सोमवार, 16 अक्तूबर 2017

प्रदेश चर्चा 
छ.ग. : तालाब खत्म करने से प्यासा है बस्तर
पंकज चतुर्वेदी

बस्तर अंचल में रोजगार के नए अवसर सृजित करने के लिए कल-कारखानों, खेती के नए तरीकों और पारम्परिक कला को बाजार देने की कई योजनाएँ सरकार बना रही है, लेकिन यह जानना जरूरी है कि जब तक इलाके में पीने को शुद्ध पानी नहीं मिलेगा, ऐसी किसी भी योजना का सफल होना संदिग्ध है । पारंपरिक जल संसाधनों की साज संभाल से ही पानी का प्रबंधन करना आसान होगा ।
हर समय तर रहने वाला बस्तर अब पूरे साल बूंद-बूंद पानी को तरस रहा है । खासतौर पर शहरी इलाकों का विस्तार जिन तालाबों को सुखा कर किया गया, अब कंठ सूख रहे हैं तो लोग उन्हीं को याद कर रहे हैं । दो दशक पहले तक बस्तर इलाके में २५,९३४ तालाब हुआ करते थे, हर गांव में कम से कम तीन-चार ताल या जलाशय । ये केवल पानी की जरूरत ही नहीं पूरा करते थे, आदिवासियों की रोजी रोटी व इलाके के मौसम को सुहाना बनाने में भी भूमिका अदा करते थे । 
वर्ष १९९१ के एक सरकारी दस्तावेज के मुताबिक इलाके के ३७५ गांव-कस्बों की सार्वजनिक जल वितरण व्यवस्था पूरी तरह तालाबों पर निर्भर थी । आज हालात बेहद खराब हैं । सार्वजनिक जल प्रणाली का मूल आधार भूजल हो गया है और बस्तर के भूजल के अधिकांश स्त्रोत बेहद दूषित हैं । फिर तालाब ना होने से भूजल के रिचार्ज का रास्ता भी बंद हो गया । इन दिनांे वहां जम कर बारिश हो रही है और शहर-कस्बे लबालब है । सड़कों, घरों में पानी भर रहा है, लेकिन तालाब खाली हैं और बाशिंदों के कंठ भी रीते हैं । यहां के तालाब महज जल संासधन ही नहीं हैं, बल्कि बड़ी आबादी के लिए मछली, कमल गट्टा आदि के माध्यम से जीवकोपार्जन का साधन भी हैं । तालाबों के दूषित होने से हजारों परिवारों के सामने रोजी-रोटी का संकट भी खड़ा है ।
यह बात सरकारी दस्तावेज में दर्ज है कि जब बस्तर, केरल राज्य से भी बड़ा एक विशाल जिला हुआ करता था, तब उसके चप्पे-चप्पे पर तालाब थे । आज जिला मुख्यालय बन गए जगदलपुर विकासखंड में २३०,कांकेर विकासखंड में २७५, नारायणपुर में ५२३, कोंडागांव में ६२३, बीजापुर में ३०२ और दंतेवाड़ा में १७५ तालाब हुआ करते थे ।  दुगकोंदल में ४१०, फरसगांव में ६७८ कोंटा में ४४०, कोयलीबेड़ा विकासखंड में ५०३ तालाब हुआ करते थे । सुकमा, दरभा, भोपालपट्नम  जैसे दूभर इलाकों का जनजीवन तो तालाबों पर ही निर्भर था । सनद रहे कि इलाके में ग्रेनाईट, क्वार्टजाइट जैसी चटट्ानों का बोलबाला है और इसमें सरंध्रता बहुत कम होती है । इसके चलते बारिश का जल रिसता नहीं है व तालाब व छोटे पोखर    वर्षा को अपने में समेट लेते थे । आज के तालाबों के हालात तो बेहद दुखद हैं ।
बस्तर संभाग का मुख्यालय जगदलपुर है । बस्तर तो एक गांव है, कोंडागांव से जगदलपुर आने वाले मार्ग पर । सन् १८७२ में महाराज दलपत राय अपनी राजधानी बस्तर गंाव से उठा कर जगदलपुर लाये    थे । इसी याद में विशाल दलपतसागर सरोवर बनवाया गया था । कहा जाता है कि उस समय यह झीलों की नगरी था और आज जगदलपुर शहर का जो भी विस्तार हुआ है, वह उन्हीं पुराने तालाबों को पाट कर हुआ है । दलपतसागर का रकबा अभी सन् १९९० तक साढ़े सात सौ एकड़ हुआ करता था जो अब बामुश्किल सवा सौ एकड़ बचा है। पानी की पूरी सतह जलकुंभियों से पटी है व सफाई के अभाव में तालाब बेहद उथला हो गया है । थोड़ा-सा पानी बरसने पर शहर की कई कालोनियां पानी में डूब जाती हैं और वहां के वाशिंदे हल्ला-ग्ुाल्ला करते हैं कि पानी उनके घर में घुस रहा है। जबकि हकीकत तो यह है   कि ये पूरी रिहाईश ही पानी के घर में घुस कर बसाई गई हैं। जल निधियों से समृद्ध ऐसे शहर में अब दलपत सागर तथा गंगा मुंडा तालाब को छोड़ कर अन्य तालाबों का कोई अता-पता नहीं है । 
चार दशक पूर्व तत्कालीन टाऊन प्लानिंग के अनुसार जगदलपुर में करीब आधा दर्जन से अधिक तालाब हुआ करते थे । जिसका उपयोग यहां के लोग निस्तार के  लिए किया करते थे। तब दलपत सागर व गंगामुंडा के अलावा नयामुंडा तालाब, बाला तराई, केवरामुंंडा, रानमुंडा तथा तत्कालीन अघनपुर तथा वर्तमान में गुरू गोविंद सिंह व छत्रपति शिवाजी वार्ड में दो तालाब थे । लेकिन यहां देखने के लिए महज दो ही तालाब रह गये है। हालांकि अभी कोई तीन तालाब शहरी क्षेत्र में मौजूद है जिनकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है । 
दंतेवाड़ा मंे लाल आतंक व पुलिस अत्याचार के ही इतने किस्से होते हैं कि जनता भूल गई है कि वे पानी के लिए भी तरस रहे हैं । यहां भी पुराने तालाबों में हो रहे अतिक्रमण और पटते तालाबों के गहरीकरण को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है । दक्षिण बस्तर जिले के कारली, मांझीपदर, चितालंका, पुरनतरई, टेकनार, कुम्हाररास, चितालूर, दंतेवाड़ा, तुमनार, समलूर, बिंजाम, नागफनी आदि स्थानों में सदियों पुराने विशाल जलाशय हैं। बारसूर को तो तालाबों और मंदिरों की नगरी ही कहा जाता है, यहां के १४७ तालाबों में सौ से ज्यादा तालाब खेतों में तब्दील हो चुके हैं । पुरनतरई, कुम्हाररास, टेकनार, चितालूर, बारसूर के तालाबों से लगे जिन किसानों की खेत हैं, वे अपने खेतों का रकबा तालाबों की सीमा के अंदर तक बढ़ा चुके हैं ।
कांकेर शहर में पानी का संकट स्थाई तौर पर डेरा डाले हुए    है । उदयनगर, एमजी वार्ड जैसे घने मुहल्ले में नल बमुश्किल आधा घंटा टपकते हैं । वहीं जमीन पर देखें तो कांकेर के चप्पे-चप्पे पर प्राचीन जल निधियां हैं जो अब पानी नहीं, मच्छर व गंदगी बांटती हैं । शहर की शान कहे जाने वाले डंडिया तालाब को चौपाटी निर्माण योजना के चलते आधे से ज्यादा हिस्सा पाट दिया गया है । पालिका की चौपाटी की योजना तो चौपट हुई उसके चलते तालाब का हिस्सा भी चौपट हो गया । शहर के माहुरबंद पारा वार्ड के बीचों-बीच स्थित डबरी है तो अब लोगों को याद ही नहीं है क्योंकि उस तक पहुंचने का रास्ता ही भूमाफिया चट कर गए है । इसके साथ ही तालाब के बड़े हिस्से पर दुकानें बना दी गई । शीतलापारा के दीवान तालाब को कचरे से पाट दिया गया ।
शहर के बीचों बीच स्थित गोसाई तालाब का अस्तित्व ही समाप्त हो गया है, क्योंकि उसे बाकायदा सुख कर हजारों मकान बना दिए गए । कांकेर नगरपालिका दफ्तर के ठीक सामने स्थित दुधावा तालाब को बिल्डर देखते ही देखते हड़प गए व सरकारी रिकार्ड में वहां कालोनी दर्ज हो गई । सुभाष वार्ड की डबरी हो या फिर मेला भाठा स्थित काकालीन तालाब, सरकारी अफसरों, नेताओं व बिल्डरों की मिलीभगत से पाट दिए गए । 
हालात अकेले शहरों के ही नहीं दूरस्थ अंचलों के भी भयावह   हैं । बस्तर संभाग के ७० फीसदी सिंचाई तालाबों का पानी सूख चुका है अथवा बहुत थोड़ा पानी बचा है। जलाशयों का पानी सूखने से इतना तो तय हो गया है कि आने वाले दिनों में सिंचाई के लिए पानी नहीं मिलेगा और जल निस्तारी समस्या से भी ग्रामीणों को जूझना पड़ेगा । जलाशयों में गर्मी के दिनों में पानी के जल्दी सूख जाने की समस्या आठ -दस साल से ज्यादा गहराने लगी है। मौसम में परिवर्तन तथा गर्मी में बढ़ोत्तरी को सिंचाई विभाग के अफसर इसका प्रमुख कारण मान रहे हैं । 
बस्तर संभाग में जल संस्थान विभाग की २९२ लघु व मध्यम सिंचाई योजनाएं स्थापित हैं, इनमें से १९५ सिंचाई जलाशय है, तीन बड़े जलाशयों कोसारटेडा (जल भराव क्षमता ५६ मिलियन क्यूबिक मीटर) परलकोट क्षमता ५४ मिलियन क्यूबिक मीटर व मयाना जल भराव क्षमता ५ मिलियन क्यूबिक मीटर को छोड़ दिया जाये, तो शेष लघु योजनाएं हैं,जिनकी जल भराव क्षमता प्रत्येक की औसतन आधा क्यूबिक मीटर से एक क्यूबिक मीटर तक है। जल संसाधन विभाग के संभागीय कार्यालय इंद्रावती परियोजना मंडल के अनुसार कोसारटेड में जलभराव क्षमता का करीब ३५ फीसदी, परलकोट में २४ और मयाना में ७ फीसदी ही पानी बचा है । 
दूसरी तरफ १३७ के आसपास जलाशय ऐसे हैंजहां पानी नहीं है या सूखने की कगार पर है । विभागीय जानकारी के अनुसार सबसे खराब स्थिति मध्यम बस्तर व नारायणपुर जिले के जलाशयों की है। दक्षिण बस्तर में पथरीली जमीन होने से जलाशयों में कुछ ज्यादा ही पानी  ठहरता है, परंतु मई मध्य से लेकर मानसूनी बारिश शुरू होने तक वहां की स्थिति भी संतोषजनक नहीं रहती है ।
बस्तर अंचल में रोजगार के नए अवसर सृजित करने के लिए कल-कारखानों, खेती के नए तरीकों और पारंपरिक कला को बाजार देने की कई योजनाएं सरकार बना रही है, लेकिन यह जानना जरूरी है कि जब तक इलाके में पीने का शुद्ध पानी नहीं मिलेगा, ऐसी किसी भी योजना का सफल होना संदिग्ध है और इसके लिए जरूरी है कि पारंपरिक जल संसाधनों को पारंपरिक मानदंडों के अनुरूप ही संरक्षित पर पल्लवित किया जाए ।

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