सोमवार, 16 अक्तूबर 2017

दीपावली पर विशेष 
पर्यावरण संरक्षण एवं मानव जीवन
डॉ. अर्चना रानी
अनंतकाल से मानव का प्रकृति से घनिष्ठ संबंध रहा है । भारत की प्राचीनतम संस्कृति अरण्य संस्कृति तो मात्र प्रकृति की उपासना ही है । सनातन सत्य की तरह हमारे धार्मिक ग्रन्थ, हमारी प्राचीनकालीन मूल संस्कृति तथा उसमें अन्तर्निहित सिद्धान्त हमें सिखाते है कि हमें प्रकृति की उपासना जीवन साध्य के रूप में करनी है । 
उन्नत हिमालय के शिखरों से लेकर अरावली, विध्याचल और नीलगिरी पर्वतमालाआें के बीच विस्तृत रूप से फैली हुई घाटियों, कलकल करती हुई  बहती नदियों तथा उपजाऊ मैदानों में वृक्ष कुंजों से सुशोभित ऋषि आश्रम, गुरूकुल ज्ञानपीठ तथा पवित्र नदियों के निर्मल जल से सिंचित वन उपवन, खेत-खलिहान एवं सामाजिक रीति-रिवाज इसके साक्षात प्रमाण है ।
यदि कश्मीर को पृथ्वी का स्वर्ग कहा जाता है तो निश्चय ही इसके पीछे प्राकृतिक वनस्पतियों, झीलों और पर्वतों की अहम भूमिका है । यही कारण है कि प्राकृतिक सौन्दर्य के समक्ष कोई भी मानव निर्मित छवि टिक नहीं पाती है । इस देश की महान संस्कृति में वृक्षों, जल, अग्नि, भूमि तथा जीव-जन्तुआें की पूजा, अर्चना और वंदना की परम्परायें प्रतिष्ठित हैं । 
प्रकृति ने हमें इस संसार में अद्भूत और अनोखी रचनाएं उपहार में दी है । इसीलिए हमारे पूर्वजों, ऋषि-मुनियों ने प्रकृति को माँ की तरह पूजा और शस्य-श्यामला भूमि की तथा पंच तत्वों की उपासना    की । ये सभी हमें प्रकृति के साथ जीने की कला सिखाते हैं, हमें अर्न्तदृष्टि देते हैं, तथा जीवन दर्शन के विकल्प सुझाते हैं । आज भी यदि परमात्मा की पहचान करनी हो, नैसर्गिक आनंद की अनुभूति प्राप्त् करनी हो तो वन्य जीव-जन्तुआें से सुशोभित जंगली, रंग-बिरंगी पुष्पाच्छादित पर्वतमालाआें, झरनों, नदियों के क्षेत्र में जाना होगा । 
भारतीय संस्कृतिमें प्रकृति के प्रति अनुराग और संरक्षण की चिंतन धारा विद्यमान है । प्रकृति से अनुराग भारतीय संस्कृति में इस सीमा तक समाया हुआ है कि यहां मनुष्य मन के प्रकृति से पृथक अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की गई है और वनों एवं जीवों को प्रकृति का अभिन्न अंग माना गया है । ईश्वर की रचना में सब कुछ अनूठा एवं विलक्षण है । 
हमारी संस्कृति में पृथ्वी का माता का स्वरूप दिया गया है । प्राचीन काल में मनुष्य यह मानता था कि जब तक नदी, झरने, पशु, पक्षी, जंगल और पहाड़ का अस्तित्व है, उसका जीवन भी तब तक ही रहेगा । जिस जंगल के वृक्षों से फल तोड़कर वह पेट भरता है, यदि वह जंगल स्वयं ही नहीं बचेगा तो मनुष्य का स्वयं का जीवन भी बचाना असंभव रहेगा । जिस जल धारा का पानी पीकर वह प्यास बुझाता है यदि वह जलधारा सूख गयी तो उसका जीवन भी समाप्त् हो जायेगा । उस समय मनुष्य प्रकृति के प्रति आत्मीयता की भावना रखता था और प्रकृति के प्रति सहचर की भूमिका का निर्वाह करता था ।
मानव सभ्यता का आरंभ प्रकृति के आसपास वनोंमें ही    हुआ । आदिमानव प्रारम्भिक दौर में वनों में उसी भांति रहा करते थे जिस भांति वन के जीव जन्तु आज भी वनों में रह रहे है । हजारों या लाखों वर्ष बाद मनुष्यों की बुद्धि जब थोड़ी परिपक्व हुई तब उन्होंने अपना घर बार स्थापित किया । बाद में केवल ऋषि-मुनियों के आश्रम ही वन में रह गए, क्योंकि उन्हें एकान्त प्रिय था । वन में रहकर वे साधना करते थे तथा इसी क्रम में उन्होंने दुर्लभ जड़ी बूटियों की खोज की । मनुष्य तथा जीव जगत के अन्य सभी प्राणी शांति के आकांक्षी रहे है । पक्षी भी एकान्तमय प्राकृतिक वातावरण में रहना पंसद करते हैं, तथा केवल प्रात: और संध्या में ही थोड़ा कलरव करना पंसद करते हैं । मनुष्य आदिकाल से प्रकृति के सानिध्य में रहा तथा छोटी-छोटी टोलियों में रहना उसने पंसद किया । हमारे लाखों गांव इस तथ्य की पुष्टि करते हैं । प्राचीन नगरों की आबादी निश्चय ही अधिक थी, परन्तु उस समय वहां भी अनियंत्रित शोर-शराबा नहीं था । परन्तु धीरे-धीरे मनुष्य के जीवन मूल्य बदल गए तथा प्रकृति के प्रति मनुष्य की आत्मीयता की भावना लुप्त् होती गयी । 
मनुष्य का दृष्टिकोण भौतिकवादी, उपभोक्तावादी और व्यवसायिक होता गया और वह प्राकृतिक संसाधनों का मनमाना दोहन करने लगा । पहाड़, नदी, झरने, वनस्पतियां और जीव-जन्तु मनुष्य की अर्थ लोलुपता और स्वार्थ भावना का शिकार होते चले गये । मानव की प्रकृति विरोधी गतिविधियों के कारण हरे-भरे वन उजड़ गए तथा वर्तमान समय में मानवीय हस्तक्षेप के कारण प्रकृति की मूलभूत संरचना में ऐसे अवांछनीय परिवर्तन हुए कि पर्यावरण असंतुलित एवं प्रदूषित हो गया । इस स्थिति में पर्यावरण असंतुलन व प्रदूषण के लिए उत्तरदायी कारकों को दूर करके पर्यावरण संरक्षण के लिए अपेक्षित प्रयास करना आवश्यक है । 
वृक्षों का असीमित और अनियंत्रित अंधाधंुध कटान तो होता रहा, किन्तु नये वृक्ष लगाने की आवश्यकता नहीं समझी गयी । परिणामत: अधिकांश वन समाप्त् हो गये । वनों में वास करने वाले जीव-जन्तुआें का वास स्थल नष्ट हो गया । अनेक जीव-जन्तु विलुप्त् हो गए और अनेक विलुप्त् होने के कगार पर पहुंच गए । वृक्षों के कटान के बाद पहाड़ों की वृक्ष विहीन नंगी चोटियों से वर्षो का पानी मिट्टी काटकर नदियों का जलस्तर ऊंचा उठा देता है । परिणामस्वरूप मैदानी क्षेत्रों में बाढ़ आ जाती है, जबकि वृक्ष वर्षा के पानी को रोककर मिट्टी को कटने और बहने से बचाते है । वर्षा के जल का संचय कर जल प्रबंधन का बेहतर उपोग किया जा सकता   है । 
कृषि कार्य मेंप्रयोग होने वाली सभी कीटनाशक तथा रासायनिक उर्वरक अपना विषैला प्रभाव फसल पर छोड़ने के साथ-साथ पक्षियों, पशुआें पर भी छोड़ते   हैं । जल में घुलकर ये रसायन जलाशयों में पहुंचकर मछलियों को विषाक्त कर देते हैं । इस प्रकार फसल पक्षियों तथा मछलियों के माध्यम से ये रसायन मांसाहारी तथा शाकाहारी दोनों प्रकार के व्यक्तियों को हानि पहुंचाते है । ये रसायन मिट्टी से छनकर भूमिगत जल में मिल जाते हैं और कुंआें, नदियों व हैडपम्पों के जरिए मनुष्य तक पहुंचते हैं । विश्व भर में शुद्ध पेयजल की मात्रा में दिन-प्रतिदिन होती कमी चिंता का विषय तो है ही, साथ ही साथ जल प्रबंधन में अकुशलता तथा व्यक्तिगत स्तर पर लापरवाही इस समस्या को और गंभीर बना रही है । 
हम लोग जहां रहते है वहां जलवायु, वनस्पतियाँ, प्राकृतिक संसाधन, जीव-जन्तु आदि सभी पर्यावरण के ही अंग है । नदी, सरोवर, कुंए आदि का जल किस प्रकार स्वच्छ रहे, पर्यावरण की जानकारी होना प्रत्येक व्यक्ति के लिए 
नितान्त आवश्यक है । स्थानीय वनों का क्षेत्र कितना है तथा उसे कितना होना चाहिए, मिट्टी के कटाव को किस प्रकार रोका जा सकता है, वायु को प्रदूषित होने से किस प्रकार बचाया जा सकता है, इन पर गहनता से अध्यन का अनुसरण किया जाना आवश्यक है । प्रत्येक व्यक्ति, समाज, राष्ट्र यहां तक की समग्र विश्व इसके संरक्षण के लिए चिन्तित है । सारे विश्व में पर्यावरण के प्रति एक व्यापक चेतना पैदा होना तथा व्यक्ति स्तर पर इसके लिए दायित्व बोध का होना एक महत्वपूर्ण विषय है । 
पर्यावरणीय अवक्रमण विश्वव्यापी समस्या है, जिसका समाधान पर्यावरण संरक्षण से ही संभव है । जनाधिक्य के कारण पर्यावरण प्रदूषण की गंभीर समस्या उत्पन्न हो जाती है । आधुनिक यंत्रीकृत सभ्यता हमारे जीवन की खुशियों को हर प्रकार से छीन रही है, हमें प्रकृति से दूर कर रही है, इस पर गंभीरतापूर्वक विचार करने का समय आ गया है । वर्तमान समय में मनुष्य प्राकृतिक संसाधनों का पृथ्वी की उत्पादन क्षमता से अधिक दोहन कर रहा है ।
युवा पीढ़ी को बताना होगा कि प्रकृति और मनुष्य के बीच का सन्तुलन शताब्दियों - सहस्त्राब्दियों पुराना है । आज आवश्यकता इस बात है कि मनुष्य प्रकृति और पर्यावरण के प्रति संवेदनशील बने । 

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