सोमवार, 14 अप्रैल 2008

१ पुण्य स्मरण

बाबा आमटे : आस्था की इबारत
कुमार प्रशांत
छोटी सी एक खबर छपी - बाबा आमटे नही रहे ! इसमें बड़ा छपने जैसा कुछ था भी नहीं । वैसे भी मौत की खबरों से हमारे अखबार व चैनल रोज-रोज इस कदर भरे-पूरे होते हैं कि एक और मौत को कितनी अहमियत दी जाये? और फिर एक ऐसे आदमी की मौत जिसके जीवन की खोज-खबर लेनी हमने कब की बंद कर दी थी । इसलिए अधिकांश अखबारों ने दो-चार गिने-चुने और करीब-करीब अर्थहीन हो चुके शब्दों को दोहरा कर अपना काम पूरा मान लिया और किस्सा खत्म ! लेकिन बाबा आमटे जैसे लोगोंकी यही खासियत है कि वे न कभी खुद खत्म होते हैं और न किस्सा खत्म होता है। ३० जनवरी को गोली मारने और उसके बाद हर दिन नए-नए तरह से मारने के बाद भी गांधी कहां खत्म हो रहे हैं ? इसलिए जरूरी हो जाता है कि हम बाबा आमटे जैसे लोगों के जीने और मरने दोनों का मतलब समझें । मुरलीधर देवीदास आमटे जैसे लंबे या बाबा आमटे जैसे छोटे-से नाम के जिस आदमी की मृत्यु हुई है वह जीवन का अथक साधक था । जीवन को उसकी पूरी ऊष्मा व आवेग के साथ जिया और इस जीने में दूसरों को साथ लेना, अगर इसे जीवन जीने की कोई कसौटी मानें तो बाबा आमटे जैसा कोई दूसरा आदमी खोजना बहुत कठिन होगा । उनके पास बैठा मैं कभी-कभार यही सोचता था कि यह आदमी कितना अदम्य है !! कोई दिक्कत, कोई परेशानी, कोई विफलता, कोई प्रतिकूलता जैसे उन पर असर ही नहीं करती थीं । बड़े-बड़े लोगों को परेशानी में घिरा देखा है पर बाबा आमटे को नहीं। पता नहीं वे किस कवच-कुंडल के साथ पैदा हुए थे कि प्रकृति व मानव निर्मित सारे-के-सारे बाण उनसे टकरा कर विफल हो जाते थे । सन् १९९२ के वे बहुत काले व कठिन दिन थे । मुम्बई में जैसे जहरीली हवाएं सांय-सांय करती थीं और हर तरफ पस्ती का माहौल था तथा सांप्रदायिकता से लड़ने वाली ताकतें हिम्मत खो रहीं थी। एक समय मुम्बई में गांधीजी का निवास रहा मणि भवन जहां आज उनका स्मृति संग्रहालय बना हुआ है, में देर रात तक ऐसे कुछ लोग विचार-विनिमय में लगे थे जिन्हें सांप्रदायिकता की आंधी हिला रही थी । तभी किसी ने कहा कि हम यह लड़ाई हार रहे हैं । मैंने कहा : हम अभी हारे नहीं हैं ! लड़ाई लड़ेंगे, सिपाही बनायेंगे... कह तो दिया लेकिन हाथ खाली थे और मुटि्ठयों में अंधेरे के सिवा कुछ भी नहीं था .... और ऐसे में अचानक ही बाबा आमटे ने खबर दी कि वे मुम्बई आ रहे हैं । जैसे किसी के कंधे पर हाथ रख दिया ! वे आये - बिस्तरे से बंधे । फिर क्या-क्या हुआ उस विस्तार में जाने का यहां कोई अर्थ नहीं है । अर्थ बस इतना ही कि वे जब तक रहे, लगातार लोगों के बीच जाते रहे, मोहल्लों में सभाएं करते रहे । कभी हाथ में हाथ लेकर, कभी कंधे पर हाथ रखकर कहते : कुमार, यह चलाते रहना होगा । उतनी शक्ति व आश्वासन भरे हाथ अब कहां मिलेंगे ? कुष्ठरोगियों की सेवा से उनका सार्वजनिक जीवन शुरू हुआ और आनंदवन नाम का आश्रम बना कर वे कुष्ठसेवा का काम करते रहे । आज जो एन.जी.ओ. नाम का एक नया जीव पैदा हुआ है वह संभवत: बड़ी आसानी से समझ-समझा लेता है कि बाबा आमटे उसके आदिपुरूष थे । लेकिन इससे बड़ी गलती हो ही नहीं सकती । क्योंकि बाबा आमटे उस गांधी-परंपरा के स्वयं सेवक थे जिसमें अपना जीवन जीने की व्यवस्था करने के लिए समाज सेवा की आड़ नहीं ली जाती । जीवन जीने की नई राह बनाने के लिए समाज में उतरते हैं समाज में उतरना यानि खुद से भी और समाज से भी लगातार टकराते हुए नये मूल्य सृजित करना और समाज में उसे स्थापित करने की लड़ाई लड़ना । गांधी जिस रचनात्मक काम की निरंतर पैरवी करते हैं उसकी कुंडली भी ऐसे ही बनती है । इसलिए बाबा आमटे कुष्ठरोगियों की सेवा करते हुए भी एक योद्धा बने रहते हैं । ऐसा योद्धा जो रोग से भी लड़ता है, रोगी से भी लड़ता है और ये दोनों जिस समाज में रहते हैं उस समाज से भी लड़ता है । घनघोर, बरसती काली, अंधेरी रात में असहाय पड़े कुष्ठरोगियोंको कंधों पर उठा कर अपने आश्रम में लाने वाले बाबा आमटे संस्था नहीं चलाते, वे एक लड़ाई रचाते हैं, जिसमें ध्वंस और रचना का अद्भुत मेल है । इसलिए हम देखते हैं कि बाबा आमटे अपने आश्रम में बंद होकर नहीं रह गए और न कुष्ठ सेवा तक सीमित रहे । उन्होंने देखा कि अलग-अलग प्रकार का कुष्ठ रोग कई स्तरों पर सारे समाज में फैला है और लड़ने के लिए मात्र एक आश्रम काफी नहीं है । इसलिए वे हमें कई मोर्चो पर एकसाथ खड़े मिलते रहे । आजादी के बाद भारत की भावात्मक एकता को उजागर करने और मजबूत करने की सबसे पवित्र व शुद्ध कोशिश तब हुई जब बाबा आमटे भारत छोड़ों यात्रा पर निकले । सांप्रदायिक व आतंकी वैमनस्य के उस दौर में किसी को भी बाबा आमटे की तरफ से ऐसी किसी पहल की अपेक्षा नहीं थी । ऐसा कुछ करने की उन्हें जरूरत भी नहीं थी। कुष्ठ सेवा से इसका कोई नाता भी नहीं था । सरकारों को भी उनकी इस पहल से कोई खुशी भी नहीं होनी थी । लेकिन स्नेह व करूणा का मरहम लेकर लोगों के बीच जाना उन्हें जरूरी लगा । वे पहचान गए थे कि एक दूसरे तरह की बीमारी सारे देश को डस रही है । कई लोग सवाल उठाते हैं : उनके इस प्रयास से भारत कितना जुड़ा? मुझे मालूम नहीं ऐसा सवाल पूछने के पीछे क्या मंशा होती है ? सामान्यत: तो यही कि हम अकर्मण्यता और स्वार्थ के जिस दलदल में फंसे रहते हैं उसमें एक बड़ी फिक्र यह होती है कि कोई दूसरा इससे बाहर निकल कर कैसे काम करता है, और अगर करता है तो उसे कैसे छोटा, व्यर्थ और महत्वहीन साबित किया जाये ! इस मानसिकता को छोड़ दें तो भारत जोड़ो यात्रा से दो बातें हुई । देश से गहरे भावात्मक प्यार की जरूरत होती है, यह बात नए सिरे से काफी ऊर्जावान ढंग से रेखांकित हुई तथा अनेकों नए युवा मन सामाजिक कार्यो से जुड़े । बाबा आमटे उन बिरले लोगों में थे जिनकी वजह से सामाजिक कामों में लोगों का खासकर युवाआें का जुड़ना संभव हुआ । राजनीतिक दलों की भट्ठी को जिस तरह इंर्धन बना कर इस्तेमाल किया जाता है यह उसके ठीक विपरीत है। ये ऐसी कोशिश है जिसके तहत युवाआें की उमंग, आदर्शवादिता और नएपन को खुलने व खिलने का वातावरण मिलता है। अनेकों युवा बाबा आमटे के कार्य, व्यक्तित्व और विचार से जुड़े, सक्रिय हुए और समाज में अलग-अलग स्तरों पर कार्य करने लगे । बाबा आमटे उन सबके संरक्षक-प्रेरक बने रहे । समाज सेवी बनाने की एक अलग ही सिफत थी उनमें ! बाबा आमटे बुनियादी तौर पर राजनीतिक व्यक्ति नहीं थे । राजनीतिक विवादों और पक्ष-विपक्ष की खींचतान से भी अलग ही रहते थे । सरकारी व सत्ताधारियों का उनके पास आना-जाना लगा ही रहता था । उन्हें सरकारोंे ने पद्मश्री और पद्मभूषण से सम्मानित भी किया । उन्होंने वह सब स्वीकार भी कर लिया । यह सब तो लोगों को दिखाई भी दिया लेकिन वे कभी किसी सरकार या पार्टी के नहीं हुए । पद्मभूषण सम्मान वापस भी कर दिया और कई सरकारी नीतियों के खिलाफ लगातार लड़ते भी रहे, यह कम लोगों को ही दिखाई और उससे भी कम को समझ में आया । देश से छोटी किसी पहचान को उन्होंने कभी स्वीकार ही नहीं किया । विकास की दिशा और आदमी की दशा का सवाल ऐसा ही सवाल था जिसे लेकर वे सतत संघर्षरत रहे और अपनी आलोचना का स्वर कभी धीमा नहीं पड़ने दिया । मेधा पाटकर ने जब नर्मदा बचाआें आंदोलन शुरू किया तब उसका फलक भी छोटा ही था और उस बारे में हमारी समझ भी बहुत कच्ची थी। लेकिन बाबा आमटे ने एकदम शुरू से ही उसके समर्थन में आवाज उठाई । उसे शक्ति दी और फिर नर्मदा किनारे ही कुटिया बनाकर रहने लगे । असहमति की वैसी सख्त आवाज अब कहा सुनाई देगी ? शारीरिक असमर्थता उन्हें बहुत घेरे रही । विदा देने तो रक्त कैंसर सबसे नया दोस्त बन कर आया था । लेकिन बैठ सकने में एकदम असमर्थ वे सालों बिस्तर पर लेटे-लेटे सारी लड़ाईयां लड़ते रहे, यात्राएं करते रहे, धरना देते रहे, उपवास पर बैठते रहे । एक सत्याग्रही का जीवन कैसा हो सकता है वह बाबा आमटे के जीवन से समझा जा सकता है । जीवन का अपना अनुशासन उन्होंने खुद बनाया था । युवाआें में उनकी अटूट आस्था थी और इसलिए वे देश के भविष्य को लेकर कभी शंकित नहीं होते थे । नवीनतम विज्ञान की राक्षसी भूमिका के प्रति सतर्क भी थे, वे कवि भी थे । मराठी को उनका जो प्रसाद मिला है उसका कभी आकलन होगा । वे जब तक रहे नई दिशाआें का संधान करते रहे, नए अभिमन्यु तैयार करते रहे । जब तक शरीर गिर नहीं गया, वे न थके न हारे ! इच्छा हो तो रास्ते मिलते ही है इस बात के वे जीवंत उदाहरण थे। अब वे नहीं है तो इसी बात के वे प्रतीक बन गए हैं कि अगर तुम चाहते हो तो कुछ भी कर सकते हो - कहीं भी कभी भी ! यही वह छोटी सी आस्था है जिसकी आज हमें बड़ी जरूरत है । ***

कोई टिप्पणी नहीं: