सोमवार, 16 अक्तूबर 2017

वातावरण
शहरों में फैलता लैंड-फिल गैसों का खतरा
डॉ. ओ.पी. जोशी

कचरा वातावरण में हानिकारक गैसों को उत्सर्जित करता है । कचरे के सड़ने के साथ ही उसमें मीथेन गैस पैदा होती है, जो लैंडफिल साइट में आमतौर पर विषैली गैसें दूर-दूर तक जहरीले धुएं के रूप में फैलती है । नगरों एवं महानगरों में कूड़े कचरे के सड़ने से निकली विषैली गैसों की समस्या तेजी से फैल रही है ।
हाल ही में दिल्ली के  गाजीपुर कचरा भराव क्षेत्र (लैंड-फिल साइटों) में हुई दुर्घटना से  जानमाल की हानि हुई । यह दुर्घटना दर्शाती है कि स्वच्छ भारत अभियान के तहत हम कचरा एकत्र करने एवं उस भराव क्षेत्र लैंड-फिलया पाटन क्षेत्र (डम्पिंग) तक पहुँचाने में ही सफल रहे, उचित निष्पादन या निपटान में नहीं । देश के ज्यादातर शहरों में एकत्र कचरे का उचित निपटान आधुनिक एवं वैज्ञानिक विधियों से नहीं हो रहा है । कूड़े-कचरे के बढ़ते ढेरों के साथ-साथ नगरों एवं महानगरों में कूड़े-कचरे के सड़ने से निकली विषैली गैसों की समस्या भी फैलती जा रही है । 
कचरे के सड़ने से पैदा इन विषैली एवं बदबूदार गैसों को वैज्ञानिक `लैंड-फील गैस` कहते हैं। विकास की दौड़ में नगर एवं महानगर तेजी से फैलते जा रहे हैं । इस फैलाव हेतु शहरों के आसपास की गड्डांेे वाली या उबड़खाबड़ भूमि  को कचरे से पाट दिया जाता है । एवं फिर समतलीकरण कर वहाँ मकान, सड़कें एवं व्यावसायिक भवन आदि बनाये जाते हैं । देश के कई नगरांे एवं महानगरों में कचरा मैदान पर आलीशन इमारतें एवं रहवासी क्षेत्र बन गए हैं । शहरी कचरे के पृथककरण (कचरे की प्रकृति अनुसार अलग-अलग करना) की उचित व्यवस्था नहीं होने से शहरी कचरे में कारखानों का व्यर्थ, दवाखानों की गंदगी, प्लास्टिक, थर्मोकोल एवं बेकार इलेक्ट्रानिक उपकरण (ई-वेस्ट) भी होते हैं । 
गड्डों के भराव के समय डाला गया कचरा बगैर किसी रासायनिक या अन्य प्रकार के उपचार के डाल दिया जाता है। इस मिश्रित कचरे में उपस्थित विभिन्न प्रकार के रसायन परस्पर सम्पर्क में आकर १०-१२ वर्षेंा के बाद कई प्रकार की रासायनिक क्रियाएँ करते हैं । इस रासायनिक क्रियाओं के फलस्वरूप कई प्रकार की विषैली बदबूदार गैसें पैदा होने लगती हैं जिन्हंे `लैंड-फिल गैस` कहा जाता है । 
इन गैसों में हाइड्रोजन-सल्फाइड, नाइट्रोजन आक्साइड्स, कार्बन मोनो आक्साइड, मिथेन तथा सल्फर डाय आक्साइड  प्रमुख होती है। किये गये अध्ययनों एवं उनके आधार पर बनाये कुछ नियमानुसार कचरा मैदानों पर कचरा भराव व समतलीकरण के बाद भवन निर्माण या बसाहट के कार्य १५ वर्ष के बाद किये जाने चाहिए । इस अवधि में कचरे के सड़ने सेे पैदा लैंड-फिल गैस उत्सर्जित हो बाहर निकल कर वायुमंडल में मिल जाती है । ये लैंड-फिल गैस इलेक्ट्रानिक उपकरणों के साथ-साथ मानव स्वास्थ्य एवं भू-जल पर विपरित प्रभाव डालती है । 
हमारे देश में नईदिल्ली, बंगलुरू, अहमदाबाद, गुड़गांव एवं नोएडा आदि क्षेत्रों में कचरा मैदान पर बने भवनों में स्थापित कार्यालय या घरेलू उपयोग के आने वाले कम्प्यूटर, लेपटाप, एसी, टीवी, प्रिंटर तथा अन्य इलेक्ट्रानिक उपकरणों की कार्य प्रणाली में गड़बड़ी देखी गई है । जैसे कम्प्यूटर पर दी गयी कंमाड बेअसर हो जाती है एवं धातुओं से बने भाग काले होने लगते हैं । 
कम्प्यूटर के भागों में लगी चाँदी व तांबे की धातुएँ मिथेन व हाइड्रोजन-सल्फाइड से प्रभावित होती है । लैंड-फिल गैस के प्रभाव से एक वर्ष चलने वाले कम्प्यूटर व सर्वर आदि २-३ माह में ही खराब होने लगता है। मुंबई के मलाड में विपटा मांइड स्पेस में व्यावसायिक क्षेत्र में कई कम्पनियांे के एक हजार से ज्यादा कम्प्यूटर तथा सैकड़ों सर्वर लैंडफील गैसों से प्रभावित होते देखे गये हैं। इसका कारण यह है कि इस व्यवसायिक क्षेत्र के स्थान पर कचरा-मैदान था जहाँ लगभग एक हजार टन कचरा प्रतिदिन डाला जाता था । 
कचरे के पूरी तरह सड़ने के पूर्व ही व्यवसायिक क्षेत्र विकसित किया गया । यहाँ कार्यरत कम्पनियाँ अब कमरों में एअर प्यूराफायर लगाने पर जोर दे रही है ताकि लैंड-फिल गैसों का प्रभाव कम हो सके । नेशनल सालिड वेस्ट एसोसिएशन ऑफ इंडिया के रसायनविदों ने भी अध्ययन कर इसी बात की पुष्टि की है कि उपकरणों पर हो रहा प्रभाव लैंड-फिल गैसों का ही परिणाम है । 
मनुष्यों में भी इन गैसों के संपर्क में आने पर दमा, श्वसन, त्वचा व एलर्जी रोग बढ़े हैं। महिलाओं में मूत्राशय के कैंसर की संभावना भी बताया गयी है । भूजल में नाइटे्रट की मात्रा बढ़ने का एक कारण ये गैसें भी बताई गयी है । इन गैसों के प्रभावों से बचने हेतु कचरा रासायनिक विधियोंें से उपचारित कर भराव हेतु डाला जावे या भराव वाले स्थानों पर १२-१५ वर्षों के बाद निर्माण कार्य हो ।

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