सोमवार, 16 अक्तूबर 2017

कृषि जगत
कृषि संकट की जड़ें
जावेद अनीस
राजनीतिक दलों के लिये किसान एक ऐसे चुनावी मुद्दे की तरह है जिसे वे चाह कर भी नजरंदाज नहीं कर सकते क्योंकि यह देश की करीब आधी आबादी की पीड़ा है जो अब नासूर बन चुका है । 
विपक्ष में रहते हुए सभी पार्टियाँ किसानों के पक्ष में बोलती हैंऔर उनकी आवाज को आगे बढ़ाती हैं लेकिन सत्ता में आते ही वे उसी विकास के रास्ते पर चलने को मजबूर होती हैं,जहाँ खेती और किसानों की कोई हैसियत नहीं है। मौजूदा व्यवस्था में किसान अपने वजूद की लड़ाई लड़ने के लिए अभिशप्त हैं।
आज भारत के किसान खेती में अपना कोई भविष्य नहीं देखते हैं,उनके लिये खेती-किसानी बोझ बन गया है । हालात यह हैं कि देश का हर दूसरा किसान कर्जदार है । राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आंकड़े बताते है कि यदि कुल कर्ज का औसत निकाला जाए देश के प्रत्येक कृषक परिवार पर औसतम ४७ हजार रुपए का कर्ज है ।
इधर मौजूदा केन्द्र सरकार की तुगलगी हिकमतें भी किसानों के लिए आफत साबित हो रही हैं, नोटबंदी ने किसानों की कमर तोड़ के रख दी है । आंकड़े बताते हैं  किनोटबंदी के चलते किसानों को कृषि उपज का दाम ४० फीसदी तक कम मिला । जानकार बताते हैं कि खेती-किसानी पर जीएसटी का विपरीत प्रभाव पड़ेगा, इससे पहले से ही घाटे में चल रहे किसानों की लागत बढ़ जायेगी । मोदी सरकार ने २०२२ तक किसानों की आमदनी दुगनी कर देने जैसे जुमले उछालने के अलावा कुछ खास नहीं किया है। आज भारत के किसान अपने अस्तित्व को बनाये और बचाए रखने के लिए अपने दोनों अंतिम हथियारों का इस्तेमाल कर रहे हैं, जिसके दावं पर उनकी जिंदगियाँ लगी हुई हैं । एक हथियार गोलियाँ-लाठियाँ खाकर आन्दोलन करने का है तो दूसरा आत्महत्या यानी खुद को खत्म कर लेने का ।
दरअसल यह केवल किसानों का नहीं बल्कि पूरे कृषि क्षेत्र का संकट है । १९५० के दशक में भारत के जीडीपी में कृषि क्षेत्र का हिस्सा ५० प्रतिशत था, १९९१ में जब नई आर्थिक नीतियाँ को लागू की गई थीं तो उस समय जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान ३४.९ प्रतिशत था, जो अब वर्तमान में करीब १३ प्रतिशत के आसपास आ गया है । जबकि देश की करीब आधी आबादी अभी भी खेती पर ही निर्भर है। नई आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद से सेवा क्षेत्र में काफी फैलाव हुआ है, जिसकी वजह से आज भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की चुनिन्दा अर्थ व्यवस्थाओं में शुमार की जाने लगी है, लेकिन सेवा क्षेत्र का यह बूम उस अनुपात में रोजगार का अवसर मुहैया कराने में नाकाम रहा है । 
नतीजे के तौर पर आज भी भारत की करीब दो-तिहाई आबादी की निर्भरता कृषि क्षेत्र पर बनी हुई   है । इस दौरान परिवार बढ़ने की वजह से छोटे किसानों की संख्या बढ़ी है जिनके लिए खेती करना बहुत मुश्किल एवं नुकसान भरा काम हो गया है और कर्ज लेने की मजबूरी बहुत आम हो गई है । एनएसएसओ के ७०वें दौर के सर्वेक्षण के अनुसार देश के कुल ९.०२ करोड़ काश्तकार परिवारों में से ७.८१ करोड़ (यानी ८६.६ फीसदी) खेती से इतनी कमाई नहीं कर पाते जिससे वे अपने परिवार के खर्चों को पूरा कर सकें । खेती करने की लागत लगातार बढ़ती जा रही है जिससे किसानों के लिए खेती करना लगातार मुश्किल होता जा रहा है । 
दरअसल खेती का सारा मुनाफा खेती संबंधी कारोबार से जुड़ी कंपनियाँ कूट रही हैं,भारत के कृषि क्षेत्र में पूँजी अभी भी सीधे तौर पर दाखिल नहीं हुआ है, अगर इतनी बड़ी संख्या में आबादी लगभग जीरो प्रॉफिट पर इस सेक्टर में खप कर इतने सस्ते में उत्पाद दे रही है तो फौरी तौर पर इसकी जरूरत ही क्या है, इसी के साथ ही किसानी और खेती से जुड़े कारोबार तेजी से फल-फूल रहे हैं । उर्वक खाद बीज, कीटनाशक और दूसरे कृषि कारोबार से जुड़ी कंपनियाँ सरकारी रियायतों का फायदा भी लेती हैं । 
यूरोप और अमरीका जैसे पुराने पूँजीवादी मुल्कों के अनुभव बताते हैं कि इस रास्ते पर चलते हुए अंत में छोटे और मध्यम किसानों को उजड़ना पड़ा है क्योंकि पूँजी का मूलभूत तर्क ही अपना फैलाव करना है जिसके लिए वो नये क्षेत्रों की तलाश में रहता है । भारत का मौजूदा विकास मॉडल इसी रास्ते पर फर्राटे भर रही है जिसकी वजह देश के प्रधानमंत्री और सूबाओं के मुख्यमंत्री दुनिया भर में घूम-घूम कर पूँजी को निवेश के लिये आमंत्रित कर रहे हैंइसके लिए लुभावने आफर प्रस्तुत दिये जाते हैंजिसमें सस्ती जमीन और मजदूर शामिल है ।
भविष्य में अगर विकास का यही रास्ता रहा तो बड़ी पूँजी का रुख गाँवों और कृषि की तरफ मुड़ेगा ही और जिसके बाद बड़ी संख्या में लोग कृषि क्षेत्र छोड़ कर दूसरे सेक्टर में जाने को मजबूर किये जायेंगें, उनमें से ज्यादातर के पास मजदूर बनने का ही विकल्प बचा होगा । यह सेक्टोरियल ट्रांसफॉर्मेशन बहुत ही दर्दनाक और अमानवीय साबित  होगा । 
इस साल अप्रैल में नीति आयोग ने जो तीन वर्षीय एक्शन प्लान जारी किया है उसमें २०१७-१८ से २०१९-२० तक के लिए कृषि में सुधार की रूप-रेखा भी प्रस्तुत की गई है । इस एक्शन प्लान में कृषि क्षेत्र में सुधार के लिए जिन नीतियों की वकालत की गई है उसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को सीमित करना, अनुबंध वाली खेती (कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग) के साथ जीएम बीजों कोबढ़ावा देना और इस क्षेत्र में निजी कंपनियों के सामने मौजूद बाधाओं को खत्म करने जैसे उपाय शामिल हैं । कुल मिलाकर पूरा जोर कृषि क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भूमिका बढ़ाने पर है, यह दस्तावेज एक तरह से भारत में 'कृषि के निजीकरण` का रोडमैप है ।

कोई टिप्पणी नहीं: