पर्यावरण समाचार
दो साल में खत्म हो गया प्रदेश का १२ वर्ग किमी जंगल
फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक देशभर में भले ही पिछले दो साल में ६७७८ वर्ग किमी इलाके मेंफोरेस्ट कवर बढ़ गया हो लेकिन मध्यप्रदेश मेंइसके उलट १२ वर्ग किमी में फॉरेस्ट कवर यानी जंगल पूरी तरह खत्म हो गया है ।
फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की ओर से पिछले दिनों जारी एफएसआई रिपोर्ट २०१७ में यह तस्वीर सामने आई है । रिपोर्ट के मुताबिक २०१५ से २०१७ के बीच प्रदेश में २८९ वर्ग किमी क्षेत्र से डेंस फॉरेस्ट घटा है । इसमें २३ वर्ग किमी अतिसघन वन क्षेत्र और २६६ वर्ग किमी मध्यम सघन वन क्षेत्र शामिल है । इसी दौरान ओपन फॉरेस्ट में २७७ वर्ग किमी का इजाफा हुआ । जाहिर है कि पेड़ो की संख्या काफी कम हो जाने के कारण घना जंगल खुले वन मेंतब्दील हो गया है ।
देशभर में सबसे ज्यादा वन भूमि म.प्र. के पास है लेकिन गांव और शहर के रहवासी क्षेत्रो मेंपेड़ों की संख्या (सिविल) फॉरेस्ट के मामले में महाराष्ट्र समेत कई राज्य म.प्र. से आगे है । क्षेत्रफल की तुलना में भूमि के बाहर शहर और गांवों के सिविल क्षेत्रो में पेड़ो की संख्या (ग्रीन कवर) के मामले में प्रदेश की स्थिति चिंताजनक है । प्रदेश में टीओएफ (ट्री आउट साइड फॉरेस्ट) का क्षेत्रफल ८०७३ वर्ग किमी है, जो प्रदेश की भुमि का २.६२ प्रतिशत है । यह टीओएफ के राष्ट्रीय औसत २.८५ से भी कम है, जबकि महाराष्ट्र ३.९१% की स्थिति इस मामले में हमसे काफी बेहतर है । भारत में सिविल फॉरेस्ट को बढ़ाकर ३३ फीसदी करने का लक्ष्य है । हालांकि देश में कही भी १० फीसदी से ज्यादा टीओएफ भी नहीं है ।
म.प्र. सरकार ने ३ साल पहले बरगद, पीपल, आम, बबूल जैसे ५२ प्रजाति के पेड़ो के काटने और परिवहन करने के लिए पूरी तरह छूट प्रदान कर दी । हाईवे प्रोजेक्ट में सड़क के दोनोंओर बेरहमी से पेड़ों को काटा गया । शहरों में डेवलपमेंट प्रोजेक्ट के कारण अर्बन फॉरेस्ट खत्म हो रहा है । इससे साफ जाहिर है कि प्रदेश में अवैध रुप से जंगल की कटाई पर अंकुश नहीं लगा है ।
एक सदी पुराने कावेरी विवाद का निपटारा
कावेरी जल बंटवारे को लेकर कर्नाटक और तमिलनाडु में १२५ से भी अधिक वर्षोंा से विवाद चला आ रहा है । पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के फैसले के साथ अब यह झगड़ा खत्म होने के करीब दिख रहा है । लेकिन क्या यह हल स्थाई होगा ? क्या यह फैसला देश के अन्य नदी जल विवादोंमें भी नजीर बनेगा ? सुप्रीम कोर्ट का फैसला आंशिक रुप से ही इन सवालोंके जवाब देता हुआ दिखता है । फैसले की असली परीक्षा तो अब इस बात मेंहोगी कि जमीनी स्तर पर इसे कैसे लागू किया जाता है ? कोर्ट ने इस मामले में केंद्र को भी जोड़ दिया है ।
कोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा है कि वह `कावेरी मैनेजमेंट बोर्ड' का गठन करे, जो बतौर नियामक काम करे और अदालत के फैसले को लागू भी कराए । इस काम के लिए अदालत ने केंद्र सरकार को छह हफ्तों का समय दिया है । अक्तुबर २०१६ में केंद्र सरकार ने यह कहते हुए बोर्ड गठित करने से इंकार कर दिया था कि यह उसके अधिकार-क्षेत्र मेंनही है, यह महज कावेरी वाटर डिस्प्यूटर ट्रिब्यूनल की सिफारिश थी । कर्नाटक ने भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद बोर्ड के गठन का इस तर्क के साथ विरोध किया है कि यह जल की निगरानी पर उसके अधिकार को कम करना होगा । कावेरी जल विवाद के मूल मेंइस्तेमाल योग्य जल संसाधन की पुनर्साझेदारी का मसला है ।
सन् १८९२ व १९२४ में मैसूर प्रांत (अब कर्नाटक) और मद्रास सूबे (अब तमिलनाडु) के बीच हुए दो समझौते कावेरी जन बंटवारे की बुनियाद थे और विवाद की जड़ भी । जिन सिद्धांतों के आधार पर जल बटवारें का समाधान निकाला गया था, उन पर कर्नाटक और तमिलनाडु का रुख लगातार भिन्न रहा । कर्नाटक अमेरिकी अटॉर्नी जनरल के नाम से चर्चित हर्मन डॉक्टरिन पर जोर देता रहा है, जिसके मुताबिक राज्य को नदी जल पर निर्विवाद रुप से क्षेत्रीय संप्रभुता हासिल है, क्योंकि उसका उदम स्थल उसके सीमा क्षेत्र में है । दूसरी तरफ तमिलनाडु जल के प्राकृतिक बहाव के सिद्धांत की दुहाई देता रहा है ।
इसका मतलब है कि हर नदी तट पर बसे लोगोंका यह अधिकार है कि जल `राष्ट्रीय संसाधन' है और इस पर राज्य विशेष का हक नहीं । कोर्ट ने दोनों सिद्धांतों का खारिज कर दिया है । और न्यायसंगत बंटवारे या इस्तेमाल के सिद्धांत वा बल दिया है । यह एक महत्वपूर्ण निर्णय है और देश के अन्य नदी जल विवादोंपर भी लागू किया जा सकेगा ।
कावेरी दक्षिण भारत की चौथी सबसे बड़ी नदी है, जो कर्नाटक से बंगाल की खाड़ी तक ८०२ किलोमीटर का सफर तय करती है । इस बीच यह तमिलनाडु, केरल और पांडुचेरी में भी बहती है । इस नदी को दक्षिण-पश्चिम मानसून और उत्तर-पूर्व मानसून, दोनों का लाभ मिलता है । जब मानसून अच्छा रहता है तो राज्यों का काम आराम से चल जाता है, लेकिन जब मानसून कमजोर पड़ता है, तब किसानों को अपनी फसलों की सिंचाई के लिए इसके पानी की दरकार होती है, उस समय विवाद उन्हेंसबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाता है । पिछले कुछ वर्षोंा से यह मुद्दा संकीर्ण राजनीतिक अखाड़े में तब्दील हो गया है । ***
दो साल में खत्म हो गया प्रदेश का १२ वर्ग किमी जंगल
फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक देशभर में भले ही पिछले दो साल में ६७७८ वर्ग किमी इलाके मेंफोरेस्ट कवर बढ़ गया हो लेकिन मध्यप्रदेश मेंइसके उलट १२ वर्ग किमी में फॉरेस्ट कवर यानी जंगल पूरी तरह खत्म हो गया है ।
फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की ओर से पिछले दिनों जारी एफएसआई रिपोर्ट २०१७ में यह तस्वीर सामने आई है । रिपोर्ट के मुताबिक २०१५ से २०१७ के बीच प्रदेश में २८९ वर्ग किमी क्षेत्र से डेंस फॉरेस्ट घटा है । इसमें २३ वर्ग किमी अतिसघन वन क्षेत्र और २६६ वर्ग किमी मध्यम सघन वन क्षेत्र शामिल है । इसी दौरान ओपन फॉरेस्ट में २७७ वर्ग किमी का इजाफा हुआ । जाहिर है कि पेड़ो की संख्या काफी कम हो जाने के कारण घना जंगल खुले वन मेंतब्दील हो गया है ।
देशभर में सबसे ज्यादा वन भूमि म.प्र. के पास है लेकिन गांव और शहर के रहवासी क्षेत्रो मेंपेड़ों की संख्या (सिविल) फॉरेस्ट के मामले में महाराष्ट्र समेत कई राज्य म.प्र. से आगे है । क्षेत्रफल की तुलना में भूमि के बाहर शहर और गांवों के सिविल क्षेत्रो में पेड़ो की संख्या (ग्रीन कवर) के मामले में प्रदेश की स्थिति चिंताजनक है । प्रदेश में टीओएफ (ट्री आउट साइड फॉरेस्ट) का क्षेत्रफल ८०७३ वर्ग किमी है, जो प्रदेश की भुमि का २.६२ प्रतिशत है । यह टीओएफ के राष्ट्रीय औसत २.८५ से भी कम है, जबकि महाराष्ट्र ३.९१% की स्थिति इस मामले में हमसे काफी बेहतर है । भारत में सिविल फॉरेस्ट को बढ़ाकर ३३ फीसदी करने का लक्ष्य है । हालांकि देश में कही भी १० फीसदी से ज्यादा टीओएफ भी नहीं है ।
म.प्र. सरकार ने ३ साल पहले बरगद, पीपल, आम, बबूल जैसे ५२ प्रजाति के पेड़ो के काटने और परिवहन करने के लिए पूरी तरह छूट प्रदान कर दी । हाईवे प्रोजेक्ट में सड़क के दोनोंओर बेरहमी से पेड़ों को काटा गया । शहरों में डेवलपमेंट प्रोजेक्ट के कारण अर्बन फॉरेस्ट खत्म हो रहा है । इससे साफ जाहिर है कि प्रदेश में अवैध रुप से जंगल की कटाई पर अंकुश नहीं लगा है ।
एक सदी पुराने कावेरी विवाद का निपटारा
कावेरी जल बंटवारे को लेकर कर्नाटक और तमिलनाडु में १२५ से भी अधिक वर्षोंा से विवाद चला आ रहा है । पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के फैसले के साथ अब यह झगड़ा खत्म होने के करीब दिख रहा है । लेकिन क्या यह हल स्थाई होगा ? क्या यह फैसला देश के अन्य नदी जल विवादोंमें भी नजीर बनेगा ? सुप्रीम कोर्ट का फैसला आंशिक रुप से ही इन सवालोंके जवाब देता हुआ दिखता है । फैसले की असली परीक्षा तो अब इस बात मेंहोगी कि जमीनी स्तर पर इसे कैसे लागू किया जाता है ? कोर्ट ने इस मामले में केंद्र को भी जोड़ दिया है ।
कोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा है कि वह `कावेरी मैनेजमेंट बोर्ड' का गठन करे, जो बतौर नियामक काम करे और अदालत के फैसले को लागू भी कराए । इस काम के लिए अदालत ने केंद्र सरकार को छह हफ्तों का समय दिया है । अक्तुबर २०१६ में केंद्र सरकार ने यह कहते हुए बोर्ड गठित करने से इंकार कर दिया था कि यह उसके अधिकार-क्षेत्र मेंनही है, यह महज कावेरी वाटर डिस्प्यूटर ट्रिब्यूनल की सिफारिश थी । कर्नाटक ने भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद बोर्ड के गठन का इस तर्क के साथ विरोध किया है कि यह जल की निगरानी पर उसके अधिकार को कम करना होगा । कावेरी जल विवाद के मूल मेंइस्तेमाल योग्य जल संसाधन की पुनर्साझेदारी का मसला है ।
सन् १८९२ व १९२४ में मैसूर प्रांत (अब कर्नाटक) और मद्रास सूबे (अब तमिलनाडु) के बीच हुए दो समझौते कावेरी जन बंटवारे की बुनियाद थे और विवाद की जड़ भी । जिन सिद्धांतों के आधार पर जल बटवारें का समाधान निकाला गया था, उन पर कर्नाटक और तमिलनाडु का रुख लगातार भिन्न रहा । कर्नाटक अमेरिकी अटॉर्नी जनरल के नाम से चर्चित हर्मन डॉक्टरिन पर जोर देता रहा है, जिसके मुताबिक राज्य को नदी जल पर निर्विवाद रुप से क्षेत्रीय संप्रभुता हासिल है, क्योंकि उसका उदम स्थल उसके सीमा क्षेत्र में है । दूसरी तरफ तमिलनाडु जल के प्राकृतिक बहाव के सिद्धांत की दुहाई देता रहा है ।
इसका मतलब है कि हर नदी तट पर बसे लोगोंका यह अधिकार है कि जल `राष्ट्रीय संसाधन' है और इस पर राज्य विशेष का हक नहीं । कोर्ट ने दोनों सिद्धांतों का खारिज कर दिया है । और न्यायसंगत बंटवारे या इस्तेमाल के सिद्धांत वा बल दिया है । यह एक महत्वपूर्ण निर्णय है और देश के अन्य नदी जल विवादोंपर भी लागू किया जा सकेगा ।
कावेरी दक्षिण भारत की चौथी सबसे बड़ी नदी है, जो कर्नाटक से बंगाल की खाड़ी तक ८०२ किलोमीटर का सफर तय करती है । इस बीच यह तमिलनाडु, केरल और पांडुचेरी में भी बहती है । इस नदी को दक्षिण-पश्चिम मानसून और उत्तर-पूर्व मानसून, दोनों का लाभ मिलता है । जब मानसून अच्छा रहता है तो राज्यों का काम आराम से चल जाता है, लेकिन जब मानसून कमजोर पड़ता है, तब किसानों को अपनी फसलों की सिंचाई के लिए इसके पानी की दरकार होती है, उस समय विवाद उन्हेंसबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाता है । पिछले कुछ वर्षोंा से यह मुद्दा संकीर्ण राजनीतिक अखाड़े में तब्दील हो गया है । ***
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