पर्यावरण परिक्रमा
हम जहर खाने को मजबूर
हमारी थाली में जहर परोसा जा रहा है, इसका भान दूसरे देशों से आ रहीं खबरों से हो रहा हैं । हाल ही में भारतीय फल, सब्जियों और चाय का यूरोपियन यूनियन देशों और सऊदी अरब ने जहरीला बताते हुए आयात पर अस्थाई प्रतिबंध लगा दिया । यह आश्चर्य का विषय हैं कि भारतीय चाय में अभी भी डी.डीटी. की मात्रा पाई जाती है ।
अपने देश में अब तक लगभग १९० प्रकार के रसायनों, कीटनाशकों या फंफूदी नाशकोंका पंजीयन हुआ है जिनमें से केवल ५० की बर्दाश्त क्षमता से हम भिज्ञ हैं । शेष के बारे में अंधेरे में हैं । इनके अलावा नकली दवाआें की लम्बी सूची भी हैं । मासलेकर समिति की सिफारिश पर संसद में संशोधन विशेयक यही सोच कर लाया गया था कि कुछ नकेल लगे पर बात न बनी । डी.डी.टी., बी.एच.सी., काबानेट, इन्डोसल्फान, डेलड्रीन जैसे रसायन, कृषि एवं स्वास्थ्य क्षेत्र में धड़ल्ले से प्रयुक्त हो रहे हैं जो विदेशों में प्रतिबंधित हैं । इस प्रकार देश में कुल ४० ऐसी दवाएं कृषि क्षेत्र में प्रयोग में लायी जा रही हैं जो बाहर प्रतिबंधित हैं । हमारे यहां कीटनाशकों का बेचना या खरीदना, नियंत्रित नहीं है । सल्फास की गोलियां पंसारी की दुकान पर भी मिल जाती हैं ।
कीटनाशकों के प्रयोग में जैसी लापरवाही बरती जा रही हैं, उससे न केवल प्रयोगकर्ता के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है अपितु हवा, पानी और सभी प्रकार के खाद्य पदार्थ विषैले हो रह हैं । विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार मां के दुध में डी.डी.टी. की मात्रा, मनुष्य के शरीर के निर्धारित सामान्य मात्रा से ७७ गुना अधिक हो चुकी है ।
कीटनाशकोंके प्रयोग से पानी विषैला हो रहा है । पानी के विषैले होने के कारण जमीन की ऊर्वरकता घट रही है । पानी में रहने वाले तमाम उपयोगी जीव-जन्तु जैसे घोंघा, सीपी, मेढ़क और छोटी-छोटी मछलियों की प्रजातियां हमेशा के लिए समाप्त् हो रही हैं ।
हमारे देश के ज्यादातर किसान अशिक्षित हैं । तमाम कीटनाशकों की खरीद और प्रयोग वे दूसरे किसानों से पूछ कर करते हैं । पानी और उनमें मिलाए जाने वाले कीटनाशकों की मात्रा उचित नहीं रखी जाती । दवाआें के साथ दिए गए निर्देशों को ज्यादातर किसान पढ़ नहीं पाते । इस कारण अंदाज से घोल तैयार किए जात हैं ।
छिड़काव के समय और बाद जरूरी सावधानियां नहीं बरती जाती हैं । सब्जियों के ऊपर कीटनाशको को छिड़कने के कितने दिनोंबाद बाजार में लाया जाना चाहिए, इसका ख्याल नहीं रखा जाता । इस प्रकार सब्जियों और फलों के छिलकों में घुला कीटनाशक हमारे शरीर में पहुंच रहा है । दुधारू पशुआें के स्तनों में आक्सीटोक्सीन सूई लगाकर दूध निकाला जा रहा है जो हारमोन्स अंसतुलन, गुर्दे की खराबी, कैंसर और बच्चें में मानसिक विकृतियां पैदा कर रहा है । कीटनाशकों और खरपतवार नाशकों के अंधाधुंध प्रयोग के कारण हमारे देश में गुर्दे, त्वचा, बांझपन, अल्सर और कैंसर की बीमारियां तेजी से बढ़ी हैं । इसलिए जरूरी है कीटनाशकों का अधिक प्रयोग रोका जाए ।
नर्मदा बचाओ आंदोलन के तीन दशक
संघर्ष सिर्फ इतना है-विकास चाहिए, विनाश नहीं । यह छोटी सी बात को समझाते, लड़ते, जूझते तीन दशक बीत गए । नर्मदा घाटी में ३० साल पहले गांव-गांव में शुरू हुई यह चिंगारी एक बड़े आंदोलन के रूप में सामने आई । नर्मदा घाटी और यहां के लोगोंको बचाने का आंदोलन । तब से यह लंबा संघर्ष चल रहा है । आंदोलनकारियों की लंबी लड़ाई अभी चल रही है ।
गुजरात में सरदार सरोवर बांध के निर्माण की शुरूआत के साथ ही आंदोलन शुरू हुआ । तीन राज्यों को प्रभावित करने चाले बांध से होने वाले असर को लेकर शुरूआत से ही विरोध के स्वर उठने थे । ऊंचाई के साथ-साथ विरोध के स्वर भी बढ़ते गए । नर्मदा पर छोटे-बड़े बांध बने तो उतने ही विस्थापितों की आवाज का दमन भी । लाठीचार्ज, जेल और कई और यातनाएं । नर्मदा बचाओ आंदोलन एक ऐसा आंदोलन जिसकी कोई जरूरत नहीं होती अगर सरकारी नीतियां सही होती, नीयत सही होती । गरीब मजदूरों के अधिकरों पर संवेदनशीलता होती । देश की यह ऊर्जा किसी अन्य कार्य में लगाई जा सकती थी ।
आंदोलन ने दुनिया को बहुत कुछ नया सोचने पर मजबूर कर दिया
पुनर्वास के बिना बांध की बात नहीं : अब दुनिया में कहीं भी बांध की बात होती तो है तो पहले पुनर्वास की बात होगी ।
विश्व बैंक ने पैनल बनाया : फंडिग प्रोजेक्ट से प्रभावितों के लिए एक पैनल विश्व बैंक ने बनाया है। यह पैनल प्रोजेक्ट से होने वाले प्रभावें का अध्ययन करता हैं । नेपाल में ऐसे ही एक बांध का काम रोक दिया गया ।
कोर्ट ने दिए हक के फैसले : यह अंादोलन की कोशिश ही रही कि सुप्रीम कोर्ट भी विस्थापितों की बात से सहमत हुआ । १९९४ के एक फैसले में पूरा निर्माण ही रोक दिया गया । चार साल बाद सशर्त निर्माण की अनुमति दी । २००५ में व्यस्क पुत्र को अलग से जमीन की पात्रता मिली । २०११ सरकार ने इस पर अपील की ।
जमीन का अधिकार : संघर्ष का नतीजा है कि विस्थापितों को जमीन के बदले जमीन मिली ।
नागरिक शक्ति का उदय : आंदोलन से एक गैर राजनीतक शक्ति का उदय हुआ । डूब प्रभावित और आदिवासी बहुल गांवों में जागरूक ता बढ़ी । लोग अपने अधिकारों के लिए आगे आए ।
पहले खुद अमल करता है ग्रीन ट्रिब्यूनल
सेन्ट्रल जोन का नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) महज आदेश जारी करने वाला कोर्ट नहीं है। ट्रिब्यूनल के कैंपस में भी पर्यावरण का ख्याल रखा जाता है । वह भी आदेश से नहीं, अनुशासन से । भोपाल स्थित कैंपस में जस्टिस, वकील, कर्मचारी सबकी गाड़ी पर पॉल्यूशन अंडर कन्ट्रोल सर्टिफिकेट चस्पा है । पॉलीथिन का इस्तेमाल नहीं होता । एनजीटी बार एसोसिएशन के वकील और कर्मचारी भी घर से दफ्तर तक पर्यावरण के प्रति इतने सजग रहते हैं । अप्रैल २०१३ से भोपाल में स्थापित इस सेन्ट्रल बेंच ने ४०० से ज्यादा मामलों में आदेश दिए हैं । उन पर अमल हो रहा है या नहीं इसकी निगरानी भी करती है । सेन्ट्रल जोन के दायरे में तीन राज्य मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान आते हैं ।
यहां प्रिंट नहीं निकाले जाते - प्रिंट लेने की सख्त मनाही है । जरूरी होने पर ही इक्का-दुक्का प्रिंट लिए जाते हैं । जरूरी दस्तावेज की सॉफ्ट कॉपी मेल या पेन ड्राइव पर ही मिलती है । आखिर पेड काटकर ही तो कागज बनते है ।
पॉलिथिन बैन नहीं, पर अनुशासन - लगता है कि कैंपस में पॉलीथिन पर रोक है । पर यह आदेश नहीं अनुशासन है । स्टाफ टिफिन बॉक्स भी जूट बैग में लाते है । खुद न्यायाधीश भी । फाइलों के कवरतक के पॉलीथिन वर्जित है ।
दिन मेंकमरे में लाइट नहीं जलती - दिन के वक्त लाइट के स्विच ऑफ रहते हैं । रोशनी के लिए खिड़कियां ही खुली रखी जाती है । देर शाम तक काम चला तो लाइट का इस्तेमाल होता है वो भी कम से कम ।
एसी कूलिंग २४ डिग्री से कम नहीं - साफ आदेश है कि एसी की कूलिंग २४ डिग्री से कम नहीं होगी । आखिर इससे भी तो जरूरत से ज्यादा बिजली लगेगी । न्यायाधीश के कक्ष में कूलिंग २६ डिग्री पर रखी जाती है ।
पानी में डूबी जमीन भी रहेगी सूखी
आपने पानी में तैरते और डूबते उतराते ऐसे जीव देखे होगे, जो पानी की सतह पर रहते हुए भी भीगते नहीं है । अधिकतर मछलियां भी पानी में रहते हुए भी भीगती नहीं है । यह बात आपको चौकाने वाली लग सकती है, लेकिन ऐसा बिलकुल संभव है । नई तकनीक से पानी में रहकर भी वस्तुआें या जमीन को सूखा रखा जा सकेगा ।
इस तकनीक से पानी में डूबी सामग्री को भीगने से बचाया जा सकेगा । यहां तक कि पानी मेंडूबी वस्तुएं या धरातल को भी सूखा रखा जा सकेगा । यह तकनीक विकसित की है अमेरिका में भारतवंशी थ्यूरेटिकल मैकेनिकल इंजीनियर नार्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी के नीलेश ए. पाटनकर ने । नीलेश ए. पाटनकर के अनुसार हमने सबसे पहले ठोस पदार्थ की पहचान की, जिसमें वाष्पीकरण की प्रक्रिया हो सके । इसमें गैसों का ऐसा भंडारण होगा, जो धरातल को भीगने से रोकेगा । नैनो टेक्नोलॉजी पर आधारित यह ऐसा टेक्सचर है, जिसके नीचे पानी रत्तीभर भी नही पसीजेगा । जिस सतह पर इसे चस्पा कर दिया जाए, वह सूखी रहेगी । इसकी मोटाई एक माइक्रोन से भी कम है । एक-एक मीटर का दस लाखवें हिस्से से भी कम है ।
यह टेक्सचर वास्तव में गैसों का ऐसा मिश्रण अपने साथ लिए हुए है, जिससे पानी रिसने की बजाय वाष्पीकृत होगा और कोटेट मटेरियल को संरक्षित करेगा । नैनो तकनीक पर आधारित होने से इसे कोटिंग की तरह धरातल या किसी भी सतह पर लगाया जा सकेगा ।
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