बुधवार, 15 अप्रैल 2015

विज्ञान जगत 
नित नए रूपों में खिलती धरती 
माधव गाडगिल
नए-नए संसाधनों का उपयोग सीखते हुए, नए-नए पारिस्थितक तंत्रों में प्रवेश करते हुए विस्तारवादी जीवजगत की उत्पादकता की विविधता का स्तर लगातार बढ़ता गया है । 
वर्षा ऋतु समय पर नहीं आती है तो हम सब चिंतित हो जाते हैं । ऐसा उस वर्ष विशेष रूप से होता है । जिसे एल-नीनो वर्ष कहते हैं । जब एल-नीनो नहीं होता है तब दक्षिणी अमेरिकी देश पेरू के पश्चिम में प्रशांत महासागर का पानी ठंडा होता है क्योंकि उस समय सागर की गहराई में स्थित ठंडा पानी सतह पर आ जाता है । इस ठंडे पानी के साथ समुद्र के पेंदे पर जमे हुए पोषक पदार्थ भी ऊपर आ जाते हैं । इनके कारण समुद्री वनस्पति का उत्पादन बहुत बढ़ जाता है । 
इन पौधों को खा-खाकर समुद्री झींगों की संख्या बढ़ जाती है, जिन्हें खाकर मछलियों की संख्या बढ़ जाती है । फिर मछलियों को खाने वाले समुद्री पक्षी और मनुष्य इन मछलियों का खूब शिकार करते हैं । समुद्री टापुआें पर पक्षियों की बीट इकट्ठी होती जाती जिसमें फॉस्फोरस बहुत होता है और पेरू के निवासी इसे खाद के रूप मेंबेचकर अच्छी-खासी कमाई कर लेते हैं । 
किंतु एल-नीनो के वर्ष मेंयह पूरा चक्र बिखर जाता है और पेरूवासी दुख मेंडूब जाते हैं । पेरूवासी ही नहीं, हम भारतवासियों को भी झटका लगता है क्योंकि सागर ओैर वायुमंडल के आपसी सम्बंध इतने दूर-दूर तक होते हैं कि एल-नीनो के वर्ष में कई बार भारत में भी कम वर्षा की स्थिति बन जाती हैं । 
तो ऐसी हैं दूर-दूर तक जुड़े हुए प्राकृतिक चक्रोंकी लीला । इस चक्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले, प्रकाश की ऊर्जा का उपयोग कर सकने वाले, सीधे-सादे सायनोबैक्टीरिया पूरे साढ़े तीन अरब वर्ष पहले पृथ्वी पर प्रकट हुए थे, जबकि आज के मत्स्याहारी पनकौए यानी कार्मोरान्ट मात्र पन्द्रह-बीस करोड़ वर्ष पहले ही अवतरित हुए है । इस लम्बी अवधि में जीवजगत की विविधता फलती-फूलती रही है, विभिन्न पारिस्थितिक तंत्रों में ऑक्सीजन और फॉस्फोरस जैसे पदार्थो और ऊर्जा के चक्र अधिकाधिक समृद्ध होते रहे हैं । 
यह सब संभव हो पाता है प्राकृतिक चयन की प्रक्रिया के  कारण । कुछ नया, अनोखा कर गुजरने की क्षमता ही प्राकृतिक चयन में सफलता की कुंजी है । ऊर्जा के नए स्त्रोतों का दोहन, नए-नए पारिस्थितिक तंत्रों में स्वयं को ढाल लेना, नई चीजों को आहार में शामिल करना, दुश्मनों से बचाव के लिए नए हथियारों, दांव-पेंचों का उपयोग करना इन सबके उदाहरण प्रशांत महासागर के अतीत में देखे जा सकते है ।
पौने चार अरब वर्ष पहले समुद्र की गहराइयों में ऐसे जीव प्रकट हुए जो हाइड्रोजन, लौह, गंधक के यौगिकों के अणुआेंकी ऊर्जा का दोहन कर सकते थे । इसका ठोस सबूत तो हमारे पास नहीं है, किन्तु यह निश्चित है कि साढ़े तीन अरब वर्ष पहले प्रकाश को ऊर्जा का स्त्रोत बना सकने वाले सायनोबैक्टरीया फलने-फूलने लगे थे । उनके लसलसे आवरण पर चिपकी हुई रेत के कारण उनके जीवाश्म आज भी मिलते हैं । 
उस शुरूआती दौर में डीएनए के लिए हानिकारक पराबैंगनी किरणें एक बड़ी चुनौती थी । उस समय वातावरण में ऑक्सीजन बहुत कम थी और पराबैंगनी किरणों को सोखने की क्षमता वाली ओजोन भी नहीं थी । किन्तु पानी पराबैंगनी किरणों को अच्छी तरह सोख लेता है । अत: ऐसी गहराई में प्रकाश की ऊर्जा का दोहन संभव था जहां पराबैंगनी किरणों से मुक्त पर्याप्त् प्रकाश पहुंचे । ऐसे ही स्थानों पर सायनोबैक्टीरिया फलने-फूलने लगे । इनके साथ ही पानी पर तैरने वाले सायनोबैक्टीरिया और अन्य क्लोरोफिलयुक्त बैक्टीरिया भी मौजूद रहे होंगे । इनके उत्पादन के कारण समुद्र के पेंदे में काफी मात्रा में कार्बनिक गाद इकट्ठी हो गई होगी और नाना प्रकार के बैक्टीरिया इन अवशेषों पर बसर करने लगे होंगे । इस सरल तंत्र ने धीरे-धीरे बदलते हुए पहले तीन अरब वर्ष तक अपनी सत्ता को निरन्तर बनाए रखा और आज भी अधिक उन्नत जीवधारियों के साथ-साथ आधुनिक पर्यावरणों का एक भाग बना हुआ है । 
इन क्लोरोफिलयुक्त बैक्टी-रिया के द्वारा ऑक्सीजन के उत्पादन के कारण हवा और पानी में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ती गई और जीवजगत के इतिहास में रंग भरने लगा । शर्करा सभी जीवधारियों की ऊर्जा की मुद्रा है । ऑक्सीजन का उपयोग किए बिना ग्लूकोज के एक अणु से जितनी ऊर्जा मिल सकती है उससे पन्द्रह गुना ज्यादा ऊर्जा तब मिलती है जब ऑक्सीजन का उपयोग किया जाए । 
मगर ऊर्जा के दोहन में ऑक्सीजन का उपयोग करने के लिए नई रासायनिक मशीनरी की आवश्यकता थी । जैव विकास की धारा में ऐसी मशीनरी बन गई । और अच्छी मात्रा में ऊर्जा उपलब्ध होने से बैक्टीरिया से बहुत बड़े आकार के और अधिक जटिल संरचना वाले वनस्पति, जंतु, फफूंद बनने की राह आसान हो गई । ये एक कोशिकीय जीवधारी चाबुकनुमा तंतुआें की मदद से पोषक पदार्थ के कणों को अपनी ओर खींच सकते थे । यही नहीं, कुछ जंतु तैर सकते थे और बैक्टीरिया, वनस्पतियों और अन्य जंतुआें का शिकार भी कर सकते थे । 
यह जरूर है कि इन जीवधारियों के शरीर नरम होने के कारण इनके जीवाश्म नहीं बनते और इसलिए इनके अस्तित्व का कोई प्रमाण आज मिल नहीं सकता । अत: हमारे पास आज जो मजबूत प्रमाण है वह केवल पिछले साठ करोड़ वर्षो का है । इस अवधि में बहुकोशिकीय जंतु अवतरित हुए जिन्होंने बड़े शरीरों की सुरक्षा के लिए अपने शरीरों को कांटो से भर लिया, कंकालबना लिए, शरीर के बाहर सुरक्षा कवच चढ़ा लिए । इन कवचों कंकालों को बनाने के लिए नई-नई जैव रासायनिक मशीनरियों का आविष्कार हुआ । 

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