अर्थ जगत
विकास के दावे और बढ़ती विषमता
कुमार प्रशांत
हमारे देश की ७३ प्रतिशत सम्पदा देश के केवल १ प्रतिशत लोगों के हाथोंमें सिमट गई है । इन १ प्रतिशत लोगों की सम्पत्ति पिछले एक साल में २१ लाख करोड़ बढी है ।
हमारे देश का यह आंकड़ा दावोस में ही जारी किया गया और यह अध्ययन एक गैर-सरकारी संस्थान ने किया है । पिछले साल जब ऑक्सफेम ने अध्ययन जारी किया था कि भारत के १ फीसदी लोगोंकी सम्पत्ति में ५८ प्रतिशत का इजाफा हुआ है और दावोस में ही पिछली बार कहा गया था कि विश्व शांति को सबसे बड़ा खतरा अगर किसी से है तो वह बढ़ती हुई विषमता से है ।
ऐसा कभी कभार ही होता है कि सच खुद सामने आकर झूठ का पर्दाफाश कर देता है । ऐसा ही हुआ था जब तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबाता अपने पद से विदा हो रहे थे । उन्होने जाते जाते कहा कि हमारी दुनिया का सच यहा है कि संसार की कुल सम्पत्ति का ५० प्रतिशत केवल ६० लोगोंकी मुट्ठी में है । दुनिया की सबसे अधिक सम्पत्ति, सारी दुनिया से समेटकर जिस एक देश ने अपने मुट्ठी में कर रखी है, उसी के राष्ट्रपति ने जाते जाते बता दिया कि संसाधनों और लोगों के बीच का सच्चा समीकरण क्या है । और प्रकारांतर से यह भी कबूल कर लिया कि यह सच इतना टेढ़ा कि इसे सीधा करना दुनिया के सबसे शक्तिशाली राष्ट्रपति के भी बस का नही है ।
अब जब धन्नासेठ दुनिया के सारे धन्नासेठ सत्ताधीश दावोस मेंजमा हुए और हमारे प्रधानमंत्री उन्हें भारत के विकास की सच्ची कहानी सुना रहे थे, एक भयानक सच किसी दूसरे रास्ते हमारे और दुनिया के सामने आ गया है । ` सबका साथ, सबका विकास ' यह जो माहौल देश भर मेंबनाया जाता रहा है, और जिसे साकार करने के लिए अनगिनत उपक्रम जोर-जोर से घोषित होते रहे है, हमारे हाथ उनका लब्बोलुआब यह आया है कि हमारे देश की ७३ प्रतिशत सम्पदा देश के केवल १ प्रतिशत लोगों के हाथोंसिमट गई है ।
इन १ प्रतिशत लोगों की सम्पत्ति पिछले एक साल में २१ लाख करोड़ बढ़ी है । ये आंकड़े और तस्वीर हमने नहीं बनाई है । यह किसी रेटिंग एजेंसी का वह आंकड़ा भी नहीं है जो किसी दबाव-प्रभाव से बढ़ाया या घटाया जा सकता है । वैसे तो सत्ताधीशों के हाथों में आंकड़े हमेशा ही खिलौनों से रहे हैं और हम यह खेल और खिलौना काफी समय देख रहे है । लेकिन हमारे देश का यह आंकड़ा दावोस में ही जारी किया गया और यह अध्ययन एक गैर-सरकारी संस्थान ने किया है ।
पिछले ही साल की बात है जब ऑक्सफेम ने यह अध्ययन जारी किया था कि भारत के १ फीसदी लोगोंकी सम्पत्ति में ५८ प्रतिशत का इजाफा हुआ है । और अगर हम भूलें नहीं तो दावोस में ही पिछली बार कहा गया था कि विश्व शांति को सबसे बढ़ा खतरा अगर किसी से है तो वह बढ़ती हुई विषमता से है । कहने का मतलब यह था कि अमीरी-गरीबी के बीच की खाई को पाटने की बात तो अब राष्ट्राध्यक्षों के एजेंडे में ही नही है लेकिन यह खाई चौड़ी न हो यह सावधानी रखना धन्नासेठों व सत्ताधीशों के लिए जरुरी है क्योंकि यह आग बहुत कुछ लील जाएगी । विश्व बैंक ने कभी कहा था कि उसका आर्थिक अध्ययन बताता है २०३० तक दुनिया से गरीबी खत्म हो जाएगी । अब विश्व बैंक खुद ही खत्म हो रहा है लेकिन २०३० तक दुनिया से गरीबी दूर हो जाएगी, ऐसा सपना अब मुंगेरीलाल भी नहीं देखते ।
दावोस में पिछली बार चीन के राष्ट्रपति झी जिनपिंग का जलवा था । वे चीन का वह चमकीला चेहरा दुनिया को बेच रहे थ जिसे चीन के ही अधिकांश लोग नहींजानते-पहचानते है । लेकिन वे दुनिया के सबसे बड़े निर्यातक देश के प्रमुख थे । इस बार यही काम हमारे प्रधानमंत्री करते दिखे । उनके साथ हमारे देश के कारपोरेटोंकी बड़ी मंडली और सरकारी आंकड़ो के विशेषज्ञ भी अपना पहाड़ लेकर वहां थे । हमारे प्रधानमंत्री के साथ ही यह सच्चाई भी वहां गई कि उनके साथ दावोस पहुंचे इन्ही करापोरेटों की आय में २०१७ में २०.९ लाख करोड़ की बढ़ोत्तरी हुई है । इसका दूसरा मानी यह है कि २०१७-१८ का भारत सरकार का कुल बजट जितना था उस बराबर की कमाई इन कारपोरेटों ने २०१७ में की है । आज की तारीख में भारत में १०१ अरबपति है जिनमें से १७ अरबपति २०१७ में ही पैदा हुए है । अर्थशास्त्रियों की जमात में एक सम्मानित नाम है टॉमस पिकेटी का । उनका अध्ययन बताता है कि भारत की सबसे गरीब जमात के सबसे पीछे के ५० प्रतिशत लोगों की आय में पिछले वर्ष में ० प्रतिशत की वृद्धि हुई है जबकि इसी अवधि में अरबपतियों की संख्या १३ प्रतिशत बढ़ी है ।
वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरमे की ताजा रिपोर्ट हमारी कुछ दूसरी तस्वीरेंलेकर आया है । हम दुनिया की विकास सूचकांक में ६२ वें स्थान पर है मतलब चीन २६ और पाकिस्तान ४७ से पीछे । वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम दुनिया भर के देशों का ऐसा अध्ययन करते हुए यह देखता है कि वहां कि सामान्य जनता के रहन-सहन का स्तर क्या है, पौष्टिक खाद्य की उपलब्धता कैसी है, पर्यावरण के संरक्षण की स्थिति क्या है और देश पर वह विदेशी कर्ज कितना है जिसका भावी पीढ़ियों पर बोझ पड़ेगा । यह अध्ययन बताता है कि आर्थिक रुप से कौन देश कितना सशक्त है इसका जवाब यह नहीं है कि हमने जनधन योजना में कितने बैंक खाते खोले बल्कि यह है कि उन खातों में आज क्या जमा है और जो जमा है वह कहां से आया है । पैसा कहां ओर कैसेपैदा हो रहा है और वह किन रास्तों से चल कर लोगों की जेबों तक पहुंच रहा है, यह रास्ता जाने बिना न विकास के आंकड़ों का कोई अर्थ होता है न कमाई के आंकड़ो का ।
इसलिए दावोस में हमारा चेहरा चाहे कितना चमकाया जाए, उस चेहरे के पीछे की यह सच्चाई छिपाई नहीं जा सकेगी कि हमारी जेब लगातार खाली होती जा रही है, सरकारी खर्चेपर कोई प्रभावी रोक संभव नहीं हो पा रही है, बैंकिंग व्यव्स्था की अराजकता संभाली नहीं जा पा रही है, रोजगारविहीन विकास की घुटन फैल रही है, खेती-किसानी की कमर टूट चुकी है, औद्योगिक उत्पादन भी गिर रहा है और खपत भी । नोटबंदी ने हमारे अर्थतंत्र के मध्यत घटक का दम तोड़ दिया तो जीएसटी से उसे बेहाल कर दिया है ।
किसी भी अर्थ व्यवस्था की मध्यम कड़ी ही उसे संभालकर रखती है और उपर-नीचे के थपेड़ों से बचाती है । यह मध्यम कड़ी आज जैसी बेहाल कभी नहीं थी । जीएसटी में जितनी बार, जितने बदलाव किए जा रहे है वे दूसरा कुद बताते हों या न बताते हो, यह तो बता ही रहे है कि इसे लागू करने से पहले जितना अध्ययन व जितनी व्यवस्था जरुरी थी, वह नहीं की गई । अधपका फल या अधपकी फसल किसी के काम नहीं आती है । खेत को जरुरत कमजोर कर जाती है ।
यह सब लिखते-जानते किसी तरह खुशी नहीं है मुझे । बहुत तकलीफ है, क्योंकि मामला इस प्रधानमंत्री या उस प्रधानमंत्री का नहीं है । इस या उस सरकार की भी बात नहीं है । बात देश की है जो किसी भी सरकार के बाद भी रहेगा, किसी भी प्रधानमंत्री के बाद भी चलेगा । वह कमजोर हो, घायल हो, खोखला हो तो तकलीफ कितनी दारुण होती है , यह मैंभी जानता हँू और आप भी । ***
विकास के दावे और बढ़ती विषमता
कुमार प्रशांत
हमारे देश की ७३ प्रतिशत सम्पदा देश के केवल १ प्रतिशत लोगों के हाथोंमें सिमट गई है । इन १ प्रतिशत लोगों की सम्पत्ति पिछले एक साल में २१ लाख करोड़ बढी है ।
हमारे देश का यह आंकड़ा दावोस में ही जारी किया गया और यह अध्ययन एक गैर-सरकारी संस्थान ने किया है । पिछले साल जब ऑक्सफेम ने अध्ययन जारी किया था कि भारत के १ फीसदी लोगोंकी सम्पत्ति में ५८ प्रतिशत का इजाफा हुआ है और दावोस में ही पिछली बार कहा गया था कि विश्व शांति को सबसे बड़ा खतरा अगर किसी से है तो वह बढ़ती हुई विषमता से है ।
ऐसा कभी कभार ही होता है कि सच खुद सामने आकर झूठ का पर्दाफाश कर देता है । ऐसा ही हुआ था जब तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबाता अपने पद से विदा हो रहे थे । उन्होने जाते जाते कहा कि हमारी दुनिया का सच यहा है कि संसार की कुल सम्पत्ति का ५० प्रतिशत केवल ६० लोगोंकी मुट्ठी में है । दुनिया की सबसे अधिक सम्पत्ति, सारी दुनिया से समेटकर जिस एक देश ने अपने मुट्ठी में कर रखी है, उसी के राष्ट्रपति ने जाते जाते बता दिया कि संसाधनों और लोगों के बीच का सच्चा समीकरण क्या है । और प्रकारांतर से यह भी कबूल कर लिया कि यह सच इतना टेढ़ा कि इसे सीधा करना दुनिया के सबसे शक्तिशाली राष्ट्रपति के भी बस का नही है ।
अब जब धन्नासेठ दुनिया के सारे धन्नासेठ सत्ताधीश दावोस मेंजमा हुए और हमारे प्रधानमंत्री उन्हें भारत के विकास की सच्ची कहानी सुना रहे थे, एक भयानक सच किसी दूसरे रास्ते हमारे और दुनिया के सामने आ गया है । ` सबका साथ, सबका विकास ' यह जो माहौल देश भर मेंबनाया जाता रहा है, और जिसे साकार करने के लिए अनगिनत उपक्रम जोर-जोर से घोषित होते रहे है, हमारे हाथ उनका लब्बोलुआब यह आया है कि हमारे देश की ७३ प्रतिशत सम्पदा देश के केवल १ प्रतिशत लोगों के हाथोंसिमट गई है ।
इन १ प्रतिशत लोगों की सम्पत्ति पिछले एक साल में २१ लाख करोड़ बढ़ी है । ये आंकड़े और तस्वीर हमने नहीं बनाई है । यह किसी रेटिंग एजेंसी का वह आंकड़ा भी नहीं है जो किसी दबाव-प्रभाव से बढ़ाया या घटाया जा सकता है । वैसे तो सत्ताधीशों के हाथों में आंकड़े हमेशा ही खिलौनों से रहे हैं और हम यह खेल और खिलौना काफी समय देख रहे है । लेकिन हमारे देश का यह आंकड़ा दावोस में ही जारी किया गया और यह अध्ययन एक गैर-सरकारी संस्थान ने किया है ।
पिछले ही साल की बात है जब ऑक्सफेम ने यह अध्ययन जारी किया था कि भारत के १ फीसदी लोगोंकी सम्पत्ति में ५८ प्रतिशत का इजाफा हुआ है । और अगर हम भूलें नहीं तो दावोस में ही पिछली बार कहा गया था कि विश्व शांति को सबसे बढ़ा खतरा अगर किसी से है तो वह बढ़ती हुई विषमता से है । कहने का मतलब यह था कि अमीरी-गरीबी के बीच की खाई को पाटने की बात तो अब राष्ट्राध्यक्षों के एजेंडे में ही नही है लेकिन यह खाई चौड़ी न हो यह सावधानी रखना धन्नासेठों व सत्ताधीशों के लिए जरुरी है क्योंकि यह आग बहुत कुछ लील जाएगी । विश्व बैंक ने कभी कहा था कि उसका आर्थिक अध्ययन बताता है २०३० तक दुनिया से गरीबी खत्म हो जाएगी । अब विश्व बैंक खुद ही खत्म हो रहा है लेकिन २०३० तक दुनिया से गरीबी दूर हो जाएगी, ऐसा सपना अब मुंगेरीलाल भी नहीं देखते ।
दावोस में पिछली बार चीन के राष्ट्रपति झी जिनपिंग का जलवा था । वे चीन का वह चमकीला चेहरा दुनिया को बेच रहे थ जिसे चीन के ही अधिकांश लोग नहींजानते-पहचानते है । लेकिन वे दुनिया के सबसे बड़े निर्यातक देश के प्रमुख थे । इस बार यही काम हमारे प्रधानमंत्री करते दिखे । उनके साथ हमारे देश के कारपोरेटोंकी बड़ी मंडली और सरकारी आंकड़ो के विशेषज्ञ भी अपना पहाड़ लेकर वहां थे । हमारे प्रधानमंत्री के साथ ही यह सच्चाई भी वहां गई कि उनके साथ दावोस पहुंचे इन्ही करापोरेटों की आय में २०१७ में २०.९ लाख करोड़ की बढ़ोत्तरी हुई है । इसका दूसरा मानी यह है कि २०१७-१८ का भारत सरकार का कुल बजट जितना था उस बराबर की कमाई इन कारपोरेटों ने २०१७ में की है । आज की तारीख में भारत में १०१ अरबपति है जिनमें से १७ अरबपति २०१७ में ही पैदा हुए है । अर्थशास्त्रियों की जमात में एक सम्मानित नाम है टॉमस पिकेटी का । उनका अध्ययन बताता है कि भारत की सबसे गरीब जमात के सबसे पीछे के ५० प्रतिशत लोगों की आय में पिछले वर्ष में ० प्रतिशत की वृद्धि हुई है जबकि इसी अवधि में अरबपतियों की संख्या १३ प्रतिशत बढ़ी है ।
वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरमे की ताजा रिपोर्ट हमारी कुछ दूसरी तस्वीरेंलेकर आया है । हम दुनिया की विकास सूचकांक में ६२ वें स्थान पर है मतलब चीन २६ और पाकिस्तान ४७ से पीछे । वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम दुनिया भर के देशों का ऐसा अध्ययन करते हुए यह देखता है कि वहां कि सामान्य जनता के रहन-सहन का स्तर क्या है, पौष्टिक खाद्य की उपलब्धता कैसी है, पर्यावरण के संरक्षण की स्थिति क्या है और देश पर वह विदेशी कर्ज कितना है जिसका भावी पीढ़ियों पर बोझ पड़ेगा । यह अध्ययन बताता है कि आर्थिक रुप से कौन देश कितना सशक्त है इसका जवाब यह नहीं है कि हमने जनधन योजना में कितने बैंक खाते खोले बल्कि यह है कि उन खातों में आज क्या जमा है और जो जमा है वह कहां से आया है । पैसा कहां ओर कैसेपैदा हो रहा है और वह किन रास्तों से चल कर लोगों की जेबों तक पहुंच रहा है, यह रास्ता जाने बिना न विकास के आंकड़ों का कोई अर्थ होता है न कमाई के आंकड़ो का ।
इसलिए दावोस में हमारा चेहरा चाहे कितना चमकाया जाए, उस चेहरे के पीछे की यह सच्चाई छिपाई नहीं जा सकेगी कि हमारी जेब लगातार खाली होती जा रही है, सरकारी खर्चेपर कोई प्रभावी रोक संभव नहीं हो पा रही है, बैंकिंग व्यव्स्था की अराजकता संभाली नहीं जा पा रही है, रोजगारविहीन विकास की घुटन फैल रही है, खेती-किसानी की कमर टूट चुकी है, औद्योगिक उत्पादन भी गिर रहा है और खपत भी । नोटबंदी ने हमारे अर्थतंत्र के मध्यत घटक का दम तोड़ दिया तो जीएसटी से उसे बेहाल कर दिया है ।
किसी भी अर्थ व्यवस्था की मध्यम कड़ी ही उसे संभालकर रखती है और उपर-नीचे के थपेड़ों से बचाती है । यह मध्यम कड़ी आज जैसी बेहाल कभी नहीं थी । जीएसटी में जितनी बार, जितने बदलाव किए जा रहे है वे दूसरा कुद बताते हों या न बताते हो, यह तो बता ही रहे है कि इसे लागू करने से पहले जितना अध्ययन व जितनी व्यवस्था जरुरी थी, वह नहीं की गई । अधपका फल या अधपकी फसल किसी के काम नहीं आती है । खेत को जरुरत कमजोर कर जाती है ।
यह सब लिखते-जानते किसी तरह खुशी नहीं है मुझे । बहुत तकलीफ है, क्योंकि मामला इस प्रधानमंत्री या उस प्रधानमंत्री का नहीं है । इस या उस सरकार की भी बात नहीं है । बात देश की है जो किसी भी सरकार के बाद भी रहेगा, किसी भी प्रधानमंत्री के बाद भी चलेगा । वह कमजोर हो, घायल हो, खोखला हो तो तकलीफ कितनी दारुण होती है , यह मैंभी जानता हँू और आप भी । ***
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें