सोमवार, 16 अक्टूबर 2017

सामयिक
बाढ़ नियंत्रण का बढ़ता खर्च 
भारत डोगरा

बाढ़ की त्रासदी अब देश की नियति हो गई है, जो जल जीवन के लिये जीवनदायी वरदान है, वही अभिशाप साबित हो रहा   है । 
बाढ़ जैसी आपदाओं के नियंत्रण के लिए केन्द्र और राज्य सरकारें अरबों रुपए खर्च करती   हैं । देश हर तरह की तकनीक में पारंगत होने का दावा करता है, लेकिन जब हम बाढ़ की त्रासदी झेलते हैं तो ज्यादातर लोग अपने बूते ही पानी में जान व सामान बचाते नजर आते हैं । 
पिछले दिनों देश का एक बड़ा भाग बाढ़ की आपदा से त्रस्त था । भारत में बाढ़ में दो तथ्य महत्वपूर्ण हैं - पहली महत्वपूर्ण बात तो यह है कि जितना क्षेत्र बाढ़ से प्रभावित होता है वह बाढ़ नियंत्रण पर अरबों रुपए खर्च करने के बावजूद बढ़ रहा है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि कई स्थानों पर बाढ़ की उग्रता बढ़ रही   है ।
ऐसा क्यों हुआ इसके अनेक कारण बताए जाते हैं। जैसे जल निकासी के रास्तों को अवरुद्ध करते हुए नयी बस्तियाँ बसाना (विशेषकर शहरी क्षेत्रों में या शहरीकृत हो रहे क्षेत्रों में), सड़कों, नगरों और रेल मार्गों के निर्माण के समय निकासी की पर्याप्त व्यवस्था न करना, संसाधनों के अभाव या दुरुपयोग के कारण वर्षा से पहले नालों की सफाई जैसे जरूरी कार्य न करना आदि । अलग-अलग जगहों पर ये सभी कारण महत्वपूर्ण हो सकते हैं, कहीं कम तो कहीं ज्यादा, पर केवल इनके आधार पर यह नहीं समझा जा सकता है कि बाढ़ नियंत्रण पर कई हजार करोड़ रुपए खर्च करने के बाद भी बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में इतनी वृद्धि क्यों हुई है ।
वास्तविकता तो यह है कि बाढ़ का बढ़ता क्षेत्र और इसकी बढ़ती जानलेवा क्षमता को तभी समझा जा सकता है यदि बाढ़ नियंत्रण के दो मुख्य उपायों-तटबंधों और बांधों पर खुली बहस द्वारा यह जानने का प्रयास किया जाए कि अनेक स्थानों पर क्या बाढ़ नियंत्रण के इन उपायों ने ही बाढ़ की समस्या को नहीं बढ़ाया है और उसे अधिक जानलेवा बनाया है ? राष्ट्रीय बाढ़ आयोग की रिपोर्ट (१९८०) में भी नियंत्रण के उपायों की इन सीमाओं की ओर ध्यान दिलाते हुए ऐसी परिस्थितियों का भी जिक्र था जब इनका निर्माण, रख-रखाव या संचालन उचित न होने से बाढ़ की समस्या और उग्र भी हो सकती है। 
आठवीं पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज (१९९२) में भी इस बात पर जोर दिया गया है कि जो बाढ़ नियंत्रण परियोजनाएं पूरी हो चुकी हैं, उनका आलोचनात्मक मूल्यांकन इस बात को ध्यान में रखते हुए किया जाए कि इनसे कितनी सुरक्षा मिल सकी, परियोजना बनाते समय इसके क्या उद्देश्य समझे गए थे व वास्तविकता क्या रही है। दस्तावेज में कहा गया है कि इस मूल्यांकन में तकनीकी व प्रशासनिक गलतियाँ अवश्य स्पष्ट होनी चाहिए, आगे मुख्य प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि इन गलतियों को दूर किया जाए ।
तटबंधों की बाढ़ नियंत्रण उपाय के रूप में एक तो अपनी कुछ सीमाएं हैं तथा दूसरे निर्माण कार्य और रखरखाव में लापरवाही और भ्रष्टाचार के कारण हमने इनसे जुड़ी समस्याओं को और भी बहुत बढ़ा दिया है । तटबंध द्वारा नदियों को बाँधने की एक सीमा तो यह है कि जहाँ कुछ बस्तियों को बाढ़ से सुरक्षा मिलती है वहां कुछ अन्य बस्तियों के लिए बाढ़ का संकट बढ़ने की संभावना भी उत्पन्न होती है । 
अधिक गाद लाने वाली नदियों को तटबंध से बाँधने में एक समस्या यह भी है कि नदियों के उठते स्तर के साथ तटबंध को भी निरंतर ऊंचा करना पड़ता है । जो आबादियाँ तटबंध और नदी के बीच में फंस कर रह जाती हैं, उनकी दुर्गति के बारे में तो जितना कहा जाए कम है। केवल कोसी नदी के तटबंधों में लगभग ८५ हजार लोग इस तरह फंसे हुए हैं । ऐसे लोगों के पुनर्वास के संतोषजनक प्रयास बहुत कम हुए हैं ।  
इतना ही नहीं, तटबंधों द्वारा जिन बस्तियों को सुरक्षा देने का वायदा किया जाता है उनमें भी बाढ़ की समस्या बढ़ सकती है । यदि वर्षा के पानी के नदी में मिलने का मार्ग अवरुद्ध कर दिया जाए और तटबंध में इस पानी के नदी तक पहंुचने की पर्याप्त व्यवस्था न हो तो दलदलीकरण और बाढ़ की एक नयी समस्या उत्पन्न हो सकती है। यदि नियंत्रित निकासी के लिए जो कार्य करना था उसकी जगह तो छोड़ दी गयी है पर लापरवाही से कार्य पूरा नहीं हुआ है तो भी यहाँ से बाढ़ का पानी बहुत वेग से आ सकता है। 
तटबंध द्वारा 'सुरक्षित` की गयी आबादियों के लिए सबसे कठिन स्थिति तो तब उत्पन्न होती है जब निर्माण कार्य या रख-रखाव उचित न होने के कारण तटबंध टूट जाते हैं और अचानक बहुत सा पानी उनकी बस्तियों में प्रवेश कर जाता है। इस तरह जो बाढ़ आती है वह नदियों के धीरे-धीरे उठते जल-स्तर से कहीं अधिक विनाशकारी होती है ।
एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह है कि पर्वतीय क्षेत्रों में पर्यावरण विनाश बहुत हुआ है । पर्वतीय क्षेत्रों में पानी का वेग भी बहुत होता है तथा यहां से बहुत सा मलबा, मिट्टी-गाद आदि नीचे के जलाशयों और नदियों में पहंुचते हैं व वहाँ बाढ़ की गंभीरता को बढ़ाते हैं । 
बाढ़ की बढ़ती हुई विनाशलीला के लिए पर्वतों में वन-कटान, विस्फोटों का अधिक उपयोग, असावधानी से किया निर्माण व खनन कार्य इन सब की बहुत भूमिका रही है। जब तक पर्वतीय क्षेत्रों में पर्यावरण विनाश नहीं रुकेगा, तब तक बाढ़ से बढ़ते विनाश को नहीं थामा जा सकता  है ।

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