बुधवार, 15 अप्रैल 2015

स्वास्थ्य
विकास और तकनीक ने बनाया देश को स्वस्थ
रेणु भट्टाचार्य 
इस साल की एक बड़ी खोज तब सफल हुई जब एक लकवाग्रस्त व्यक्ति को उसके पैरो पर खड़ा किया जा सका । यह तकनीक और चिकित्सा का अद्भुत संगम था । वैसे भी पिछले साल रोबोटिक्स, पहनने योग्य टेक्नोलॉजी, शल्य चिकित्सा तथा सूचना प्रौद्योगिकी ने मिलकर कई कमाल किए । एक तो यही था कि उन्होंने एक ऐसी बांह का निर्माण किया जो ने सिर्फ सामान्य हाथ की तरह किसी भी चीज को पकड़ सकती है बल्कि उस वस्तु को महसूस भी कर सकती है । 
मामला यही खत्म नहीं  होता । वास्तव में यह हाथ दिमाग के इशारे पर हरकत करने में भी सक्षम है । भले उतनी तत्परता के साथ नहीं जितना की वास्तविक हाथ करता है पर इतनी सफलता भी आश्चर्य पैदा करने के लिए काफी है । 
मलेरिया की जांच खून के करने की विधि का आना एक बड़ी घटना रही । खास तौर पर इसलिए कि इस जांच के लिए किसी विशेषज्ञ, रसायन, मशीन और खून की जरूरत न होने से इस उपकरण की सहायता से कोई आम व्यक्ति किसी सुदूर गांव में भी मलेरिया की जांच महज चमड़ी के ऊपर से ही कर सकता    है । इसे वेपर नैनो बबल्स तकनीक कहते हैं । 
इसके अलावा दर्जन भर ऐसे उपकरण इस साल ईजाद हुए जिनकी सहायता से गरीब देशों में सस्ती लागत और बिना बिजली के बहुत-सी चिकित्सा जांच की जा सकती है । इस साल कई अचरज भरे चिकित्सा उपकरण और प्रयोग सामने आए तो अनेक ऐसे शोध और उसके बाद बने उपकरण या यंत्र जो वास्तव में मानव जीवन को बेहतर बनाने के लिए बेहद आवश्यक थे । 
भारत पोलियो मुक्त 
स्वास्थ्य के क्षेत्र में पिछले साल भारत को पूरी तरह पोलियो मुक्त मान लिया गया । यह एक बड़ी सफलता  थी । लेकिन दवा प्रतिरोधी टीबी के साथ हुई लड़ाई में       हमारे प्रगति बेहद धीमी रही । मलेरिया और डेंगू से भी हमारी लड़ाई कतई प्रभावी रहीं नहीं । मस्तिष्क ज्वर कई दशकों बाद आज तक भारतीय चिकित्सकों के काबू में नहीं आया । इस साल भी इसके इससे कई मौतें हुई । सुपर बग का कोई तोड़ इस साल भी हम नहीं ढंूढ   सकें । मिनटों में नसबंदी करने के चक्कर में, सही दवा की बजाय चूहा मारने वाली दवा खिला देने से और मोतियाबिंद निकालने में कइयों को अपनी जान और अपनी आंख गंवानी पड़ी । इससे भारतीय स्वास्थ्य व्यवस्था और दवा निर्माण की वैश्विक किरकिरी हुई । 
इबोला जांच किट
सब कुछ बुरा हुआ ऐसा नहीं था । पिछले साल सरकार ने अंतत: पेटेट मिल चुकी दवाआें और चिकित्सा उपकरणों की कीमत को विनियमित कर विभिन्न गंभीर रोगों से ग्रस्त मरीजों को राहत प्रदान करने की दिशा में एक कदम बढाया । आयुष यानी आयुर्वेद, योग, सिद्ध, होमियोपैथी तथा प्राकृतिक चिकित्सा को बढ़ावा देने के कुछ सकारात्मक संकेत दिए । भारतीय शल्य चिकित्सकों ने देश में ही विदेश में भी झण्डा गाड़ा । कई ने अपने अध्ययन, शोध और तकनीकी से पूरे विश्व को प्रभावित किया लेकिन यदि समग्रता में देखा जाए तो देश और व्यवस्था की कसौटी पर देश में  सेहत के क्षेत्र में सुस्ती ही ज्यादा दिखी । 
लेकिन शेष विश्व में विज्ञान की गति कितनी तीव्र है यह बात भी पता चली इबोला की बीमारी जब महामारी बन फैली तो न सिर्फ मरीज की लार और थूक से महज १५ मिनटों में जांच की किट बन गई बल्कि वैक्सीन भी चंद महीनों में तैयार कर लिया गया । साथ ही दूसरी तरह की दवाइयां, टीके और यहां तक कि इबोला के लिए सूंघकर लेने वाली दवाई भी बन गई । ये दवाइयां अभी परीक्षण के दौर में हैं, मगर यह तो तय है कि इतनी शीघ्रता के साथ शोध, विकास, परीक्षण और प्रयोगात्मक स्तर तक उसका निर्माण तथा दवाआें के नियामकों से उसकी सैद्धांतिक स्वीकृति इस बात के गवाह है सब कुछ बहुत तेजी से हो सकता है । 
भारत मेंभी एक इबोला मरीज पाया गया । सौभाग्य से इबोला के वायरस उसके वीर्य में पाए गए जो कुछ हफ्ते बाद अपने आप नष्ट हो जाते हैं और यह उतना संक्रामक नहीं होता जितना लार या खून में पाया जाने वाला वायरस । 
पिछले साल स्वास्थ्य के क्षेत्र के सबसे बड़े संकट को सुलझाने के बारे में भी तमाम कोशिशें हुई । कहने को परिणाम भी निकले      पर इस मामले में विज्ञान इतनी  तेजी नहीं दिखा सका और किसी  ठोस और व्यावहारिक नतीजें के लिए अभी इंतजार करना पड़ेगा । यह क्षेत्र है कोई नया और प्रभावी एंटीबायोटिक ढूंढने का । टीबी ही नहीं जीवाणु जनित कई बीमारियों के बैक्टीरिया मौजूदा एंटीबायोटिक के प्रति प्रतिरोधी हो चुके है । आशंका है कि भविष्य में यह वैश्विक तौर पर अकल्पनीय संकट बन सकता   है । नए एंटीबायोटिक की तलाश में वैज्ञानिक समुद्र की तलहटी से मरूस्थल और दुर्गम पहाड़ियों तक जा रहे हैं । हालांकि घोड़े के पिछवाड़े यानी उसकी लीद से मिला बैक्टीरियारोधी रसायन कुछ सफल माना जा रहा है । पर इस तरह की दर्जन भर सूचनाएं है मगर इस्तेमाल मेंआ सकने लायक नया एंटीबायोटिक कोई नहीं । इसी समस्या का हल जीन को संपदित करने की प्रक्रिया में भी खोजा जा रहा है । 
स्टेम सेल के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति ने इस साल दूसरे सभी क्षेत्रों पर अपनी बढ़त बनाए रखी । तमाम दूसरे अंगों के साथ-साथ मेरूरज्जू या स्पाइनल कार्ड बनाने में सफलता पा ली जो इस क्षेत्र में मील का पत्थर कहा जा सकता है । बायेनिक आई का विगत एक दशक से इंतजार हो रहा था पर व्यावहारिक तौर पर इसे देखने का अवसर इसी साल मिला । वैज्ञानिकों का दावा यह भी है कि उन्होनें कृत्रिम रेटिना सफलतापूर्वक तैयार कर लिया है । कार्बन नैनो ट्यूब की मदद से वैज्ञानिक आंख का पर्दा बना कर इस साल पेश कर चुके हैं । 
नेत्रहीनों के लिए यह साल नई रोशनी लेकर आया तो बधिरों के लिए एक भारतीय वैज्ञानिक ने बायोनिक कान विकसित किया जिसे बिना किसी बड़े ऑपरेशन के लगाया जा सकता है । यह विदेशी इम्प्लांट के मुकाबले न केवल सस्ता है बल्कि टिकाऊ भी है । अमेरिकी वैज्ञनिकों ने बधिरों के लिए एक पहने जाने वाली टेक ईजाद की है । आंख और कान के अलावा इलेक्ट्रॉनिक नाक भी इसी साल विकसित होकर सबके सामने आई है । 

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