गुरुवार, 15 मार्च 2018

कृषि जगत
कृषि संकट का मूल कारण क्या है ?
देवेन्दर शर्मा
अब समय आ गया है कि अर्थशास्त्रियों को दिखाया जाए कि वास्तविकता क्या है और किसान क्यों मर रहें हैं ? अन्यथा ऐसे बेकार नीति दस्तावेज परोसे जाते रहेगें । 
हमारे देश में कृषि संकट का मूल कारण गलत आर्थिक विचारधारा है । इसका उद्भव आर्थिक सर्वेक्षण है ।बड़ी त्रासदी है कि जो लोग आर्थिक सर्वेक्षण तैयार करते है वह ये भी मानने का तैयार नहीं कि जो आर्थिक उपचार वो सुझाते आए है वही कृषि संकट की जड़ है ।
पिछले १०-११ वर्षोंा से में वार्षिक आर्थिक रिपोट को बहुत ध्यान से पढ़ता आया हूं । ये भारी भरकम रिपोर्ट आम तौर पर सामान्य बजट के दो दिन पहले पेश की जाती है और वर्ष भर के आर्थिक रुझानों का काफी सही आकलन पेश करती है । साथ ही हमें यह भी बताती है कि देश में हर सरकार की आर्थिक सोच कितनी अदूरदर्शी रही है । यदि इस रिपोर्ट को ध्यान से पढ़ेंगे तो आप समझ जाएंगे कि इसको लिखने वाले अर्थशासत्री विश्व बैंक/आईएमएफ व क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों द्वारा पढाए जा रहे आर्थिक पाठ का आंख बंद करके अनुसरण कर रहे है । अगर आपने आर्थिक सर्वेक्षण के कुछ दस्तावेजों को भी पढ़ा हो तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि अर्थशास्त्री रुढ़ दायरों से बाहर निकलने की कल्पना भी नहीं कर पाते है । पिछले कई वर्षो से असफल सिद्ध हुए सुझावों और सिफारिशों को ही बार-बार परोसा जाता है ।
कम से कम पिछले दस वर्षोंा में, जब से मैं आर्थिक सर्वेक्षण का अध्ययन कर रहा हूं, मेरा दृढ़ मत है कि हमारे देश में कृषि संकट का मूल कारण गलत आर्थिक विचारधारा है ।
सीधो रास्ते पर रखने के लिए जैसे घोड़ों की आंखों के आगे ब्लिंकर लगा दिए जाते है मेरे विचार से मुख्यधारा के अर्थशास्त्री भी जाने अनजाने अपने दिमाग पर मनोवैज्ञानिक ब्लिंकर बांधे रहते है । शायद उनसे लीक से बाहर सोचने की अपेक्षा की भी नहींजाता है । हमें नही भूलना चाहिए कि ब्लिंकर घोड़े को जो प्रकृति उन्हें दिखाना चाहती है वो देखने से बाधित करते है । हमारे अर्थशास्त्रियों का वही हाल है ।
जब आप लकीर के फकीर बन जाते है जो उसका परिणाम गलतियों बल्कि भारी गलतियों के रुप में भुगतना पड़ता है । उदाहरण के लिए कृषि क्षेत्र को देखिए जो प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रुप से ५२ प्रतिशत आबादी को आजीविका प्रदान करता है । कम से कम पिछले दस वर्षोंा में, जब से मैं आर्थिक सर्वेक्षण का अध्ययन कर रहा हूं, मेरा ये दृढ़ मत है कि हमारे देश में कृषि संकट का मूल कारण गलत आर्थिक विचारधारा है । इसका उद्भव आर्थिक सर्वेक्षण है । इससे भी बड़ी त्रासदी यह है कि जो लोग आर्थिक सर्वेक्षण तैयार करते है वह भी मानने को तैयार नहीं कि जो आर्थिक उपचार वो सुझाते आए है वही कृषि संकट की जड़ है ।
साल दर साल कृषि की स्थिति सुधारने के लिए सर्वेक्षण के द्वारा वही पुराने असफल फॉमूले सुझाये जाते है । फसल की उत्पादकता बढ़ाआें, सिंचाई व्यवस्था का विस्तार करो, जोखिम कम करो, लाभकारी मूल्य उपलब्ध करो और बाजार का निजीकरण करो । कम से कम पिछले दस वर्षोंा से मैने आर्थिक सर्वेक्षण को कृषि में सुधार करने के लिए यही सुझाव देते देखा है । कोई आश्चर्य नहीं कि हर साल कृषि संकट कम नही हुआ बल्कि गहराया ही है । 
किसानों द्वारा आत्महत्याआें के नथमने वाले सिलसिले के बावजूद वो लोग अपनी घिसी-पिटी विचारधारा से उपजे उपचार सुझाने से बाज नहींआ रहे । पिछले २२ वर्षो में अनुमानत: ३.३० लाख किसानों ने आत्महत्या कर ली है और फिर भी अर्थशास्त्री एक भी समझदारी वाला सुझाव देने में नाकाबिल रहे । यह हमारे नीतिगत ढांचे पर एक दुखद टिप्पणी है ।
अपनी और इससे पहले किए हुए सभी उपचारों की विफलता की बारे में जानते हुए भी आर्थिक सर्वेक्षण २०१७ ने अब अपना ध्यान विवादास्पद जेनेटिकली मॉडिफाइड (जीएम) फसलों पर केंद्रित कर लिया है । उसी दोषपूर्ण तर्क का इस्तेमाल करते हुए कि कृषि संकट से उबरने का एकमात्र रास्ता फसल की उत्पादकता बढ़ाना है, आर्थिक सर्वेक्षण अब जीएम फसलों को ही संकटमोचक बता रहे है । इसमें  ये भी सुझाव दिया गया है कि वाणिज्यीकरण का रास्ता खुलने के इंतजार मेंजीएम सरसों की बेकार किस्म ही नहीं भारत को सभी प्रकार की जीएम फसलों के लिए बाजार खोल देना चाहिए ।
जी एम उद्योग की कही बातों की तंर्ज पर इन्होनें जी एम फसलों को बाजार में उपलब्ध करवाने को उचित बताने के लिए प्रारुप भी तैयार कर लिया है । दलहन का उत्पादन बढ़ाने पर प्रस्तुत रिपोर्ट में मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम अध्यक्षता वाली एक समिति ने उत्पादकता बढ़ाने के लिए दलहन के क्षेत्र मेंजीएम प्रौद्योगिकी लाने का खुला समर्थन किया । सामाजिक स्तर पर इस सिफारिश की कड़ी निंदा होने पर मुख्य आर्थिक सलाहकार ने एक कदम और आगे बढ़कर इस नीति दस्तावेज का प्रयोग निजी बीज कंपनियोंके वाणिज्यिक हितों को बढ़ावा देने के लिए किया ।
वैज्ञानिक तथ्य यह है कि विश्व मेंकोई जीएम फसल नहीं है जिससे फसल की उत्पादकता बढ़ती हो और इस तथ्य को सीधे तौर पर नजरअंदाज कर दिया गया है । एकमात्र जीएम फसल जो भारत में उगाई गई है वो है बीटी कॉटन । यदि जीएम कॉटन से कपास की खेती करने वाले किसानों की आमदानी में इजाफा हुआ होता तो बीटी कॉटन उगाने वाले किसाना आत्महत्या क्यों कर रहे हैं? अनुमान है कि भारत में खेती से जुड़ी आत्महत्याआें में से ७० प्रतिशत मौते केवलकपास के क्षैत्र से सम्बंधित है ।
इसके अलावा यदि फसल उत्पादकता बढ़ाना ही आगे बढ़ने का रास्ता है तो देश का फूड बाउल कहलाने वाले पंजाब मेंकिसान इतनी बड़ी संख्या में आत्महत्या पर क्यों आमादा है । पंजाब विश्वभर में अनाज का सबसे बड़ा उत्पादक है और ९८ प्रतिशत सुनिश्चित सिंचाई सुविधा युक्त होने के कारण इसके पास विश्व मेंसबसे बड़ा सिंचाई क्षेत्र है । फिर भी कोई दिन नहीं जाता जब यहां तीन से चार किसान आत्महत्या न कर लें ।
जीएम फसल का इस्तेमाल किए बिना भी इस वर्ष दलहन के उत्पादन में कई गुना बढ़त भी लेकिन उत्पादन में एकाएक वृद्धि को सम्हालने की समझ सरकार के पास न होने के कारण कीमतेंगिरी और किसानों ने नुकसान झेला । ५०५० रुपए प्रति क्ंविटल के खरीद मूल्य के स्थान पर किसान ३५०० से ४२०० प्रति क्ंविटल से अधिक की कीमत नहींप्राप्त् कर पाया । उत्पादकता में कमी कहां थी? कब तक अर्थशास्त्री खेती में लगने वाले कच्चे माल के आपूर्तिकर्ताआें के हितों को बढ़ावा देने के लिए गलत दृष्टिकोण परोसते रहेंगें?
मुझे यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि २०१७ का आर्थिक सर्वेक्षण पढ़कर मुझे बहुत हताशा हुई । चूंकि अर्थशास्त्रियों ने अपने आंख पर पर्दा डाल रखा है तो समय आ गया है कि उन्हे दिखाया जाए कि वास्तविकता क्या है और किसान क्यों मर रहे है । अन्यथा हमें इसी प्रकार की बेकार नीति इस्तावेज परोसे जाते रहेगें इसलिए मेरा सुझाव है कि आर्थिक सर्वेक्षण तैयार करने वाले अर्थशास्त्रियों के दल के लिए कम से कम तीन महीने ग्रामीण इलाकोंमें बिताना अनिवार्य कर देना चाहिए ।
इस दल की अगुवाई मुख्य आर्थिक सलाहकार करें और इसमें नीति आयोग के सदस्य भी शामिल हों । मुझे विश्वास है कि आप मानेंगे कि अर्थशास्त्रियों/नौकरशाहों को ग्रामीण स्थिति से रुबरु करवाना अति आवश्यक है । अन्यथा जिस भयंकर संकट से देश पिछले दस वर्षो से गुजर रहा है वह संकट कम होने की जगह और गहरा जाएगा ।         ***

कोई टिप्पणी नहीं: