सोमवार, 14 अप्रैल 2008

७ पर्यावरण परिक्रमा

पक्षियों की गतियां बहुत नियमित नहीं हैं
पहले कुछ अध्ययनों से संकेत मिले थे कि भोजन की तलाश करते समय पक्षी तथा बंबल बी व हिरन जैसे प्राणी कोई बहुत ही पेचीदा व नियमबद्ध रणीनीति अपनाते हैं । नए शोध से पता चलता है कि इस संदर्भ में पक्षियों व अन्य प्राणियों के बारे में निकाले गए निष्कर्ष संभवत: गलत हैं । ताजा अध्ययन दर्शाते हैं कि भोजन की तलाश में ये प्राणी काफी बेतरतीब गति करते हैं । करीब दस वर्ष पूर्व गांधीमोहन विश्वनाथन के नेतृत्व में एक दल ने अल्बेट्रॉस नामक पक्षियों द्वारा भोजन की तलाश की रणनीतियों का अध्ययन किया था । आजकल ब्राजील के एलागोस विश्वविद्यालय में कार्यरत विश्वनाथन ने उस समय अल्बेट्रॉस डायोमीडिया एक्सुलेन्स का अध्ययन करके बताया था कि ये पक्षी भेजन की तलाश में तथाकथित लेवी उड़ान का प्रदर्शन करते हैं । इस तरह की उड़ान की विशेषता यह होती है कि पक्षी कई सारी छोटी-छोटी उड़ानें भरते हैं और बीच-बीच में लंबी उड़ान होती है । ऐसा माना जाता है कि इस तरह से पक्षी बिखरे हुए भोजन के स्त्रोत का बेहतर दोहन कर पाते हैं । मगर अब विश्वनाथन व उनके साथियों को लगता है कि उनका निष्कर्ष गलत था । उन्होंने स्वीकार किया है कि उनके इस गलत निष्कर्ष का कारण यह था कि उन्होंने इन समुद्री पक्षियों की उस समय की गतिविधियों को रिकॉर्ड नहीं किया था जब वे तट अपने घोंसलों में बैठे होते हैं । नेचर शोध पत्रिका में प्रकाशित अपने ताजा शोध पत्र में विश्वनाथन बताते हैं कि जब उन्होंने इस अवधि को भी शामिल कर लिया तो लेवी पैटर्न नदारद हो गया और समझ में आया कि दरअसल ये पक्षी काफी बेतरतीबी से उड़ान भरते हैं । इसी प्रकार का ताजा विश्लेषण बंबल बी और हिरणों की गति का भी किया गया है । इनके लेवी पैटर्न के विश्लेषण में भी कई सांख्यिकीय समस्याएं हैं । कुल मिलाकर अब इस बात को कहने के लिए कोई प्रमाण नहीं है कि ये प्राणी भोजन की तलाश में कोई अत्यंत परिष्कृत तरीका अपनाते हैं । इस विषय पर अभी और शोध अध्ययन चल रहा है ।
प्रजनन पर चांदनी का असर
कवियों ने चांद और चांदनी का खूब दोहन किया है मगर लगता है प्रकृति भी अपने ढंग से चांदनी का फायदा उठाती है । हाल ही में प्रकृति की ऐसी ही एक गुत्थी को सुलझा लिया गया है। हर वर्ष बसंत बीतते-बीतते आने वाली पूनम के दिन सैकड़ों मूंगा (कोरल) प्रजातियां एक साथ अण्डे देती हैं । जैसे एक अध्ययन में पाया गया था कि जुलाई माह में पूर्णिमा के ठीक दस दिन बाद कोरल अपने अण्डाणु व शुक्राणु पानी में छोड़ देते हैं जहां इनका निषेचन होता है और निषेचित अण्डों में से लार्वा निकलते हैं । समुद्री इकोसिस्टम का अध्ययन करने वालों के लिए यह एक सवाल रहा है कि इतनी मूंगा प्रजातियों में यह तालमेल कैसे स्थापित होता है । अब कुछ वैज्ञानिकों ने इस गुत्थी को सुलझाने का दावा किया है। गौरतलब है कि मूंगा या कोरल समुद्र तट के पास ही रहने वाले सूक्ष्मजीव हैं जो अपने रहने के लिए पानी के अंदर कुछ सुंदर घर बनाते हैं जिन्हें कोरल रीफ करते हैं । दिलचस्प बात यह है कि कोरल में ओसेली यानी प्रकाश संवेदी अंग नहीं पाया जाता जो प्राय: सरल जंतुआें में होता है । इसी की मदद से ये जंतु प्रकाश की उपस्थिति को भांपते है । तो इस अंग की अनुपस्थिति में कोरल चांदनी चाक पता कैसे लगाते है । हाल ही में क्वीन्सलैण्ड विश्वविद्यालय (ऑस्ट्रेलिया) के ओरेन लेवी और उनके साथियों ने बताया है कि कोरल की कम से कम एक प्रजाति में ऐसा प्रकाश संवेदी प्रोटीन पाया जाता है जो चांदनी के प्रति प्रतिक्रिया देता है । ये परिणाम उन्होंने साइंस पत्रिका में प्रकाशित किए हैं । लेवी के दल ने एक कोरल प्रजाति एक्रोपोरा मिलेवोरा के ऊतक के नमूनों का विश्लेषण किया । वे प्रत्येक पूर्णिमा व अमावस्या को दिन में चार बार ऊतक का नमूना लेकर उसका अध्ययन करते रहे । उन्होंने पाया कि लीू२ नामक एक जीन पूर्णिमा की मध्यरात्रि में विशेष तौर पर सक्रिय हो उठा । यह जीन एक प्रकश संवेदी प्रोटीन किप्रजनन पर चांदनी का असर क्रिप्टोक्रोम का कोड है । इस जीन के सक्रिय होने का मतलब है कि पूर्णिमा की मध्य रात्रि को कोरल उस प्रोटीन का निर्माण अधिक मात्रा में करता है । इससे लगता है कि अण्डे देने और प्रजनन के चक्र में तालमेल बनाने में इस जीन की भूमिका हो सकती है । मगर अभी इस बारे में काफी और अध्ययनों की जरूरत होगी ।
कछुआे की त्रासदी
कछुआे की धीमी रफ्तार मशहूर है मगर यह उनकी सबसे बड़ी समस्या नहीं है । यदि कछुआ विशेषज्ञों की मानें, तो कछुआें की त्रासदी यह है कि यदि वे पीठ के बल गिर जाएं, तो काफी घातक साबित हो सकता है । इसके कारण एक तो वे चलने-फिरने से लाचार हो जाते हैं और दूसरे उनका मुलायम शरीर उजागर हो जाता है । ऐसा लगता है कि कछुआे की कुछ प्रजातियों में इससे बचने के उपाय भी होते हैं । यह उपाय है कि उनका यहा कवच उनकी स्थिति को ठीक करने में सक्षम होता हे । कछुआे के कवच के इस गुण का पता बुडापेस्ट टेक्नॉलॉजी एण्ड इकॉनॉमिक्स विश्वविद्यालय के गेबर डोमोकस और पीटर वार्कोन्यी ने लगाया है । डोमोकस और वार्कोन्यी ने विभिन्न कछुआे के कवच के गणितीय मॉडल्स तैयार करके उनका अध्ययन किया । उनके अध्ययन के नतीजे प्रोसीडिंग्स ऑफ रॉयल सोसायटी `बी' में प्रकाशित हुए हैं । डोमोकम व वार्कोन्यी ने पाया कि अलग-अलग कछुआे के कवच अलग-अलग ढंग से व्यवहार करते हैं । जैसे स्टार टॉटाईज नामक कछुए की ढाल की ऊंचाई बहुत अधिक होती है । इस तरह की ढाल का दिलचस्प पहले यह है कि ये कछुए एक ही तरह से संतुलित रह सकते हैं । अर्थात ये उल्टे हो ही नहीं सकते । उल्टे होंगे तो तुरंत सीधे हो जाएंगे । ज्यामिति की भाषा में ऐसी वस्तुआे को मोनोस्टेटिक वस्तु कहा जाता है । ऐसी वस्तु किसी क्षैतिज सतह पर एक ही तरह से स्थिर रह सकती है । इस तरह की वस्तुएं प्रकृति में बहुत कम पाई जाती हैं । इन मोनोस्टेटिक कछुआे से अलग कुछ कछुआे की ढाल ज्यादा सपाट होती है । इनमें दो स्थिरता बिंदु होते हैं - पीठ के बल और पेट के बल । दोनों ही स्थितियेा में ये स्थिर व संतुलित रहते हैं। ये यदि उल्टे हो जाएं तो इन्हें अपनी गर्दन का उपयोग बतौर एक लीवर करना होता है और सीधे पड़ता है । देर सबेर जोर लगाकर ये सीधे हो ही जाते हैं । मगर कछुआे की एक तीसरी किस्म है जो सबसे घातक मानी जा सकती है । ये वे कछुएं है जिनकी ढाल मध्यम ऊंचाई की होती है । ये तीन तरह से संतुलित रह सकते हैं । एक तो पेट के बल और दोनों करवटों पर । अर्थात ये पूरे पलटेंगे नहीं, पलटते-पलटते अधर में लटक जाएंगे । अब इनके लिए पलटकर सीधे होना मुश्किल हो जाता है ।***

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