बुधवार, 15 अप्रैल 2015

कृषि जगत 
किसानों और खेती को बचाने का यत्न
विवेकानंद माथने
कृषि प्रधान भारत में ६० प्रतिशत से अधिकलोग कृषि आधारित जीवन जीते हैं, उसी देश में खेती-किसानी दीर्घकाल से गंभीर संकटमय स्थिति से गुजर रही है । हर प्रदेश में किसान आत्महत्या कर रहे हैं । फिर चाहे वह वर्षा आधारित खेती करनेवाला विदर्भ का किसान हो या सिंचाई खेती करने वाला पंजाब का जो जी रहे हैं, उन्हें जीवन मृत्यु से भी कठिन लग रहा है । 
देश के ७७ प्रतिशत ऐसे लोेग प्रतिदिन २०रु से कम आमदनी प्राप्त करते है, उसमें अधिकतम संख्या किसान और खेती मजदूरों की ही है । सन १९९१ से नई आर्थिक नीति लागू होने और विश्व व्यापार संगठन के अनुकूल नीतियांं बनाई जाने से स्थिति लगातार गंभीर बनती जा रही है । वर्तमान में खेती-किसानी पूर्णत: उपेक्षित हो चुकी हैं ।
नीति निर्धारकों की खेती संबंधी नीतियों के कारण कृषि उत्पाद का सही मूल्य नहीं मिल पाता । खेती के सभी इनपुट बीज ,खाद् कीटनाशक, बिजली, पानी, सिंचाई के  उपकरण आदि को बाजार के और कंपनियों हवाले कर दिया है और उनकी कीमतें तय करने के अबाध अधिकार भी उन्हें सौंप दिए गए हैं । दूसरी तरफ, किसानों की फसलों के  दाम गिरा दिए जाते हैं, समर्थन मूल्य का खेल खेला जाता है । मुनाफा तो दूर की बात है समर्थन मूल्य उत्पादन खर्च से भी कम रखा जाता है, जिससे किसानों को उनके मेहनत का मूल्य नहीं मिल पाता । कृषि उपज के दाम गिराने के लिये आयात निर्यात ड्यूटी घटाने-बढ़ाने का काम किया जाता है । 
बौद्धिक संपदा अधिकार के  नाम पर किसानों को ज्ञान-विज्ञान व तंत्रज्ञान से वंचित रखकर लूटा जाता है । खेती से गाय-बैल को बाहर करने की नीति अपनाई गयी है। सब्सिडी और कर्जमाफी की राजनीति की जाती है । नीति निर्माताओं का यह तर्क अजीबो-गरीब है कि, किसानों को कृषि उपज के न्यायपूर्ण दाम दिये गये तो मंहगाई बढ़ेगी । यह नीति किसानों के अलावा कहीं और क्यों नहीं लागू होती । उद्योगपतियों को अपने उत्पादन को मूल्य तय करने और उस पर मनमाना मुनाफा वसूलने की पूरी तरह छूट है । देश में सरकारी नौकरों के लिये अलग नियम हैं और किसान मजदूरों के लिये अलग । नौकरों के लिये एक के बाद एक वेतन आयोग बिठाया जाता है और किसानों को उनके मेहनत का सही मूल्य भी प्राप्त नहीं होने दिया जाता । देश में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों को भी किसान से कई गुना अधिक मेहनताना मिलता है और साथ में भविष्य की सुरक्षा भी ।
भारत में पारंपरिक बीजों को नष्ट करने का कार्य चल रहा है। रासायनिक खेती को सब्सिडी माध्यम से बढावा देकर जैवविविधतापूर्ण भारतीय पारंपारिक खेती पद्धति को नष्ट करने का काम किया गया । खेती को जानबूझकर घाटे का सौदा बनाया गया है। खेती किसानी और किसानों को बाजार के चक्रव्यूह में फंसाया गया है । इससे किसानों की हालत लगातार बिगड़ती जा रही है । कार्पोरेट फार्मिग की शुरुआत हो चुकी है । पानी और सिंचाई व्यवस्था निजी हाथों में सौंपी जा रही है। बिजली के निजीकरण से किसानों को सिंचाई के लिये और ज्यादा कीमत देनी पड़ेगी । ग्लोबल वार्मिग का संकट बढ़ रहा है । जैवविविधता नष्ट हो रही है ।
किसानों के अस्तित्व को बनाने रखने, सम्मानपूर्ण जीवन प्रदान करने के लिए देश के सभी किसान आंदोलन के संघर्षशील साथी चिंतक इकट्ठा बैठकर जीवन पद्धति और शाश्वत विकास की राह निर्धारित करें । 

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