कविता
वृक्ष की अभिलाषा
रमेश सिंह यादव
मैं हूँ वृक्ष, मेरी भी है कुछ अभिलाषा ।
तपते सूरज के धूप की मार,
ऊपर से कुल्हाड़ी की वार ।
क्रूर बना इंसान क्यों इतना ?
अब मैं दर्द सहूँगा कितना ?
घट गई मेरी जीवन प्रत्याशा ।
मैं हूँ वृक्ष, मेरी भी है कुछ अभिलाषा ।
तुफानों की मार झेलता,
बारिश की प्रहार झेलता।
जी तो करता मेवे खाऊँ,
कभी ना फिर मैं काटा जाऊं ।
कोई दे दे यही दिलाशा,
मैं हूँ वृक्ष, मेरी भी है कुछ अभिलाषा ।
मैं गुजारिश करता अनबोलता प्राणी,
हे ! जग के लोग बन जाओ माली ।
तभी भरेगी सबकी थाली,
ऐसी है यह मेरी आशा।
मैं हूँ वृक्ष, मेरी भी है कुछ अभिलाषा ।
वृक्ष की अभिलाषा
रमेश सिंह यादव
मैं हूँ वृक्ष, मेरी भी है कुछ अभिलाषा ।
तपते सूरज के धूप की मार,
ऊपर से कुल्हाड़ी की वार ।
क्रूर बना इंसान क्यों इतना ?
अब मैं दर्द सहूँगा कितना ?
घट गई मेरी जीवन प्रत्याशा ।
मैं हूँ वृक्ष, मेरी भी है कुछ अभिलाषा ।
तुफानों की मार झेलता,
बारिश की प्रहार झेलता।
जी तो करता मेवे खाऊँ,
कभी ना फिर मैं काटा जाऊं ।
कोई दे दे यही दिलाशा,
मैं हूँ वृक्ष, मेरी भी है कुछ अभिलाषा ।
मैं गुजारिश करता अनबोलता प्राणी,
हे ! जग के लोग बन जाओ माली ।
तभी भरेगी सबकी थाली,
ऐसी है यह मेरी आशा।
मैं हूँ वृक्ष, मेरी भी है कुछ अभिलाषा ।
2 टिप्पणियां:
आज के परिवेश में, पर्यावरण के प्रति जागरूकता लाने में सहायक होगा ये कविता। ह्रदयस्पर्शी
आप लोगों के सहयोग की अपेक्षा है।
रमेश
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