मंगलवार, 15 अप्रैल 2008

९ स्वास्थ्य जगत

गरीब बनाती स्वास्थ्य सेवाएं
डॉ. राम प्रताप गुप्त
विश्व बैंक यह कह रहा है कि भारत में चिकित्सा की ऊंची लागतों के कारण २ प्रतिशत आबादी प्रतिवर्ष गरीबी रेखा के नीचे जाने के बाध्य हो रही है । अर्थात सिर्फ स्वास्थ्य सेवाआें के कारण प्रतिवर्ष २ करोड़ आबादी गरीबी रेखा के नीचे पहुंचती जा रही है । भारत में स्वास्थ्य पर निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्र में कुल राष्ट्रीय आय के ६.१ प्रतिशत (सार्वजनिक क्षेत्र के माध्यम से मात्र १.३ प्रतिशत ही खर्च होता है) के बराबर खर्च किया जाता है । यह तीसरी दुनिया के और मध्यम आय वाले अधिकांश राष्ट्रों की तुलना में अधिक है । इसके बावजूद शिशु मृत्यू दर एवं औसत आयु जैसे स्वास्थ्य मापदण्डों पर भारत की उपलब्धियां निम्नस्तरीय हैं । उदाहरण के लिए श्रीलंका एवं बांग्लादेश स्वास्थ्य पर राष्ट्रीय आय का मात्र ३.१ प्रतिशत अर्थात भारत की तुलना में आधा ही खर्च करते हैं । इसके बावजूद वहां शिशु मृत्युदर भारत ६३ की तुलना में क्रमश: १३ और ४६ हैं पाकिस्तान स्वास्थ्य पर राष्ट्रीय आय का ३.२ प्रतिशत ही खर्च करता है इसके बावजूद वहां शिशु मृत्युदर भारत से थोड़ी कम ही है । प्रश्न यह है कि जब भारत स्वास्थ्य पर राष्ट्रीय आय का अधिक भाग खर्च करता है फिर भी उसकी स्वास्थता के क्षेत्र में उपलब्धियां निम्नस्तरीय क्यों है ? अधिक व्यय के बावजूद निम्नस्तरीय उपलब्धियों के लिए जब जिम्मेदार कारकों की तलाश की जाती है तो जो प्रमुख कारण उभर कर सामने आता है वह यह है कि भारत में कुल स्वास्थ्य व्यय में सार्वजनिक क्षेत्र का हिस्सा अन्य राष्ट्रों की तुलना में बहुत कम है । भारत के कुल स्वास्थ्य व्यय में सार्वजनिक व्यय का हिस्सा मात्र २० प्रतिशत ही है । विश्व के मध्यम और निम्न आय वाले राष्ट्रों में स्वास्थ्य व्यय का विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि जैसे-जैसे कुल स्वास्थ्य व्यय में सार्वजनिक क्षेत्र का हिस्सा बढ़ता जाता है, स्वास्थ्य सेवाआें की उपलब्धियां बेहतर स्तर की होती हैं और भारत के स्वास्थ्य व्यय में सार्वजनिक क्षेत्र का हिस्सा विश्व के १७७ राष्ट्रों मे से केवल ८ को छोड़कर सबसे कम है । भारत मेें कुल स्वास्थ्य व्यय में सार्वजनिक क्षेत्र के हिस्से के अत्यंत कम होने का परिणाम यह हुआ है कि ग्रामीणों और गरीबों तक उनकी समुचित पहंंुच बन ही नहीं पाई । तृतीय राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़ों से पता चलता है कि बाह्य रोगियों में से केवल २० प्रतिशत और आंतरिक रोगियों में से ४० प्रतिशत ही सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाआें का लाभ लेते हैं, अन्य निजी क्षेत्र का आसरा लेने को बाध्य होते हैं और उनमें व्याप्त् गलत प्रक्रियाआें का शिकार होते है । अनेक सर्वेक्षणों में प्राप्त् आंकड़ें बताते है कि निजी चिकित्सक आवश्यकता से अधिक दवाएं लिखते है एवं अनावश्यक जांचे करवा कर, रोगियों को आकर्षित करने की दृष्टि से शानदार भवन बनाकर, अनावश्यक महंगे उपकरण लगाकर चिकित्सा सेवाआें की लागत में भारी वृद्धि कर देते है । सार्वजनिक अस्पतालों में भी रोगियों को दवाआें के व्यय, जांचों, डाक्टरों की फीस आदि पर भी खर्च करना पड़ जाता है ऐसे में गरीबों की निजी एवं सार्वजनिक दोनों क्षेत्रों की स्वास्थ्य सेवाआें के गरीबों के लिए उनकी पहुंच के बाहर होने का परिणाम यह हो रहा है कि गरीबोंने स्वास्थ्य संबंधी छोटी मोटी तकलीफो को तो महसूस करना ही छोड़ दिया है । राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़े बताते हैं कि उच्च् आय वर्ग के लोगो से जब रूग्णता के बारे में पूछा जाता है तो वे गरीबों की तुलना में अपने आपको अधिक रूग्णता शिकार बताते हैं । देश के १८-२० प्रतिशत लोग तो ऐसे हैं जिन्हें मृत्यु पूर्व तक समुचित स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध नहीं हो पाती हैं । गरीब न केवल किसी प्रकार की भी स्वास्थ्य सुविधाआें तक अल्प पहुंच के शिकार तो होते ही हैं साथ ही जब भी वे स्वास्थ्य सुविधाआें का उपयोग करते हैं तो उन पर भारी व्यय उन्हें ऋणग्रस्त बना देती है । पिछले कुछ वर्षोंा में आम आदमी की ऋणग्रस्तता के पीछे के कारणों में चिकित्सा पर भारी व्यय प्रमुख कारण बन कर सामने आया है । भारतीय चिकित्सा सेवाएं अन्य विकृतियों का शिकार होने से भी ऊंची लागत वाली बन रही है । देश में प्रति हजार आबादी पर चिकित्सकों की संख्या एक और नर्सोंा की संख्या ०.९ ही है जबकि इन दोनों में विश्व औसत क्रमश: १.५ और ३.३ है । अर्थ यह हुआ कि भारत में चिकित्सकों की तुलना में भी नर्सोंा की संख्या विश्व औसत से काफी कम है । परिणामस्वरूप जो सेवाएं नर्सेंा आसानी से दे सकती है उनका भार भी चिकित्सकों पर आ पड़ता हैं और उन पर अनावश्यक दायित्व आ पड़ने से उनकी कुशलता कम हो जाती है । जिसका खामियाजा अंतत: मरीज को ही उठाना पड़ता है । आजादी के बाद भारत में मेडिकल कालेजों की स्थापना तो हुई परंतु चिकित्सकेतर कर्मचारियों के प्रशिक्षण संबंधी सुविधाआें के बढ़ाने पर कोई ध्यान नहीं दिया गया । उदारीकरण के बाद निजी क्षेत्र के मेडिकल कालेज की बाढ़ सी आई परंतु चिकित्सकेतर कर्मचारियों की प्रशिक्षण सुविधाआें में अपेक्षित वृद्धि नहीं होने से स्वास्थ्य मानव शक्ति का ढांचा विकृत हो गया है । चिकित्सकों द्वारा ही चिकित्सकेतर कर्मचारियों द्वारा दी जाने वाली सेवाएं दिए जाने से उनकी लागत में वृद्धि नहीं होने से स्वास्थ्य मानव शक्ति का ढांचा विकृत हो गया है । चिकित्सकों द्वारा ही चिकित्सकेतर कर्मचारियों द्वारा दी जाने वाली सेवाएं दिए जाने से उनकी लागत में वृद्धि स्वाभाविक ही है । आजादी के पूर्व भारत में चिकित्सा का त्रिवर्षीय पाठ्यक्रम, एल.एम.पी. भी था और कुल चिकित्सकों की संख्या का दो तिहाई भाग एल.एम.पी. चिकित्सक भी अपेक्षाकृत सस्ते होते थे और गरीबों की उन तक आसान पहुंच भी । आजादी के बाद उस पाठ्यक्रम को समाप्त् कर दिया गया । अब चिकित्सक मात्र एम.बी.बी.एस की डिग्री लिए हुए भी होता है । प्राथमिक चिकित्सा का जो दायित्व आसानी से तीन वर्षीय पाठ्यक्रमवाले चिकित्सक संपादित कर सकते है, वे कार्य जब एम.बी.बी.एस. एवं स्नातकोत्तर शिक्षा प्राप्त् चिकित्सकों द्वारा संपादित किए जाते हैं तो उनका महंगा होना स्वाभाविक है । ऐसे में बिहार सरकार ने एल.एम.पी. का त्रिवर्षीय पाठ्यक्रम पुन: शुरू कर एक प्रशंसनीय कार्य किया है । यह इस गरीब राज्य में चिकित्सा व्यय में कमी लाने का प्रशंसनीय कार्य भी करेगा । चिकित्सा सेवाआें की उपलब्धता की दृष्टि से भारत में भारी क्षेत्रीय विषमताएं भी पाई जाती है । जो राज्य गरीब हैं उनमें कुपोषण एवं रक्त की कमी के कारण बीमारियों का प्रभाव अधिक होता है । अतएव उनमें सार्वजनिक सुविधाआें की उपलब्धता भी अधिक होनी थी । परंतु स्थिति इसमें ठीक विपरीत है । उदाहरण के लिए सन् १९९५-९६ में बिहार और मध्यप्रदेश में सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाआें पर क्रमश: ५७ और ६६ रू. प्रति व्यक्ति खर्च किए जाते थे वहीं केरल और पंजाब में यह आकार १३२ रू. एवं १२३ रू. अर्थात दुगुना था । केन्द्र सरकार को चाहिए था कि गरीब राज्यों को स्वास्थ्य सुविधाआें के लिए अधिक सहायता देकर गरीब एवं सम्पन्न राज्यों के मध्य की खाई को कम करती परंतु आंकड़े बताते हैं कि केन्द्र से प्राप्त् राशि गरीब राज्यों में कम और सम्पन्न राज्यों में अधिक होती है । इससे जहां स्वास्थ्य उपलब्धियों की दृष्टि से क्षेत्रीय विषमताआें में वृद्धि हो रही है । वही गरीब राज्यों का स्वास्थ्य मापदण्डो पर निम्न स्तर भारतीय औसत को भी प्रतिकूल प्रभावित कर रहा है । गरीब राज्यों की निम्न स्तरीय उपलब्धियों का ही परिणाम है कि विश्व आबादी में भारत के हिस्से १६.७ प्रतिशत की तुलना में तपेदिक से होने वाली मौतों में भारत का हिस्सा २८ प्रतिशत, टिटनेस में ४० प्रतिशत मीजल्स में २१.४ प्रतिशत और दस्त संबंधी रोगो में यह ३२.५ प्रतिशत है । ये सारे आंकड़े स्वास्थ्य के क्षेत्र में भारत की दयनीय स्थिति को उजागर करते हैं । भारत की स्वास्थ्य सेवाएं नाना प्रकार की विकृतियोें जैसे अत्यधिक निजीकरण व गरीबों की पहुंच के बाहर, निजी चिकित्सकों द्वारा अनावश्यक दवाएं लिखने तथा जांचे करवाने आदि की शिकार हैं । स्वास्थ्य सुविधाआें में क्षेत्रीय विषमताआें को कम करने के स्थान पर इन्हें बढ़ाने में मदद कर रही है । इन सब विकृतियों का ही परिणाम है कि राष्ट्रीय आय के प्रतिशत के रूप में स्वास्थ्य व्यय के काफी ऊंचे स्तर के बावजूद विभिन्न बीमारियों से होने वाली मौतों में भारत का हिस्सा विश्व आबादी में उसके हिस्सा विश्व आबादी में उसके हिस्से की तुलना में कही अधिक है । स्वास्थ्य की उपेक्षा के कारण भारतीय आबादी की गुणवत्ता पर पड़ने वाली प्रतिकूल प्रभावो की वर्तमान में नही, भविष्य में भी भारत को भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। निम्नस्तरीय स्वास्थ्य भारत की गुणवत्ता को प्रतिकूल प्रभावित कर उसकी उत्पादकता को कम कर विकास दर को भी निम्नस्तरीय बना रहा है ।या यो कहें कि भारत की मानव सम्पदा की निम्न स्तरीय गुणवत्ता के चलते वर्तमान ऊंची विकास दर की निरंतरता संदेह में है ।**

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