मंगलवार, 15 अप्रैल 2008

१० ज्ञान विज्ञान

प्लास्टिक के कचरे से सड़क बनेगी


देश के राज्यों में सड़को की खस्ता हालत किसी से छुपी नहीं है । इसके लिए अक्सर किसी स्थान हालत किसी स्थान की भौगोलिक स्थिति और खराब कंस्ट्रक्शन को जिम्मेदारी ठहराया जाता है । लेकिन अब इसका हल खोज लिया गया है । केरल मेंे प्लास्टिक के कचरे से सड़क बनाने का प्रयोग किया गया है । इससे बनी सड़के न सिर्फ टिकाऊ होंगी बल्कि पर्यावरण संरक्षण में भी मददगार साबित होंगी । कोझीकोड स्थित नेशनल ट्रांसपोर्टेशन प्लानिंग एंड रिसर्च सेंटर (एनएटीपीएसी) ने प्रायोगिक तौर पर वतकारा कस्बे में प्लास्टिक के कचरे से ४०० मीटर सड़क तैयार की है । हालांकि यह प्रयोग पड़ोसी राज्यों तमिलानांडु समेत कुछ अन्य राज्यों में पहले ही किया जा चुका है, लेकिन केरल की पर्यावरणीय और मिट्टी की भिन्नता कारण यह प्रयोग सफल नहीं हो सका था । इस पर रिसर्च सेंटर के शौधकर्ताआें ने दोबारा काम शुरू किया और माना जा रहा है कि अब यह प्रयोग सफल हो गया है । केरल मेंे प्लास्टिक का कचरा बहुतायत मेंे निकलता है, जिसके निपटान की पूरी व्यवस्था नहीं होने से यह पर्यावरण के लिए बेहद नूकसानदायक साबित हो रहा है । सड़क निर्माण में कचरे का उपयोग हो जाने से पर्यावरण संरक्षरण की दिशा में भी महत्वपूर्ण कदम बढ़ाया जा सकेगा और साथ ही सस्ती व टिकाऊ सड़क बनाना आसान हो जाएगा । एनएटीपीएसी के कोऑर्डिनेटर एन विजयकुमार कहते हैं कि थिरूवनंतरपुरम की हाइवे इंजीनियरिंग लैब में डेढ़ साल तक प्लास्टिक के कचरे से सड़क निर्माण के फार्मूले पर परीक्षण किया गया और अब प्रायोगिक तौर पर सड़क बना भी ली गई है । उम्मीद है प्रयोग सफल रहेगा ।वे कहते हैं कि केरल की जलवायु और मिट्टी में काफी भिन्नता होने के कारण एक फार्मूले को सभी जगह अमल में लाना संभव नहीं था, लेकिन अब सभी जगह के लिए यह प्रयोग सफलतापूर्वक कर लिया गया है । श्री विजयकुमार का कहना है कि प्लास्टिक के कचरे से सड़क बनाने पर १० प्रतिशत तक डामर की बचत होगी । एकटन प्लास्टिक कचरे से साढ़े तीन मीटर चौड़ी एक किलोमीटर सड़क बनाई जा सकती है । इसमेंे खर्चा भी पारंपरिक डामर की सड़कों की तुलना में काफी कम आता है । इस प्रक्रिया मेंे प्लास्टिक के टुकड़ों को पिघलाकर गिट्टी के साथ मिलाया जाता है । इसमें ध्यान रखने वाली बात यह है कि तापमान १६० से १७० डिग्री सेल्सियस के बीच ही होना चाहिए वरना मिश्रण के चिपकने की क्षमता प्रभावित होती है । केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल भी इस तकनीक को पर्यावरण हितैषी घोषित कर चुका है
धरती को रूला सकती है हँसाने वाली गैस


वैज्ञानिकों का कहना है कि `लाफिंग गैस' यानी हँसाने वाली गैस के नाम से मशहुर नाइट्रस ऑक्साइड जीवाणुआें की विभिन्न प्रजातियों द्वारा वातावरण में फैलाई जा रही है । वैज्ञानिक कार्बन मोना ऑक्साइड और मीथेन को तो ग्रीन हाउस गैसों में प्रमुख रूप से शुमार करते हैं, लेकिन लाफिंग गैस के खतरों की ओर ध्यान कम ही है । वैज्ञानिकों का कहना है कि जीवाणुआें की अनेक प्रजातियाँ नाइट्रस ऑक्साइड का प्रमुख स्त्रोत हैं । ये ऐसे जीवाणु होते है जो ऑक्सीजन की कमी होने पर नाइट्रोजन का उपयोग शुरू कर देते है । नाइट्रेट्स इन जीवाणुआें में श्वसन तंत्र के अनुकूल हो सकते हैं, और इस तरह जीवाणु एक विशेष प्रक्रिया के जरिए ऊर्जा हासिल करते हैं । इस प्रक्रिया को `डिनाइट्रिफिकेशन' और `अमोनिफिकेशन' कहा जाता है । जब जीवाणु ऐसा करते हैं तो वातावरण में नाइट्रस ऑक्साइड उत्सर्जित करते हैं । ब्रिटेन में नार्विच की ईस्ट एंग्लिया यूनिवर्सिटी के प्रो. डेविड रिचर्डसन का कहना है कि अन्य गैसों की तुलना में नाइट्रस ऑक्साइड को ज्यादा गंभीरता से लिया जाना चाहिए । प्रो. रिचर्डसन के मुताबिक यह वातावरण में उत्सर्जित कुल ग्रीन हाउस गैसों में नाइट्रस ऑक्साइड ९ प्रतिशत होती है, लेकिन कार्बन डायआक्साइड की तुलना मेंे यह ग्लोबल वार्मिंग की ३०० गुना अधिक क्षमता रखती है । यह वातावरण में १५० साल तक टिकी रह सकती है और क्योटो संधि में इसे उन प्रमुख गैसों की सूची में रखा गया था, जिन्हें नियंत्रित रखा जाना जरूरी है । यह गैस मुख्यत: कचरा प्रसंस्करण संयंत्रों और खेती से उत्सर्जित होती है । इसका उत्सर्जन प्रतिवर्ष ५० अंश प्रति अरब (पीपीबी) या ०.२५ प्रश की दर स बढ़ रहा है । प्रो. रिचर्डसन का कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग हर किसी को प्रभावित करती है और नाइट्रस ऑक्साइड के उत्सर्जन का जीव विज्ञान समझना ग्लोबल वार्मिंग के दुष्प्रभाव से निपटने की दिशा में पहला कदम होगा ।


बायोडीजल से अस्थमा का खतरा
पेट्रोल-डीजल, घासलेट, सीनजी आदि ईधन, जो गाड़ियों में प्रयुक्त होते हैं, उनसे पर्यावरण को नुकसान होता है । इसी गरज को बायो ईधन निकाले गए,जो पर्यावरण के मित्र कहे जा सकते हैं । परंतु अब विशेषज्ञों ने बायो इंर्धन पर भी आशंका जताई है । अब आदमी करे तो क्या करे । ब्रिटेन में सरकार बायो इंर्धन को सुरक्षित मान रही है, जबकि वैज्ञानिक इसे घातक बता रहे हैं । यहाँ तक कि इसके घातक होने की मोहर एक नोबल पुरस्कार विजेता भी लगा चुके हैं । ब्रिटेन में स्कूल बसों में पर्यावरण हितैषी इंर्धन का इस्तेमाल किया जाता है । परंतु विशेषज्ञों का कहना है कि इस तरह के इंर्धन से बच्चे मेंे अस्थमा की शिकायत बढ़ सकती है । अमेरिका के विशेषज्ञों का कहना है कि बायो इंर्धन जो मक्का, गन्ने या रैपसीड के बने हो, सामान्य ईधन से ज्यादा नुकसान पहुँचाते हैं । उनका कहना है कि सकूल बसों में जब डीजल के साथ बायो ईधन मिलाया जाता है तो हवा में खतरनाक कण जाते हैं, जो सामान्य से ८० प्रश ज्यादा घातक होते हैं । इस वजह से अस्थमा होने की आशंका बढ़ती है । दूषित या खराब हवा के चलते स्वास्थ्य बुरी तरह से प्रभावित होता है । लंदन के मिरर के मुताबिक पर्यावरण संरक्षा समूह लेकॉर्स ने इस संबंध में पहल की है । सरकार में बैठे मंत्रियों से भी पत्र व्यवहार करते हुए कहा कि बायो ईधन से बच्चें का स्वास्थ्य खराब हो सकता है । दूसरी ओर सरकार का दावा यह है कि बायो इंर्धन के कारण प्रदूषण ५० प्रश तक कम हो जाता है । दूसरी ओर एक नोबल पुरस्कार विजेता पॉल क्रजन का कहना कुछ और ही है । १९९५ में नोबल पुरस्कार जीतने वाले इस वायुमंडल के जनकार केमिस्ट का कहना है कि बायो इंर्धन बनाने की चाह में उत्तरी अमेरिका और योरप में जो फसलें बोई जा रही है, वे धरती के लिए ज्यादा घातक है और इससे ग्लाबल वार्मिंग और बढ़ जाएगी । उन्होंने रेपसीड से बनने वाले इंर्धन के प्रति विशेष रूप से सजग किया । अध्ययन कहता है कि कुछ बायो इंर्धन वास्तव में ज्यादा ग्रीनहाउस गैंसे छोड़ते हैं । इसका खास कारण है खेती के दौरान प्रयुक्त उर्वरक । इन्होंने भी जैव-ईधन की विश्वसनीयता पर आशंका व्यक्त की है । उनका कहना है कि रेपसीड से बनने वाला बायो डीजल परंपरागत डीजल के मुकाबले १ से १.७ गुना ज्यादा ग्रीनहाउस गैसे छोड़ेगा । जहाँ तक मक्के की बात है तो वह परंपागत गैसोलीन के मुकाबले १.५ गुना ज्यादा ग्लोबल वार्मिंग करेगा ।


चमकते उद्यागों के काले पहलू

करियर और वेतन के लिहाज के आकर्षक माने जाने वाले बीपीओ, आईआी और इलेक्ट्रोनिक मीडिया जैसे नए क्षेत्र स्वास्थ्य के लिहाज से खतरनाक साबित हो रहे हैं । लेकिन अब इन चमकते उद्योगों के काले पहलू भी सामने आने लगे है । इन उद्योगो में कार्य के घंटे लंबे होते हैं, रात की शिफ्त लंबी अवधि तक चलती है , लक्ष्य कठिन होते हैं, अपनी होते हैं, अपनी पहचान स्थपित करने की कड़ी प्रतिस्पर्धा और नौकरी पर हमेशा असुरक्षा के बादल मँडराते रहते हैं । ये सभी पहलू यहाँ काम करने वालों को दिल के दौरे, हृदय रोग, पाचन की गड़बड़ियाँ, मोटापा, डिपे्रशन, तनाव, अनिद्र और जोड़ो में दर्द शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक सामस्याआें के शिकार बना रहे हैं । एक अनुमान के अनुसार बीपीओ उद्योग में १६ लाख युवा कार्यरत है । करीब इतने ही लोग आईटी एवं इलेक्ट्रोनिक मीडिया में काम कर रहे हैं । विशषज्ञों का कहना है कि इन उद्योगों में काम करने वाले युवाआें की स्थूल जीवन शैली, काम की लंबी अवधि, तनावपूर्ण कार्य स्थितियाँ और तीव्र प्रतिस्पर्धा के कारण इनमें उम्र में ही गंभीर बीमारियाँ पैदा हो रही है । मेट्रो हॉस्पिटल एवं हार्ट इंस्टीट्यूट के निदेशक हृदय रोग विशषज्ञ डॉ. पुरुषोत्तम लाल ने बताया कि लंबे समय तक तनाव में रहने अथवा लंबे समय तक विपरीत एंव तनावपूर्ण कार्य स्थितियों मेंकार्य करने के कारण रक्तचाप ब़़ढने, हृदय की रक्त नलियों में रक्त के थक्के बनने और दिल के दौरे पड़ने के खतरे बढ़ जाते है। उन्होने कहा कि पिछले कुछ वर्षो में पेशेगत कार्यो से संबंधित तनाव, काय्र के घंटे बढ़ने और गलत-गलत रहन-सहन एवं खान-पान, धुम्रपान फास्ट फूड और व्यायाम नहीं करने जैसे कारणों से युवाआें में दिल के दोरे एंव हृदय रोगों का प्रकोप तेजी से बढ़ रहा है । ***

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