प्रदेश चर्चा
हिमाचल : चंबा में कृषि संभावनायें
कुलभूषण उपमन्यु
हिमाचल प्रदेश के अन्य जनजातीय क्षेत्रों की अपेक्षा चम्बा में सबसे ज्यादा जनजातीय आबादी है, यह चम्बा जिला की आबादी की २५ प्रतिशत से भी ज्यादा है । चम्बा क्षेत्र में बहु सांस्कृतिक और भौगालिक-मौसमीय विविधताएं है । अकेले चम्बा क्षेत्र मेंही चार कृषि मौसमीय कटिबंध है । लेकिन यह विकास की प्रक्रिया मेंपिछड़ गया है और आज के इस दौर मेंइसके सशक्त करने की आवश्यकता है ।
चम्बा को देश के पिछड़े ११५ जिलो में शामिल करने के बाद से पिछड़ेपन को दूर करने के लिए चर्चाएं शुरु हो रही है । केंद्र सरकार द्वारा विशेष योजनाआें पर भी कार्य आरंभ होगा । जिला चम्बा का पिछड़े जिलो में चयन न तो कोई उपब्धि है और न ही शर्म की बात । अब अगला कदम यह होना चाहिए कि सभी संबंधित पक्ष समन्वित प्रयास करें और जिले को इस स्थिति से बाहर निकालने का प्रयास करें । चम्बा में बी. आर.जी.एफ. और वनबंधु-योजना के अंतर्गत कुछ प्रयास हुए भी है, किंतु जल्दबाजी, गंभीरता के अभाव और अधूरी समझ से बनाए बए कार्यक्रमों के चलते अपेक्षित फल प्राप्त् नहीं हो सके ।
फिर भी जो कुछ हुआ उसका सही आकलन करना और उसके आधार पर अगली दिशाआेंकी समझ बनाने की जरुरत है । पुराने कार्यक्रमोंमें हुई उपलब्धियों और गलतियों का विशेषज्ञों द्वारा आकलन किया जाना चाहिए, ताकि पुरानी गलतियों से बचते हुए नई सकारात्मक दिशाआें की पहचान की जा सके ।इसी आधार पर भविष्य के लिए व्यवहारिक कार्यक्रम बनाए जा सकते हैं और स्थाई परिणाम प्राप्त् किए जा सकते है ।
हमें ढांचागत सुविधाआें और लक्षित समूहों की आय संवर्धन गतिविधियों में संबंधों को समझ कर ही आय-सृजन उत्पादक अवसर पैदा करने होंगे ताकि जरुरत मंद लोग अपने पैरों पर खड़े हो सकें । चम्बा में ५४ प्रतिशत परिवार गरीबी रेखा से नीचे है, उनके अलावा भी काफी बड़ा वर्ग सीमान्त पर खड़ा है । ९० प्रतिशत आबादी गावों में बसती है और कृषि पर निर्भर है । इसलिए कृषि की ओर ध्यान देना पहली प्राथमिकता होना स्वाभाविक ही है । औसत जोत ८-९ बीघा के आस पास है, ५० प्रतिशत जोतेंतो २-३ बीघा ही है । ऐसे में कृषि पूर्णकालिक व्यवसाय नहीं मानी जा सकती है । कृषि के सहयोगी व्यवसाय पशु पालन, भेड़-बकरी पालन, मुर्गी पालन, मछली पालन, मधुमक्खी पालन की अपार संभावनाए है ।
कृषि और इन सहयोगी व्यवसायों के समन्वय के गंभीर प्रयासोंसे प्रभावी बदलाव की दिशा में ऐसा पहला कदम निश्चित रुप से उठाया जा सकता है । जिले में ५४ प्रतिशत के लगभग चरागाह भूमि है । यह पशुपालन और भेड़ बकरी पालन के लिए बड़ा संसाधन है । यह संसाधन खरपतवारों के आक्रमण और चीड़ के अत्यधिक रोपण से नष्ट प्राय: हो चुका है । इसे विकसित करने के लिए लंबे समय चक्र की भी जरुरत नहींहै । खरपतवार नष्ट करके उन्नत घास रोपण से दो वर्ष मेंपरिणाम प्राप्त् हो सकते है । खेती के तरीकों जैविक कृषि और जीरो-बजट खेती की दिशा मेंबढ़ कर खेती को लाभ दायक बनाया जा सकता है । इसके लिए उन्नत किस्म के देशी पशुआेंपर ध्यान देना पड़ेगा साहिवाल, सिन्धी, थारपारकर, गीर, जैसी नस्लें आसानी से ५ से १० किलो दूध दे सकती है ।
जबकि इनकी क्षमता २० से ४० किलो प्रतिदिन पाई गई है । जैविक खेती के लिए देशी नस्लोंका गोबर और गोमूत्र ही उपयोगी है । इनके गोबर मेंसूक्ष्त जीवाणुआें की संख्या यूरोपीय नस्लों के मुकाबले ५० गुना ज्यादा पाई गई है । इसी से यह गोबर जल्दी सड़ता है और अच्छा खाद द ेसकता है । गोमूत्र से भी उत्कृष्ट जीवामश्त खाद बनाई जा सकती है । इनका दूध भी ए-२ किस्म का होता है जो अधिक गुणवत्ता वाला होता है आस्ट्रेलिया मेंयह दूध, दूसरे के मुकाबले दुगनी कीमत पर बिकता है । जिला मेंदूध की खपत काफी है । ट्रकों के हिसाब से दूध और दुग्ध पदार्थ रोज बहार से आ रहे है । इतनी चरागाह भूमि होने के कारण हमें तो दूध निर्यातक क्षेत्र होना चाहिए ।
भेड़ बकरियों के लिए उनके उपयुक्त झाड़ियों वाले वन पनपाने चाहिए । वन-बंधु-योजना में यह काम किया जा सकता था । बकरियों की मांग मांस के लिए लगातार बढ़ रही है । राजस्थान से भी बकरियां लाई जा रही है । यहां बकरी पालन को बढ़ावा देकर सबसे सीमान्त भूमियों पर भी लोगों को लाभकारी व्यवसाय दिया जा सकता है । जिला में ग्रामीण भूमिहीनों की संख्या १४,४५० परिवार है । संभवत: ये सबसे गरीब लोग है इनमें से जो कृषि कार्य में रुचि और योग्यता रखते हों उन्हे गुजारे योग्य भूमि दी जानी चाहिए । शेष भूमिहीनों को कौशल विकास का विशेष लक्षित समूह मानकर प्रशिक्षित किया जाना चाहिए । इसमें कुछ स्वरोजगार से जुड़े कौशल हो सकते है और कुछ व्यवसायिक मांग के अध्ययन के आधार पर चिन्हित किए जा सकते है ।
कृषि क्षेत्र मेंकेवल धान, मक्का, गेहूं तक सीमित नहींरहा जा सकता । छोटी जोतों के चलते यह फसल चक्र गुजारे योग्य आय जुटाने में सक्षम नहीं बचा है । इसीलिए खेत खाली पड़ते जा रहे है । बन्दर और सुअर भी खेती को घाटे की ओर धकेलते जा रहे है । इनका नियन्त्रण करके , कुछ वैकल्पिक नकदी फसलों को फसल चक्र मेंशामिल करना होगा । इस कार्य के लिए उद्यान विभाग, आयुर्वेद विभाग और हिमालयन जैव प्रौद्योगिक संस्थान पालमपुर का संयुक्त कार्यसमूह बनाया जाना चाहिए । इस समूह के हवाले बेमौसमी सब्जी, सुगन्धित एसेंशियल तेल, औषाधीय जड़ी बूटियों के तेल, जड़ी-बूटी खेती, और बागवानी का कार्य सौंपा जा सकता है, जैव प्रौद्योगिकी संस्थान पालमपुर के पास कुछ अच्छी तकनीकें है और कृषि उत्पादोंके प्रसंस्करण द्वारा मूल्य संवर्धन के गुर भी है ।
इनके लिए अलग विशेष परियोजना बनाकर काम हो और इन उत्पादोंकी बिक्री व्यवस्था खड़ी करने का कार्य भी साथ जोड़ा जाए तो वैकल्पिक आय के स्त्रोत पैदा हो सकते है । इस क्षेत्र में ध्यान देने योग्य बात यह है कि कृषि का वैकल्पिक मॉडल मुख्यधारा कृषि पद्धति मेंलागू करने योग्य हो, जिससे कोई बड़ा बदलाव लाया जा सके, ऐसे मॉडल न खड़े किए जाएं जो सीमान्त किसानों की पहुंच से बाहर हो और टिकाउ भी न हों । ऐसा अनुभव हम पौली हाउस खेती में कर चुके है । उपलब्ध तकनीकों के क्षेत्रीय ट्रायल लगाने और नए शोध के लिए बजट उपलब्ध करवाया जाए जिसके अनुभवों के आधार पर आगे बड़े पैमाने पर प्रसार कार्य किया जा सके ।
कृषि उत्पादों के प्रसंस्करण के लिए जगह जगह छोटे-छोटे उद्योग लगाए जाएं । जिसके लिए कुशल कार्यकर्ता स्थानीय स्तर पर तैयार किए जाएं । चम्बा मेंउपलब्ध निश, उत्पादों (जो केवल यहीं हो सकते है) जैसे पांगी की ठांगी (हैजल नट), चिलगोजा, भारमौर के राज माह, और चिलगोजा, मिलेट्स, भटियात की बासमती, के लिए उपयुक्त प्रोत्साहन और बिक्री व्यवस्था की जाए चुराह तहसील और चम्बा के साहो-जडेरा क्षेत्रो के बराबर स्वादिष्ट मक्की मिलना दुर्लभ है । इससे कुछ उत्पाद बनाने के लिए उद्योग तक पंहुचेगा । सीमेंट जैस उद्योगों का तो हल्ला ज्यादा होगा, लाभ तो कुछ समृद्ध लोगों तक ही पंहुच पाएगा । बी.पी.एल श्रेणी के परिवार ट्रक डाल कर कहां कमा पाएंगे उल्टा उनकी कृषि भूमियां और चरागाह संसाधन उनके हाथ से निकल जाएंगे । ***
हिमाचल : चंबा में कृषि संभावनायें
कुलभूषण उपमन्यु
हिमाचल प्रदेश के अन्य जनजातीय क्षेत्रों की अपेक्षा चम्बा में सबसे ज्यादा जनजातीय आबादी है, यह चम्बा जिला की आबादी की २५ प्रतिशत से भी ज्यादा है । चम्बा क्षेत्र में बहु सांस्कृतिक और भौगालिक-मौसमीय विविधताएं है । अकेले चम्बा क्षेत्र मेंही चार कृषि मौसमीय कटिबंध है । लेकिन यह विकास की प्रक्रिया मेंपिछड़ गया है और आज के इस दौर मेंइसके सशक्त करने की आवश्यकता है ।
चम्बा को देश के पिछड़े ११५ जिलो में शामिल करने के बाद से पिछड़ेपन को दूर करने के लिए चर्चाएं शुरु हो रही है । केंद्र सरकार द्वारा विशेष योजनाआें पर भी कार्य आरंभ होगा । जिला चम्बा का पिछड़े जिलो में चयन न तो कोई उपब्धि है और न ही शर्म की बात । अब अगला कदम यह होना चाहिए कि सभी संबंधित पक्ष समन्वित प्रयास करें और जिले को इस स्थिति से बाहर निकालने का प्रयास करें । चम्बा में बी. आर.जी.एफ. और वनबंधु-योजना के अंतर्गत कुछ प्रयास हुए भी है, किंतु जल्दबाजी, गंभीरता के अभाव और अधूरी समझ से बनाए बए कार्यक्रमों के चलते अपेक्षित फल प्राप्त् नहीं हो सके ।
फिर भी जो कुछ हुआ उसका सही आकलन करना और उसके आधार पर अगली दिशाआेंकी समझ बनाने की जरुरत है । पुराने कार्यक्रमोंमें हुई उपलब्धियों और गलतियों का विशेषज्ञों द्वारा आकलन किया जाना चाहिए, ताकि पुरानी गलतियों से बचते हुए नई सकारात्मक दिशाआें की पहचान की जा सके ।इसी आधार पर भविष्य के लिए व्यवहारिक कार्यक्रम बनाए जा सकते हैं और स्थाई परिणाम प्राप्त् किए जा सकते है ।
हमें ढांचागत सुविधाआें और लक्षित समूहों की आय संवर्धन गतिविधियों में संबंधों को समझ कर ही आय-सृजन उत्पादक अवसर पैदा करने होंगे ताकि जरुरत मंद लोग अपने पैरों पर खड़े हो सकें । चम्बा में ५४ प्रतिशत परिवार गरीबी रेखा से नीचे है, उनके अलावा भी काफी बड़ा वर्ग सीमान्त पर खड़ा है । ९० प्रतिशत आबादी गावों में बसती है और कृषि पर निर्भर है । इसलिए कृषि की ओर ध्यान देना पहली प्राथमिकता होना स्वाभाविक ही है । औसत जोत ८-९ बीघा के आस पास है, ५० प्रतिशत जोतेंतो २-३ बीघा ही है । ऐसे में कृषि पूर्णकालिक व्यवसाय नहीं मानी जा सकती है । कृषि के सहयोगी व्यवसाय पशु पालन, भेड़-बकरी पालन, मुर्गी पालन, मछली पालन, मधुमक्खी पालन की अपार संभावनाए है ।
कृषि और इन सहयोगी व्यवसायों के समन्वय के गंभीर प्रयासोंसे प्रभावी बदलाव की दिशा में ऐसा पहला कदम निश्चित रुप से उठाया जा सकता है । जिले में ५४ प्रतिशत के लगभग चरागाह भूमि है । यह पशुपालन और भेड़ बकरी पालन के लिए बड़ा संसाधन है । यह संसाधन खरपतवारों के आक्रमण और चीड़ के अत्यधिक रोपण से नष्ट प्राय: हो चुका है । इसे विकसित करने के लिए लंबे समय चक्र की भी जरुरत नहींहै । खरपतवार नष्ट करके उन्नत घास रोपण से दो वर्ष मेंपरिणाम प्राप्त् हो सकते है । खेती के तरीकों जैविक कृषि और जीरो-बजट खेती की दिशा मेंबढ़ कर खेती को लाभ दायक बनाया जा सकता है । इसके लिए उन्नत किस्म के देशी पशुआेंपर ध्यान देना पड़ेगा साहिवाल, सिन्धी, थारपारकर, गीर, जैसी नस्लें आसानी से ५ से १० किलो दूध दे सकती है ।
जबकि इनकी क्षमता २० से ४० किलो प्रतिदिन पाई गई है । जैविक खेती के लिए देशी नस्लोंका गोबर और गोमूत्र ही उपयोगी है । इनके गोबर मेंसूक्ष्त जीवाणुआें की संख्या यूरोपीय नस्लों के मुकाबले ५० गुना ज्यादा पाई गई है । इसी से यह गोबर जल्दी सड़ता है और अच्छा खाद द ेसकता है । गोमूत्र से भी उत्कृष्ट जीवामश्त खाद बनाई जा सकती है । इनका दूध भी ए-२ किस्म का होता है जो अधिक गुणवत्ता वाला होता है आस्ट्रेलिया मेंयह दूध, दूसरे के मुकाबले दुगनी कीमत पर बिकता है । जिला मेंदूध की खपत काफी है । ट्रकों के हिसाब से दूध और दुग्ध पदार्थ रोज बहार से आ रहे है । इतनी चरागाह भूमि होने के कारण हमें तो दूध निर्यातक क्षेत्र होना चाहिए ।
भेड़ बकरियों के लिए उनके उपयुक्त झाड़ियों वाले वन पनपाने चाहिए । वन-बंधु-योजना में यह काम किया जा सकता था । बकरियों की मांग मांस के लिए लगातार बढ़ रही है । राजस्थान से भी बकरियां लाई जा रही है । यहां बकरी पालन को बढ़ावा देकर सबसे सीमान्त भूमियों पर भी लोगों को लाभकारी व्यवसाय दिया जा सकता है । जिला में ग्रामीण भूमिहीनों की संख्या १४,४५० परिवार है । संभवत: ये सबसे गरीब लोग है इनमें से जो कृषि कार्य में रुचि और योग्यता रखते हों उन्हे गुजारे योग्य भूमि दी जानी चाहिए । शेष भूमिहीनों को कौशल विकास का विशेष लक्षित समूह मानकर प्रशिक्षित किया जाना चाहिए । इसमें कुछ स्वरोजगार से जुड़े कौशल हो सकते है और कुछ व्यवसायिक मांग के अध्ययन के आधार पर चिन्हित किए जा सकते है ।
कृषि क्षेत्र मेंकेवल धान, मक्का, गेहूं तक सीमित नहींरहा जा सकता । छोटी जोतों के चलते यह फसल चक्र गुजारे योग्य आय जुटाने में सक्षम नहीं बचा है । इसीलिए खेत खाली पड़ते जा रहे है । बन्दर और सुअर भी खेती को घाटे की ओर धकेलते जा रहे है । इनका नियन्त्रण करके , कुछ वैकल्पिक नकदी फसलों को फसल चक्र मेंशामिल करना होगा । इस कार्य के लिए उद्यान विभाग, आयुर्वेद विभाग और हिमालयन जैव प्रौद्योगिक संस्थान पालमपुर का संयुक्त कार्यसमूह बनाया जाना चाहिए । इस समूह के हवाले बेमौसमी सब्जी, सुगन्धित एसेंशियल तेल, औषाधीय जड़ी बूटियों के तेल, जड़ी-बूटी खेती, और बागवानी का कार्य सौंपा जा सकता है, जैव प्रौद्योगिकी संस्थान पालमपुर के पास कुछ अच्छी तकनीकें है और कृषि उत्पादोंके प्रसंस्करण द्वारा मूल्य संवर्धन के गुर भी है ।
इनके लिए अलग विशेष परियोजना बनाकर काम हो और इन उत्पादोंकी बिक्री व्यवस्था खड़ी करने का कार्य भी साथ जोड़ा जाए तो वैकल्पिक आय के स्त्रोत पैदा हो सकते है । इस क्षेत्र में ध्यान देने योग्य बात यह है कि कृषि का वैकल्पिक मॉडल मुख्यधारा कृषि पद्धति मेंलागू करने योग्य हो, जिससे कोई बड़ा बदलाव लाया जा सके, ऐसे मॉडल न खड़े किए जाएं जो सीमान्त किसानों की पहुंच से बाहर हो और टिकाउ भी न हों । ऐसा अनुभव हम पौली हाउस खेती में कर चुके है । उपलब्ध तकनीकों के क्षेत्रीय ट्रायल लगाने और नए शोध के लिए बजट उपलब्ध करवाया जाए जिसके अनुभवों के आधार पर आगे बड़े पैमाने पर प्रसार कार्य किया जा सके ।
कृषि उत्पादों के प्रसंस्करण के लिए जगह जगह छोटे-छोटे उद्योग लगाए जाएं । जिसके लिए कुशल कार्यकर्ता स्थानीय स्तर पर तैयार किए जाएं । चम्बा मेंउपलब्ध निश, उत्पादों (जो केवल यहीं हो सकते है) जैसे पांगी की ठांगी (हैजल नट), चिलगोजा, भारमौर के राज माह, और चिलगोजा, मिलेट्स, भटियात की बासमती, के लिए उपयुक्त प्रोत्साहन और बिक्री व्यवस्था की जाए चुराह तहसील और चम्बा के साहो-जडेरा क्षेत्रो के बराबर स्वादिष्ट मक्की मिलना दुर्लभ है । इससे कुछ उत्पाद बनाने के लिए उद्योग तक पंहुचेगा । सीमेंट जैस उद्योगों का तो हल्ला ज्यादा होगा, लाभ तो कुछ समृद्ध लोगों तक ही पंहुच पाएगा । बी.पी.एल श्रेणी के परिवार ट्रक डाल कर कहां कमा पाएंगे उल्टा उनकी कृषि भूमियां और चरागाह संसाधन उनके हाथ से निकल जाएंगे । ***
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