सामयिक
उद्योगों से नही मिटेगी गरीबी
अविनाश चन्द्र
गरीबी एवं बेरोजगारी दूर करने के औद्योगिक उपाय लगातार असफल होते जा रहे हैं । हम जितना अधिक उद्योग निर्भर होते जा रहे है उतने अधिक गरीब होते जा रहे हैं और हमारे देश में बेरोजगारी भी लगातार बढ़ती जा रही है ।
गरीबी किसी सरकारी, विदेशी धन या दान से नहीं मिटेगी । वह तो गरीबों को, श्रमिकों को उनकी मेहनत का पूरा हिस्सा मिलने से मिटेगी । उन्हें पूरा हिस्सा तभी मिल सकता है, जब जल, जंगल, जमीन, लघु खनिज का स्वामित्व तथा नियन्त्रण स्थानीय एवं प्राथमिक उत्पादकों श्रमिकों के हाथ में हो । आज तो उस पर कब्जा रखने वाले, अपनेे लिये बड़ा हिस्सा चाहते हैं, और लेते भी हैं ।
उत्पादन के यह प्राथमिक साधन, हवा और पानी की तरह, प्राथमिक उत्पादकों एवं श्रमिकों को मुफ्त मिलने चाहिए केवल तभी श्रमिकों का शोषण मिट सकता है यानी गरीबी दूर हो सकती हैं । जिस घोड़े की पीठ पर हम चढ़े हुए हैं, उससे उतरे बिना शोषण और गरीबी कैसे मिट सकती है ? इसके लिए सारी दुनिया में जमीन तथा प्राकृतिक संसाधनों का नये सिरे से वितरण जरुरी है ।
बेकारी, नौकरी देने से नहीं बल्कियुवाओं को जीवन के अति-बुनियादी वस्तुओं के निर्माण में लगाने से दूर होगी । नौकरी मांगने वालों को अनुत्पादक से उत्पादक बनाना होगा । इससे बेकारी जड़ से दूर हो जाएगी और हमारा देश, जीवन की बुनियादी खाद्य वस्तुओं,तथा वस्त्रों में खाद बीज एवं कीटनाशक दवाओं में, गाय के दूध में ,गांव-गांव में छोटे-छोटे सिंचाई के साधनों में, पीने के पानी में तथा जड़ी -बूटियांे से सम्बद्ध प्राथमिक औषधियों से जीवन पूर्ण स्वावलम्बी भी बन जाएगा ।
औद्योगिक क्रान्ति के तीन ही मुख्य आधार थे, अंहकार युक्त महत्वाकांक्षा अतिलोेभ-अतिभोग से भरी लालसा और व्यापारिक प्रतियोगियों का डर कि वे दुनिया में तमाम जमीनों-जंगलों, प्राकृतिक संसाधनों पर गुलामों की खरीद-बिक्री पर, खदानों पर ,बाजारों आदि पर हमसे पहले कब्जा न कर लें । ऐसे प्रतिस्पर्र्धियों को नष्ट कर देने और अपना एकमात्र कब्जा बना लेने की भावना औद्योगिक क्रान्ति में थी । औद्योगिक क्रान्ति में सत्ता तो थी, लेकिन उसमें शिष्टाचार, लावण्य व माधुर्य का लेशमात्र भी अंश नहीं था । यह कथित क्रान्ति मानवजाति के लिये भयंकर अभिशाप थी और आज भी बनी हुई है । दुनिया की सारी समस्याओं की जड़ और आज के संकट के मूल में यह कथित शैतानी औद्योगिक क्रान्ति और इसके साथ विकसित होने वाला पारम्परिक एवं वर्तमान अर्थशास्त्र है ।
आज दुनिया के सभी देशों में जो संघर्ष प्रधान राजनीति प्रचलन में है, उसके कारण देशों के बीच युद्ध का न होना असंभव है । युद्ध होते ही रहेंगे । दुनिया में अनन्त काल तक भी राजनीति के इस स्वरूप से कभी शान्ति की स्थापना नहीं हो सकती । ऐसी राजनीति जिससे देशों के बीच कभी युद्ध न हो, उस विषय पर अभी शोध किया जाना बाकी है ।
आज का यन्त्रवाद काफी हद तक अमानवीय है । लेकिन हमारी इसी वर्तमान व्यवस्था पर कथित आधुनिक औद्योगिक सभ्यता टिकी है। आज की दुनिया में नवआर्थिक साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद के रूप में विश्व व्यापार संगठन के अन्तर्गत दुनिया के देशों, संसदों और सरकारों को गुलाम बनाता जा रहा है और इससे देशों में टकराव संघर्ष और युद्ध-जैसी स्थिति बनी ही रहती है। गांधी ने छोटी-सी पुस्तक''हिन्द स्वराज्य'' में अमानवीय यन्त्रवाद, साम्राज्यवाद और युद्ध के विरुद्ध बिगुल फूंका था ।
ज्ञातव्य है जब तक ऐसे हालात रहेंगे ''हिन्द स्वराज्य'' सदैव प्रासंगिक रहेगा । पश्चिम के रंग में रंगे हुए हमारे देशी काले अंग्रेजों को इस पर ईमानदारी से शोध-खोज करना चाहिए । वर्ष २००८ में दुनिया के अनेक देशों में खाद्य दंगे हुए थे और अनाज के भण्डार लूटे गये थे । संयुक्त राष्ट्र संघ का भण्डार भी समाप्ति की ओर था । दुनिया की खाद्य समस्या को हल करने हेतु संयुक्त राष्ट्र संघ चिन्तित था ।
विश्व खाद्य एवं कृषि संग ठन के ४०० कृषि वैज्ञानिकों ने तीन वर्षों तक शोध किया और निष्कर्ष निकाला कि अब दुनिया को खाद्य संकट से बचाने का एक ही रास्ता है कि दुनिया भर में खेती भारतीय परम्परा के तौर-तरीकों से की जानी चाहिए । क्योंकि उसी तरह से किया गए उत्पादन के माध्यम से लोगों का स्वास्थ्य ठीक रहेगा, स्थानीय समाज नहीं उजडेग़ा और पर्यावरण का विनाश नहीं होगा । दुनिया में अब सिर्फ खाद्य उत्पादन की नहींं बल्कि इन तीन बातों की भी जरुरत महसूस की जाने लगी है ।
यदि हम ऐसा वैश्वीकरण चाहें जो विश्व के लिये वास्तव में हितकर हो तो वह व्यापारिक नहीं बल्कि सांस्कृतिक वैश्वीकरण ही हो सकता है। इस हेतु सबसे पहले किसानों को शोषण से मुक्त करना होगा । दुनिया के सारी सभ्यताएं परोपजीवी और किसानों के शोषण पर आधारित हैं । अत: सारी दुनिया की लिए शोषण रहित एक नई सभ्यता एवं नये सांस्कृतिक वैश्वीकरण के साथ-साथ जमीनी स्तर पर मानव मुक्ति से दृष्टि की मानवों के स्वतन्त्र भाईचारे एवं संस्कृतियुक्त समुदायों की जरूरत पडेग़ी ।
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