मंगलवार, 15 सितंबर 2015

कृषि जगत
आ रही हैंअधिक उपज देने वाली फसलें 
डॉ. अरविन्द गुप्त्े
सायनोबैक्टीरिया नामक सूक्ष्मजीवों का एक बहुत प्राचीन समूह है । इनमें क्लोरोफिल नामक हरा पदार्थ पाया जाता है और इसकी सहायता से वे सूर्य की ऊर्जा का उपयोग करते हुए कार्बन डाईऑक्साइउ और पानी से कार्बोहाइड्रेट समूह का स्टार्च (मंड) नामक पदार्थ बना सकते हैं । 
इस प्रक्रिया को प्रकाश संश्लेषण  कहते हैं । इस पदार्थ का उपयोग वे भोजन के रूप में करते   हैं । दूसरे शब्दों में, वे सूर्य की ऊर्जा का उपयोग करके अपनी शारीरिक गतिविधियों के लिए ऊर्जा प्राप्त् करते हैं । यह प्रक्रिया रूबिस्को नामक एन्जाइम के कारण संभव हो पाती है । यह एन्जाइम संसार का सबसे महत्वपूर्ण एन्जाइम है क्योंकि यह उस अभिक्रिया को उत्प्रेरित करता है जिसमें वातावरण में स्थित कार्बन डाईऑक्साइड को स्टार्च में बदला जाता है । किनतु रूबिस्को के साथ दिक्कत यह है कि यह बहुत धीरे काम करता है । यह एक सेकंड में केवलतीन अभिक्रियाएं करवा सकता है जबकि दूसरे एन्जाइम हजारोंकरवा देते हैं । 
आज से कोई दस करोड़ वर्ष पहले पानी में रहने वाले कुछ जीवधारियों ने इन सायनोबैक्टीरिया को निगल लिया और तब एक चमत्कार हुआ । बैक्टीरिया का जीवन समाप्त् नहीं हुआ, वे उन्हें खाने वाले जीवधारियों के शरीर में कैद हो कर रह गए और कैद करने वालोंके लिए सूर्य की ऊर्जा का उपयोग करते हुए स्टार्च बनाने लगे । यही बैक्टीरिया पौधोंकी कोशिकाआें में आजकल पाए जाने वाले हरितलवक यानी क्लोरोप्लास्ट हैं । भोजन बना सकने वाले इन कैदियों की बदौलत इन्हें आत्मसात करने वाले जीवधारियों की पौबारह हो गई । वे एक कोशिकीय से बहुकोशिकीए बन गए, आकार और संख्या में तेजी से बढ़ने लगे और कालांतर में पानी से बाहर निकल कर सारी पृथ्वी पर फैल कर उसे हरा-भरा बना दिया । इन्हीं जीवधारियों को हम पौधे कहते हैं । 
किन्तु इस सारी प्रक्रियामें एक समस्या पैदा हो गई । रूबिस्को का विकास तब हुआ था जब वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड की बहुतायत थी और ऑक्सीजन नहीं थी । वर्तमान में ऑक्सीजन बहुत है और कार्बन डाईऑक्साइड कम, जिसका परिणाम यह होता है कि जितनी ऊर्जा खर्च होती है उस अनुपात में स्टार्च का उत्पादन नहीं हो पाता है । इस कमजोरी के कारण पौधे सूर्य की ऊर्जा का अधिक कार्यक्षम तरीके से उपयोग नहीं कर पाते हैं । 
कैद में बंद सायनो-बैक्टीरिया, जो अब क्लोरोप्लास्ट बन बए हैं, को विकास का अवसर नहीं मिला जबकि स्वतंत्र रूप से रहने वाले उनके भाईबंधु, यानी सायनोबैक्टीरिया, विकसित होकर अपनी प्रकाश संश्लेषण की मशीनरी को अधिक कार्यक्षम बनाने में सफल हो गए । इसके फलस्वरूप वे सूर्य की अधिक ऊर्जा का उपयोग कर सकते हैं । उनमें कार्बोक्सिसोम नामक अंग विकसित हो गए जो एन्जाइम को अपने अंदर लपेट लेते है और उसके ईद-गिर्द कार्बन डाईऑक्साइड युक्त ऐसे वातावरण का निर्माण करते हैं जिससे एन्जाइम की कार्यक्षमता बढ़ जाती है और प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया तेज हो जाती है । 
एक लम्बे समय से वैज्ञानिकों का प्रयास रहा है कि फसलों के पौधों की कोशिकाआें में स्वतंत्र रूप से रहने वाले सायनोबैक्टीरिया का रूबिस्को रोपित कर दिया जाए ताकि उनकी उत्पादन क्षमता बढ़ सके । कई असफल प्रयासों के बाद यह उम्मीद बंधी है कि इसमें सफलता मिल जाएगी । अमेरिका के कॉर्नेल विश्वविघालय और ब्रिटेन की रॉदमस्टेड अनुसंधान प्रयोगशाला ने तंबाकू के पौधे में सायनोबैक्टीरिया के अधिक कार्यक्षम एन्जाइम को रोपित कर दिया है । किन्तु सायनोबैक्टीरिया का एन्जाइम तो कार्बन डाईऑक्साइड की बहुतायता वाले वातावरण में, यानी कार्बोक्सिसोम के साथ ही काम कर सकता है । अत: वैज्ञानिकों ने तंबाकू के ऐसे पौधे विकसित किए जो कार्बोक्सिसोम के समान संरचनाआें का विकास कर सकते थे । 
अब अगला चरण होगा कि दोनों प्रयोगों को मिला कर ऐसे पौधे बनाएं जाएं जिनके क्लोरोप्लास्ट अधिक कार्यक्षम हो और जो कार्बोक्सिसोम का निर्माण भी कर सके । यह अनुमान है कि यह अगले पांच वर्षो में संभव हो  सकेगा । 
न्यू साइंटिस्ट में प्रकाशित एक लेख के अनुसार यदि फसलों के पौधों में सायनोबैक्टीरिया की प्रकाश संश्लेशण की मशीनरी को डाला जा सके तो खाघान्नों का उत्पादन २५ प्रतिशत तक बढ़ाया जा सकता है । कुछ वैज्ञानिकोंका मानना है कि यह बढ़ोतरी ६० प्रतिशत भी हो सकती   है । एक और फायदा यह होगा कि पौधों को अपने छिद्रों (स्टेमेटा) को कम समय तक खुला रखना    पड़ेगा । इससे उनमें अधिक समय तक पानी बना रह सकेगा और उन्हें बाहर से कम पानी लेना पड़ेगा यानी सिंचाई के लिए कम पानी लगेगा । 
चूंकि यह अनुसंधान काफी आगे बढ़ चुका है, इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ ही दशकों में अधिक तेज प्रकाश संश्लेषण कर सकने वाली फसलें उगाई जाने लगेंगी । बढ़ती हुई आबादी की खाघान्न, कपास और खाद्य तेलों की बढ़ती जरूरतों को देखते हुए यह एक वरदान साबित हो सकता है । इसके अलावा, नए पौधे वातावरण से अधिक कार्बन डाईऑक्साइड लेंगे और इसके परिणामस्वरूप ग्लोबल वॉर्मिग के कारण मौसम मेंहोने वाले परिवर्तनों और इनके कृषि पर होने वाले विपरीत परिणाम से भी राहत मिल सकेगी । 
किन्तु इस आशाजनक संभावना में एक पेंच भी है । कुछ वैज्ञानिकोंऔर पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाली संस्थाआें का जीन्स में परिवर्तन करके बनाए गए पौधों के प्रति हमेशा विरोध रहा है । जीएम कपास और जीएम बैंगन पर हमारे देश में चल रहा विवाद इसका उदाहरण है । विरोध का आधार यह है कि यदि परिवर्तित जीन जंगली पौधों में पहुंच गए तो इन पर नियंत्रण करना कठिन हो जाएगा । जीएम का पक्षधर तबका सोचता है कि यह डर निराधार है । 
संसार के कईभागों में कुछ पौधे अनियत्रिंत तरीके से बढ़ रहे हैं और उपयोगी वनस्पतियों के लिए खतरा बने हुए है । हमारे देश में जलकुंभीऔर गाजरघास इसके उदाहरण हैं। किन्तु ये जीएम पौधे नहीं हैं, ये दूसरे देशों से लाए गए हैं और अनियंत्रित हो गए हैं । यह तय है कि बढ़ते हुए शहरीकरण और औद्योगीकरण के कारण कृषि और जंगल की जमीन का रकबा कम होता जाएगा । ऐसे मेंअधिक उपज देने वाली फसलें वरदान ही साबित होगी । यदि कुछ परिवर्तित जीन जंगली पौधों की अनापशनाप वृद्धि होने लगी तो भी यह एक अच्छी बात हो सकती है । 
आखिर जंगल में रहने वाले जीवधारी भी भोजन और आश्रय के लिए जंगल की वनस्पतियों पर ही निर्भर रहते हैं । घास परिवार पौधों का एक समूह ऐसा है जिसने लगभग तीन करोड़ वर्षो पहले ही अधिक कार्यक्षम प्रकाश संश्लेषण का तरीका अपना लिया था । इसके कारण संख्या की दृष्टि से पूरे वनस्पति जगत का केवल ४ प्रतिशत होने के बावजूद इस समूह की जैवमात्रा (बायोमास) वनस्पति जगत की २५ प्रतिशत है । घास परिवार के पौधे सभी प्रकार के जंतुआेंके लिए भोजन का स्त्रोत है । अत: यह चिंता करने की आवश्यकता नहीं है कि कुछ अनचाहे पौधों में अधिक कार्यक्षम प्रकाश संश्लेषण की व्यवस्था विकसित हो गई तो कोई बहुत बड़ा संकट आ जाएगा । 

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