कविता
लोभ का दुर्योधन
आनंद बिल्थरे
गगन चुंबी पहाड़
झूमते-गाते, पेड़-पौधें
शर्मीली हवा
थिरकती न दिया,
सब कुछ तो
ेंमुक्त हस्त से दिया है
प्रकृति ने हमारे लिये
कि हम पले, बढ़े
उन्नति करें,
मनुषत्व को
देवत्व के
सोपान त्तक पहुंचाये
लेकिन हमारे भीतर बैठा,
मद लोभ का दुर्योधन,
हमें किसी करवट,
चैन, नहीं लेने देता,
कृष्ण-विदुर की सीख भी,
बेमानी है, उसके लिये
वह सिर्फ
स्वार्थी प्रंपंची,
शकुनियों के मार्गदर्शन में,
पहाड़ तोड़ता,
पेड-पौधे काटता
गंदगी फैलाता,
जहर उगलता,
प्रकृति को ही,
निर्वस्त्र नहीं करता,
समूची आदमियत की,
जड़ो में,
मठा डालता हुआ,
उसे भी लाश में,
बदलने की
चेष्टा कर रहा है ।
लोभ का दुर्योधन
आनंद बिल्थरे
गगन चुंबी पहाड़
झूमते-गाते, पेड़-पौधें
शर्मीली हवा
थिरकती न दिया,
सब कुछ तो
ेंमुक्त हस्त से दिया है
प्रकृति ने हमारे लिये
कि हम पले, बढ़े
उन्नति करें,
मनुषत्व को
देवत्व के
सोपान त्तक पहुंचाये
लेकिन हमारे भीतर बैठा,
मद लोभ का दुर्योधन,
हमें किसी करवट,
चैन, नहीं लेने देता,
कृष्ण-विदुर की सीख भी,
बेमानी है, उसके लिये
वह सिर्फ
स्वार्थी प्रंपंची,
शकुनियों के मार्गदर्शन में,
पहाड़ तोड़ता,
पेड-पौधे काटता
गंदगी फैलाता,
जहर उगलता,
प्रकृति को ही,
निर्वस्त्र नहीं करता,
समूची आदमियत की,
जड़ो में,
मठा डालता हुआ,
उसे भी लाश में,
बदलने की
चेष्टा कर रहा है ।
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