गुरुवार, 15 मार्च 2018

कविता
कटते-कटते वन घटे
डॉ. रामनिवास `मानव'
अग्नि, जल, वायु औ धरा, जीवन के आधार ।
इनके ही संयोग से, निर्मित यह संसार ।।

निश्चित है हर तत्व का, धरती पर अनुपात ।
इनसे आदमज़ात फिर, करती क्यों उत्पात ।।

नदियां अब नाला बनीं, सूखे सब तालाब ।
लगती बात अतीत की, जन-जीवन की आब ।।

कटते-कटते वन घटे, खेती बंटाढार,
लील रहा हरियालियां शहरोंका विस्तार ।।

प्रदूषण प्रतिपल बढ़े, भस्मासुर-सा आज ।
जलवायु के साथ सकल, दूषित हुआ समाज ।।

दिन-दिन बढ़ती गाड़ियां, दिन-दिन बढ़ता शोर ।
सुख से जीने के लिए, नहींठिकाना ठौर ।।

धुल-धुंआ इतना बढ़ा, रुक-रुक जाती सांस ।
अब तो कथित विकास ही, बना गले की फांस ।।

भौतिकता की दौड़ में, आज भी हलकान ।
कौन जुटाये फिर भला, जीवन का सामान ।।

जारी ऐसे ही रहा, मानव का उत्पात ।
बाढ़ और भूकम्प के, सहने होंगे घात ।।

सम्मुख खड़ी चुनौतियां, जाग अरे इन्सान ।
वरना सब मिट जायेगा, जग से नाम निशान ।।

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