पर्यावरण समाचार
मालवा का सफेद पिस्सी गेहूं फिर होगा जिंदा
मालवा की बुर्जु पीढ़ी को अपने दौर के खान-पान के साथ गेहूं की एक खास किस्म आज भी याद है । पिस्सी गेहूं की सफेद और स्वादिष्ट रोटियां याद आती है । विदेश से लाल गेहूं आने के बाद खेतोंसे गायब हो चुके पिस्सी को जिंदा करने की बीड़ा कृषि वैज्ञानिकों ने उठाया है । इस गेहूं की खासियतों ने ब्रेड- बिस्किट बनाने वाली बड़ी कंपनियों का ध्यान अपनी ओर खींचा है । उनका मकसद इस गेहूं की गुणवत्ता से अपनी बिक्री बढ़ाना है ।
सन् १९८० के दशक में खाघान्न संकट से निपटने के लिए विदेश से गेहूं मंगवाया गया । उसी के साथ गेहूं की स्थानीय किस्म पिस्सी धीरे-धीरे विलुप्त् हो गई । पुराने लोग पिस्सी गेहूं के आटे के दूध से सफेद रंग, मीठे स्वाद और बासी होने के बावजूद नर्म रहने वाली रोटी के लिए याद करते हैं । ज्वार-बाजरा जैसे मोटे अनाज के उस दौर में इस गेहूं की रोटी खाना अमीरी की निशानी माना जाता था ।
दरअसल इन्दौर-देपालपुर क्षेत्र के खेतोंमें इस गेहूं को प्रमुखता से उगाया जाता था । बीमारियों के प्रति काफी संवेदनशील होने और कम उपज मिलने के कारण भी इसकी खेती बंद हुई ।
इन्दौर स्थित गेहूं अनुसंधान केन्द्र ने पिस्सी गेहूं को फिर खेतों में उतारने लायक बनाने का जिम्मा उठाया है । केन्द्र वैज्ञानिक के मुताबिक इस गेहूं के बीज संरक्षित रखे गए थे । पोषण और क्वालिटी के लिए के लिए इस गेहूं के प्रारंभिक टेस्ट किए गए, जिसमें वह सफल रहा । किसी भी किस्म को तैयार करने से पहले पहला सवाल होता है कि इसे क्यों उगाया जाए ? इसके आटे का एकदम सफेद रंग, पोषण और गुणवत्ता देख देश की बड़ी बिस्किट और ब्रेड कंपनियों ने इसे बेहतर बताया । यानी पिस्सी की उपज से सीधा लाभ किसानों को मिलेगा ।
पिस्सी गेहूं को फिर जिंदा करने के लिए बीजों को करनाल स्थित भारतीय कृषि अनुसंधान केन्द्र के मुख्यालय भेजा गया है । इन्दौर स्थित क्षेत्रीय केन्द्र और मुख्यालय के वैज्ञानिक पिस्सी गेहूं के पुराने बीजों की कमियं दूर करने पर लगभग काम कर रहे है ।
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