
हमारे समाज का यह दुर्भाग्य ही रहा है कि शरीर श्रम को आज भी दोयम ही माना जाता रहा है । यंत्रांे के अपरिमित उपयोग के पीछे का यह भी एक कारण है । छोटे से छोटे स्तर पर जहां यंत्रों का बेहिसाब उपयोग होता है वहां नमबुद्धि का काम है और न शरीर की क्षमता का । एक बार यंत्र को चाहे अनुसार स्थिर करके निश्ंचित हुआ जा सकता है । उस यंत्र से फिर जो भी निकलेगा वह वांछित हो या न हो उस पर किसी का काबू नहीं है । 
मिसाल के तौर पर कपड़े धोने की मशीन को लें या चाहे तो रसोई में काम आने वाली मिक्सी ले लें । कपड़े का कोई दाग छूटा या नहीं मशीन को इससे कोई सरोकार   नहीं । ठीक यही बात मिक्सी की    है । वह कम, अधिक मोटा या बारीक खुद कहां तय कर पाती है । जो डाला गया है उसे पीस कर मशीन को निकाल देना है । वह मोटा है या बारीक कोई सुघड़ नारी यदि बीच बीच में जांच ले तो बात अलग है पर मिक्सी या चक्की का इन बातों से कोई सरोकार नहीं ।
गांधीजी के बारे में कहा जाता है कि वह यंत्र विरोधी थे । वे केवल उन यंत्रों के विरुद्ध थे जो मनुष्य की नैसर्गिक श्रम क्षमता का ह्रास करते हैं । वैसे तो गांधीजी ने चश्मा, घड़ी और चरखा को भी यंत्र ही माना है । वे उबाऊ शरीर श्रम के विरोधी थे । इसीलिए सिलाई मशीन के विरोधी वे नहीं थे । क्या इन सबके उपयोग मे केवल शरीर श्रम ही लगता है बुद्धि नहीं । सिलाई की मशीन से कपड़ा सिलना क्या कला नहीं है ? आपका मन और बुद्धि दोनों जब तक एक साथ जुड़ी न हो और मशीन को चलाने की शरीर क्षमता जब तक न आ जाए तब तक क्या कपड़ा सिला जा सकता है ? इस तरह शरीर मन और बुद्धि का अनूठा तादात्म हम इसमें देख सकते हैं। गांधीजी ऐसे यंत्रों के कभी विरोधी नहीं रहे । 
एक बोध कथा है कि किसी संपन्न व्यक्ति के बगीचे का माली बड़ी सतर्क दृष्टि और पूरी तन्मयता से बगीचे की देखभाल करता है । बगीचे का मालिक भी उसके काम काज से बड़ा संतुष्ट रहता है । हरे भरे बगीचे से खुश मालिक माली से बाग में अंजीर का पौधा लगाने की इच्छा प्रकट करता है । 
मालिक की इच्छानुसार माली अंजीर का पौधा रोप देता है । समय के साथ पौधा पेड़ बन जाता है । पर मालिक की इच्छा तो पेड़ से फल प्राप्त करने की होती है । जो पूरी न होने से मालिक निराश हो जाता है । क्षुब्ध हुआ मालिक बगीचे के रखवाले अपने माली से कहता है कि इस पेड़ ने तो एक भी फल नहीं दिया और निरर्थक ही जमीन घेर ली है । अंजीर के इस पेड़ की क्या जरूरत है इसे हटा दो, काट डालो । माली के धैर्य की यह परीक्षा ही थी । माली बोला मालिक एक साल और रहने दीजिए । मैं थोड़ी कोशिश और कर लेता हूं शायद आपकी आशा फलवती हो जाए । माली की ईमानदारी, काम के प्रति लगन और समझ के आगे मालिक की सहमति स्वाभाविक थी । माली ने उस पेड़ की परवरिश पर कुछ अधिक ध्यान दिया । खाद पानी का पूरा खयाल किया । साल भर बीतते  उसमें फल आने लगे । 
यह कहानी एक ओर जहां माली के श्रम का प्रतिफल बताती है वहीं उसकी समझ और बुद्धि की झलक भी देती है । बगीचे का मालिक नहीं जानता था कि फल कब लगते हैं । कब कैसा और कितना खाद-पानी दिया जाना चाहिए । मालिक की समझ और बुद्धि अपनी जगह महत्वपूर्ण है और उसे उसका सिद्धहस्त भी माना जा सकता है । पर उस माली की समझ और बुद्धि ही अंजीर के पेड़ से फल प्राप्त करने में कामयाब हो सकी । 
यह बात हमें स्वीकार करना चाहिए । यह बोध कथा हमें यह मानने को विवश करती है कि शरीर श्रम, मन और बुद्धि ऐसे मिले जुले युग्म हैं कि किसी एक का नहीं पूर्ण युग्म की महत्ता ही इसमें निहित है। श्रम शरीर और मन के साथ ही उपर्युक्त बोध कथा हमें धैर्य की सीख भी देती है। कोई भी श्रम निरर्थक नहीं होता । पर उसके अपेक्षित फल सदा धैर्य में ही निहित हैं ।  
हम जानते हैं कि यंत्र का संचालन कभी उसकी अपनी समझ से नहीं होता । संचालन तो कोई हाथ ही करता है । यानी कि मनुष्य ही उसे संचालित करता है । यंत्र के  संचालित होने के बाद ही वह चलता है पर अपनी समझ से नहीं बेसमझी से । समझ मनुष्य के मस्तिष्क में ही होती है । गरज यह कि मस्तिष्क से बड़ा कोई यंत्र नहीं और मस्तिष्क मनुष्य के ही पास है । मनुष्य के ही पास दो हाथ और दो टांगे हैंजो शरीर श्रम के प्रतीक हैं । 
स्पष्ट है इन  तीनों के तालमेल से होने वाला श्रम ही सार्थक श्रम है। जो यंत्र इस तालमेल को बिगाड़ते हैं वे न श्रम की महत्ता बढ़ाते हैं और न इस प्रकृति के संपोषक हो सकते हैं । केवल विलास के पोषक हैं । इसीलिए गांधी के ग्यारह व्रतों में शरीर श्रम को एक माना गया कि विलास बेकाबू न    हो । आज इसी के बेकाबू हुए जाने को दंश यह जगत झेल रहा है ।                     
भगवान महावीर ने जिन पांच महाव्रतों की बात की है उनके  दो सूत्र अहिंसा और अपरिग्रह हैं ।  ये दोनों सूत्र किसी भी स्तर पर शोषण का निषेध करते हैं । शोषण न करना प्रकारांतर से श्रम की प्रतिष्ठा करना ही है । जैन मत का विश्वास पुरुषार्थवाद में है । आचार्यश्री महाप्रज्ञजी तो यहां तक मानते रहे हैं कि मनुष्य ने जिन सचाइयों का पता लगाया है वह सब मानवीय श्रम और पुरुषार्थ के द्वारा ही हुआ है । वे तो यहां तक कहते हैं कि श्रम निष्ठा का सिद्धांत जीवनशैली का मुख्य अंग होना चाहिए । आजकल दुनिया भर के मजदूरों क एक होने की आवाज उठतीहै । यह आवाज इस रूप में भी उठनी चाहिए कि हमारी जीवनशैली का मुख्य अंग श्रम निष्ठा ही होगा । यही आज के वक्त का तकाजा है ।

कोई टिप्पणी नहीं: