गुरुवार, 15 मार्च 2018

ज्ञान विज्ञान
चंद्रयान द्वितीय : एक महत्वाकांक्षी मिशन
निकट भविष्य में भारत अपना दूसरा चंद्रयान छोड़ने वाला है और यह चंद्रयान प्रथम की तुलना में काफी महत्वाकांक्षी अभियान होगा ।
अव्वल तो यह पहली बार होगा कि कोई यान चंद्रमा के उस हिस्से पर उतारा जाएगा जो पृथ्वी से दिखता नहीं है । यानी जब वह यान चांद पर उतरेगा, उस समय पृथ्वी से नियंत्रित नहीं होगा । दूसरी खास बात यह है कि यह यान चांद की विषुवत (भूमध्य) रेखा के आसपास नहीं बल्कि दक्षिणी धु्रव के निकट उतारा जाएगा ।
यदि यह मिशन कामयाब रहता है तो भारत के लिए भविष्य में मंगल पर उतरना और किसी उल्का पिंड पर उतरना संभव हो जाएगा । भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के अध्यक्ष कैलाशवाडिवू सिवान का कहना है कि चंद्रयान द्वितीय के अवतरण के साथ यह स्पष्ट हो जाएगा कि भारत के पास अन्य आकाशीय पिंडो पर यान भेजने और उतारने की तकनीकी क्षमता है । यह मिशन शुक्र ग्रह की ओर टोही यान भेजने का मार्ग प्रशस्त करेगा । इससे पहले चंद्रयान प्रथम ने चांद पर पानी के अणु की खोज की थी । चंद्रयान द्वितीय पर भी कई सारे वैज्ञानिक अन्वेषणोंकी व्यवस्था की गई है । 
जैसे चंद्रयान द्वितीय का लैंडर चांद की सतह पर प्लाज़्मा का मापन करेगा । प्लाज़्मा आवेशित कणों की एक परत होती है । इसके आधार पर यह समझा जा सकेगा कि चांद की धूल तैरती क्योंरहती है । इसके अलावा लैंडर चांद पर भूकंप (चंद्रकंप) का भी अध्ययन करेगा । 
यदि सब कुछ ठीक रहा तो चंद्रकंपनीयता के अध्ययन के आधार पर यह समझने मेंमदद मिलेगी कि चांद का केंद्रीय भाग किस चीज़ से बना है और क्या वह ठोस है ।
इस २५ किलोग्राम वजनी रोवर उपकरण पर वर्णक्रम मापी लगे है जिनके आंकड़ोंसे चांद की सतह के तात्विक संघटन को समझने मेंमदद मिलेगी । और शायद सबसे महत्वपूर्ण बात यह होगी कि यह एक बार फिर ज्यादा नफासत से पानी का सर्वेक्षण करेगा ।
चीता की रफ्तार में कानों का महत्व
चीता दुनिया में सबसे तेज़ थलचर है । यह किसी भी अन्य थलचर के मुकाबले ज़्यादा रफ्तार से दौड़ सकता है । इसकी लंबी टांगों और ताकतवर मांसपेशियों को ही इसकी रफ्तार का श्रेय दिया जाता रहा है । किंतु अब एक नया अध्ययन बता रहा है कि चीते के आंतरिक कानों में भी कुछ विेशेषता होती है जो उसे तेज़ भागने में मदद करती है ।
कुछ प्राणी वैज्ञानिकों का हमेशा से यह विचार रहा है कि चीते के कानों की रचना में जरुर कुछ खास बात होगी । गौरतलब है कि जंतुआें के आंतरिक कान संतुलन बनाए रखने मेंमददगार होते है और इसी से जंतुआेंको यह अंदाज़ भी लगता है कि वे सीधे खड़े है या नहीं । आतंरिक कान में तीन नलिकाएं होती है जो एक दूसरे के लंबवत होती हैं । इन नलिकाआें में भरे तरल पदार्थ में कुछ क्रिस्टल तैरते रहते है । जब से क्रिस्टल किसी नलिका की दीवार को स्पर्श करते है तो जंतु को अपनी स्थिति का भान होता है । इसे वेस्टिब्यूलर तंत्र कहते है । यह सिर और शरीर की स्थिति के सीधा रखने में, नज़र को सीध में रखने में मददगार होता है । 

शोधकर्ताआें ने साइन्टिफिक रिपोट्र्स में बताया है कि उन्होने बिल्लियों की कई प्रजातियों के आंतरिक कान की त्रि-आयामी छवि निर्मित करके तुलना की । ध्यान देने की बात है कि चीता, बिल्ली समूह का प्राणि है, जैसे तेंदुए, बाघ और घरेलू बिल्ली है । शोधकर्ताआें ने पाया कि चीते का वेस्टिब्यूलर तंत्र आंतरिक कान का एक बड़ा हिस्सा होता है बनिस्बत अन्य बिल्लियों के ।
इसके अलावा उनकी उपरोक्त तीन नलिकाएँ भी थोड़ी लंबी होती है । जैसा कि उपर कहा गया, कान का यही हिस्सा तो सिर की गति व आंख की दिशा को नियंत्रित करता है ।
शोधकर्ता का ख्याल है कि आंतरिक कान की इन्ही विशेषताआें के चलते भागते समय चीता अपना सिर एकदम सीधा रख पाता है जबकि उसका शरीर कुलांचे भर रहा होता है । और तो और, इसी वजह से तेज़दौड़ते हुए भी अपने शिकार पर नज़रे जमाए रखता है ।
शोधकर्ताआें ने यह भी पता किया कि विशाल चीता, जो अब विलुप्त् हो चुका है, में वेस्टिब्यूलर तंत्र इतना विकसित नहीं था । अर्थात यह विशेषता चीतों में हाल ही में विकसित हुई है ।
नई सुरक्षा स्याही विकसित की गई
आए दिन नकली नोट या फर्जी दस्तावेज़ों की खबरें सुनने को मिलती रहती है । शोधकर्ताआें ने एक ऐसी स्याही तैयार कर ली है जिससे नकली नोट, फर्जी दस्तावेज़ों और नकली दवाआें के उत्पादन को रोका जा सकता है ।
जालसाज़ी के कारण दवा कंपनियों और वित्तीय क्षेत्र को काफी नुकसान होता है । इन नुकसान से बचने के लिए फिलहाल कार्बनिक रंजक और अर्धचालक क्वांटम बिंदुआेंका उपयोग करके सुरक्षा कोड विकसित किए जाते है जिन्हें तोड़ पाना मुमकिन नहीं है किंतु कार्बनिक रंजको के साथ दिक्कत यह है कि ये समय के साथ विघटित होते है और क्वाटंम बिंदु विषैले होते है ।

वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सी.एस.आई.आर) की दिल्ली स्थित राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला के वैज्ञानिक बिपिन कुमार गुप्त और उनके साथियोंने बेहतर सुरक्षा स्याही विकसित की है । इस स्याही का इस्तेमाल सुरक्षा कोड विकसित करने के लिए किया जाएगा । दुर्लभ मृदा तत्वोंकी नैनो छड़ों और जिंक और मैग्नीज़ से बने प्रकाश उत्सर्जित करने वाले ठोस पदार्थो के मिश्रण को पोलीमार-आधारित स्याही में मिलाकर इस स्याही को तैयार किया है । यह स्याही कितनी कारगर है इसे जांचने के लिए शोधकर्ताआें ने काले पेपर पर इस स्याही की मदद से खास सुरक्षा कोड प्रिंट करके देखा है । 
इस स्याही से मुद्रित कागज़को जब पेराबैंगनी किरणों और इंफ्रारेड लेसर प्रकाश में रखा जाता है तो यह स्याही लाल और पीला प्रकाश उत्सर्जित करती है । नैनो छड़ें लाल और जिंक और मेग्नीज़ से बने ठोस पीले रंग के प्रकाश का उत्सर्जन करते है ।
इस स्याही का उपयोग करके कुछ चिन्होंके लिए खास काले कागज़ पर सुरक्षा कोड विकसित करने में सफलता मिली है । वैज्ञानिक अब मोबाइल आधारित स्कैनर के लिए सुरक्षा स्याही बनाने की योजना बना रहे है ।
गर्मी बढ़ने के साथ कीड़े सिकुड़ रहे हैं

एक ताज़ा अध्ययन से पता चला है कि पिछले ४५ वर्षोंा में सबसे बड़ा भृंग (बीटल्स) के आकार में २० प्रतिशत की कमी आई है । अध्ययनकर्ताआें का कहना है कि इन कीटों की साइज़ में यह परिवर्तन पूरे इकोसिस्टम को प्रभावित करने की क्षमता रखता है ।
भृंगों की साइज में हो रहे परिवर्तन का अध्ययन कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया विश्वविद्यालय की पारिस्थिकीविद मिशेल त्सेंग और उनके स्नातक छात्रोंने किया है । सबसे पहले उन्होनें शोध साहित्य को खंगालकर यह पता किया कि भंृगों को अलग-अलग तापमान पर पालने का उनकी साइज पर क्या असर होता है । प्रयोगशाला में किए गए ऐसे १९ अध्ययनों में बताया गया था कि कम से कम २२ भृंग प्रजातियों की साइज तापमान बढ़ने पर घटती है । कुल मिलाकर, तापमान प्रति एक डिग्री बढ़ने पर साइज़ १ प्रतिशत कम हो जाती है ।
अब त्सेंग और उनके छात्र देखना चाहते थे कि प्राकृतिक परिवेश में क्या होता है । इसके लिए उन्होनें विश्वविद्यालय में वर्ष १८०० से संरक्षित रखे गए ६ लाख कीट नमूनों का सहारा लिया ।  नमूनों को काई नुकसान न पहुंचे इसलिए उन्होने साढ़े ६ हज़ार से ज्यादा कीटों के फोटो खींचकर उनका अध्ययन किया । ये नमूने ८ प्रजातियों के थे । साइज़का अंदाजा लगाने के लिए उन्होनें कीटों को कठोर पंख आवरण का मापन किया । इस आवरण को एलिट्रा कहते है और यह कीट की साइज़ का ठीक-ठाक अनुमान देता है ।
नाप-तौल करने पर पता चला कि पिछली एक सदी में इन ८ में से ५ प्रजातियों की साइज में कमी आई है । जर्नल ऑफ एनिमल इकॉलॉजी में प्रकाशित शोध पत्र में त्सेंग और उनके छात्रों ने स्पष्ट किया है कि उन्होनें साइज़ पर असर डालने वाले अन्य कारकों पर भी ध्यान दिया है । जैसे बारिश की मात्रा, भोजन की उपलब्धता में उतार चढ़ाव वगैरह । किंतु टीम का मत है कि सबसे अधिक असर तो बढ़ते तापमान की ही दिखता है ।
त्सेंग और उनके छात्रों का कहना है कि कीटों की साइज़में गिरावट के कईमहत्वपूर्ण असर हो सकत है । जैसे छोटे कीट कम पराग कण एकत्र करते है, वे गोबर को निपटाने का काम भी धीमी गति से करते है । इन बातोंका असर अन्य जंतु प्रजातियों पर पड़े बगैर नहीं रहेगा ।
वैसे अन्य शोधकर्ताआें का मत है कि त्सेंग के अध्ययन के आधार पर पक्का नही कहा जा सकता कि साइज़ में गिरावट तापमान बढ़ने के कारण ही हो रही है । दूसरी ओर, मछलियों पर किए गए अध्ययन भी बता रहे है कि पानी का तापमान बढ़ने पर बड़ी मछलियों की साइज़ घटती है ।

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