हमारा भूमण्डल
जलवायु समझौते के प्रभावहीन होने का खतरा
मार्टिन खोर
वर्तमान में दुनिया बेसब्री से इंतजार कर रही है कि अमेरिका पेरिस समझौते में रहेगा या छोड़ देगा । अमेरिका के छोड़ने पर यह लगभग निश्चित है कि जलवायु परिवर्र्तन के हानिकारक प्रभावों को रोकने के लिए पैदा हुई है वैश्विक सहमति पर इसका विपरीत प्रभाव होगा ।
दिसंबर २०१५ को पेरिस समझौता दुनिया के १९५ देशों ने स्वीकार किया, जो नवंबर २०१६ में प्रभावशील हुआ । संकटग्रस्त मानवीय अस्तित्व तथा ग्लोबल वार्मिंग के विपरीत प्रभावों को कम करने के लिए भागीदार सभी देशों की सरकारों ने सहयोग की ओर हाथ बढ़ाया । इसके बाद अमेरिका में चुनाव हुए एवं डोनाल्ड ट्रम्प का प्रशासन प्रारम्भ हुआ ।
अपने चुनाव अभियान में ट्रम्प ने कहा था कि वे अपने जलवायु परिवर्तन के समझौते से अमेरिका को अलग करेगें । अपने इस कथन को पूरा करने हेतु मार्च २०१७ में ट्रम्प ने एक कार्यकारी आदेश जारी कर पूर्व राष्ट्रपति ओबामा की स्वच्छ ऊर्जा योजना को रद्द कर दिया । साथ ही उन्होंने यह कहा कि अमेरिकी निवासियों को अब ज्यादा मूर्ख नहीं बनने देगें । क्योंकि जलवायु समझौता वित्तीय तथा आर्थिक बोझ से भरा है। उन्होंने राजकोशीय बजट २०१८ में पूर्व राष्ट्रपति प्रशासन की वह व्यवस्था भी समाप्त कर दी जिसके तहत यू. एन. ग्रीन क्लाईमेट फण्ड को बड़ी मात्रा में आर्थिक सहायता प्रदान की जाती थी ।
एनवारोमेंटल प्रोटोकाल एजेंसी (ई.पी.ए.) के बाजट में एक तिहाई की कमी की गयी । २०१६ में एजेंसी का बजट ८.१ बिलीयन डॉलर का था । डोनाल्ड ट्रम्प के ये सारे क्रिया कलाप उस समय हो रहे हैं जब विश्व पर्यावरण एक बहुत ही खतरनाक स्थिति में है। वर्ष २०१६ काफी गर्म रिकार्ड किया गया एवं जलवायु परिवर्तन के कई विनाशकारी प्रभाव दुनिया के अलग-अलग भागों में देखे गये । इन प्रभावों में समुद्र तल का बढ़ना, वर्षा में बदलाव, तूफान, चक्रवात, सूखे का फैलाव व ग्लेशियर्स का पिघलना प्रमुख थे।
हवाई स्थित मोरा लोवा वैधशाला ने वायु मंडल में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा ४१० पीपीएम (पाट्र्स पर मिलीयन) रिकार्ड की एवं बताया कि जल्द ही यह मात्रा ४५० पी पी एम तक पहुंच जावेगी । जहां वैश्विक तापमान को ०२ डिग्री सेल्सियम पर सीमित करने की सम्भावना ५० प्रतिशत बढ़ी रह जावेगी । पेरिस समझौता एक प्रतीक तथा अभिव्यक्ति है। जो वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को रोकने के प्रयासों पर आधारित है । यह समाझौता स्वैच्छिक है एवं किसी देश पर कोई बंधन या शर्त नहीं लगाता है ।
देश की सरकारें कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन घटाने की सीमा स्वयं तय करके उसके अनुसार योजनाएं नीतियां बनाना हेतु स्वतंत्र है । साथ ही निर्धारित समय में उत्सर्जन यदि नहीं कम हो तो कोई दंड का प्रावधान भी नहीं है। इस समझौते की सबसे बड़ी कमजोरी यह बताई गयी कि तापमान १.५ से ०२ डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने पर ज्यादा जोर दिया गया जबकि दुनिया के वर्तमान की पर्यावरणीय हालत अनुसार इसे २.७ से ०४ तक कम किया जाना जरूरी है ।
अमेरिका यदि समझौते से बाहर होता है तो समझौते की शर्तों के अनुसार यह चार वर्षों के बाद मान्य होगा । यानी चार वर्षों तक चाहते या न चाहते हुए भी अमेरिका का इस समझौते से जुड़ा रहेगा । अमेरिका का इस समझौते से अलग होना जलवायु परिवर्तन के हानिकारक प्रभावों को रोकथाम के वैश्विक सहयोग से एक बड़ा आघात होगा । अमेरिका के अलग होने पर दो प्रकार की सम्भावनाएं बतायी जा रही है । प्रथम तो यह कि इससे दूसरे देशों की मानसिकता बदलेगी एवं वे भी अलग होने की सोच सकते हैं । इस परिस्थिति में पेरिस समझौते का अंत भी क्योटो-प्रोटाकोल के समान होगा ।
दूसरी सम्भावना एक सकारात्मक है जो यह दर्शाती है कि अमेरिका के अलग होने के बाद भी शेष बचे राष्ट्र अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति से इसे मजबूती से लागू करे । अभी-अभी कुछ राजनीतिज्ञों ने एक तीसरी सम्भावना बतायी है जिसके अनुसार आगामी चार वर्षों में अमेरिका में कोई नया नेतृत्व उभरे जो पेरिस समझौते के प्रति ज्यादा समर्पित हो । डोनाल्ड प्रशासन को १०० दिन पूर्ण होने पर २९ अप्रैल को वाशिंगटन तथा अन्य शहरों में हजारों की संख्या से वहां के लोगों ने प्रदर्शन कर पेेरिस समझौते से अलग होने का विरोध किया ।
संयुक्त राष्ट्र के पूर्व सेक्रेटरी जनरल बान की मून तथा हावर्ड के प्रोफेसर राबर्ट स्टेविंस ने अपने एक लेख में दृढ़ता से कहा है कि अमेरिका को दुनिया के हित के लिए इस समझौते में बने रहना चाहिये । कई कामियों के बावजूद वर्तमान में पेरिस समझौता एक ऐसा मंच है जहां पर कई देशों के शासक जलवायु परिवर्तन से पैदा समस्या से निजात पाने हेतु एकमत है एवं एक दूसरे को सहयोग भी देने हेतु भी प्रयासरत है । पेरिस समझौता प्रभावशाली न रहने पर विश्व एक दिशाहीन या डांवाडोल स्थिति में पहुंच जावेगा, जहां जलवायु परिवर्तन का संकट और गहरायेगा ।
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