मंगलवार, 15 अप्रैल 2008

४ जनजीवन

नर्मदा घाटी में विस्थापन और पुनर्वास
रामास्वामी अय्यर
मेरी स्मृति में सन् १९५० की एक फिल्म `विनस्लो बाय' में राबर्ट डोनाट द्वारा ब्रिटिश न्याय इतिहास के गुंजायमान शब्द `उचित को होने दिया जाए' अभी तक प्रतिध्वनित होती रहते हैं । १० मार्च ०८ को मैं सर्वोच्च् न्यायालय में बैठा सुनवाई की लम्बी श्रृंखला में अपने कानो पर जोर देकर वहां के वातावरण में फैले शब्दों को पहचानने का प्रयास कर रहा था । मैं बहुत ही मुश्किल से हल्का-सा कुछ सुन पा रहा था । हालांकि न्यायालय न केवल बहुत ही प्रभावित कर रहा था बल्कि इससे मुझे विस्मयकारी प्रेरणा भी मिल रही थीं और मैं इस पर गर्व महससू कर रहा था कि मैं भारत के उच्च्तम न्यायालय में बैठा हँू । इसी के साथ मैं बहुत ही परेशानी का अनुभव करते हुए एवं हतोत्साहित होते हुए स्पष्ट तौर यह नहीं सोच पा रहा था कि कहां पर क्या गलत है । उस दिन न्यायालय के सामने नर्मदा घाटी में पुनर्वास के मोर्चे पर असफलता की दर्दनाक कहानी थी । याचिकाकर्ता कई बातों की ओर ध्यान आकर्षित कर रहे थे, जैसे कि बांध की पूर्व निर्मित ऊँचाई पर भी अभी तक पुनर्वास नहीं हुआ है । बिना पूर्व निपटारा किए विस्थापितों की संख्या में बढ़ोत्तरी, तथाकथित विशेष पुनर्वास पैकेज या एस.आर.पी. यानि भूमि के बदले नकद की अवैधानिक व बाध्यता हेतु बलप्रयोग की चर्चा जिसके अंतर्गत परियोजना प्रभावित परिवारों (पी.ए.एफ.) से कहा गया कि वे एस.आर.पी. के अंतर्गत सरकारी बंजर भूमि, असिंचित भूमि और नकद मेंसे चुनाव करें, इतना ही नहीं योजना का भ्रष्टाचार व नकली पंजीकरण से अनिष्टकारी होना, आदिवासी समुदाय से छलकपट, आदि-आदि । यह याचिका संविधान के अनुच्छेद-२१ के अंतर्गत प्रदत्त न्याय और मौलिक अधिकारों की प्रािप्त् हेतु दायर की गई थी । इसके पूर्व ८ जुलाई ०६ को प्रधानमंत्री ने अपनी पूरी सद्इच्छा से शुंगलू समिति की रिपोर्ट में पुनर्वास की स्थिति को तथ्यात्मक रूप से ठीक मानते हुए इस सद्इच्छा से वशीभूत होकर आगे की कार्यवाही की ओर संभवत: यह सोचते हुए कदम बढ़ाया था कि जो कुछ बाकी रह गया है वह मानसून के अगले उन तीन महीनों में पूरा कर लिया जाएगा, जिस दौरान परियोजना का निर्माण कार्य निलंबित रहता है । प्रधानमंत्री को दी गई जानकारियां त्रुटिपूर्ण थीं । थोड़े ही समय में यह स्पष्ट हो गया कि शुंगलू कमेटी की रिपोर्ट बुरी तरह से दोषपूर्ण है । इसमें कुछ सच तो है परंतु गलतियों की भी भरमार है । जहां तक पुनर्वास में पिछड़ने की बात है तो इस संदर्भ में यही कहा जा सकता है कि यहां इस मसले को तीन महीने में निपटाने की बात कही जा रही थी वहां दो साल बाद भी इसका निपटारा तो नहीं हुआ है बल्कि संभवत: इसमें वृद्धि ही हुई है । यहां तक तर्क दिया जा सकता है कि इस संबंध में दो विचार हैं, एक है याचिकाकर्ता का । यह पक्ष कहता है कि पुनर्वास का कार्य स्तरहीन और अधूरा है। वहीं दूसरा पक्ष मध्यप्रदेश सरकार का है, जो कहता है कि यह कार्य पूर्ण हो चुका है । अतएव न्यायालय के लिए यह तय कर पाना आसान नहीं है कि दोनों में से कौन सही है । वैसे इस संबंध में कुछ स्वतंत्र रिपोर्ट भी हैं । २००६ में ही जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, काउंसिल फार सोशल स्टडीज एवं कुछ अन्य संस्थानों के बुद्धिजीवियों के एक जांच दल ने अध्ययन के बाद जो रिपोर्ट दी थी उसमें और शुंगलू रिपोर्ट में काफी विसंगतियां पाई गई थीं । हाल ही में अन्ना हजारे, अरविंद केजरीवाल, स्वामी अग्निवेश व अन्य द्वारा जारी रिपोर्ट के बारे में कम से कम इतना तो कहा ही जा सकता है कि ये अत्यधिक विचलित करती हैं । अब कहीं पुनर्वास की स्थिति को लेकर कोई विवाद है तो वह केवल उसकी असफलता की सीमा को लेकर है एवं संख्या को लेकर है । इस मामले को संबंधित ग्राम सभाआें के माध्मय से सुलझाया जा सकता है और इसे इसी माध्यम से ही अनिवार्य रूप से सुलझाया भी जाना चाहिए । इसे चाहे जैसे समझा जाए पर दो बातें एकदम स्पष्ट है कि पुनर्वास का कार्य बुरी तरह से पिछड़ा हुआ है एवं एस.आर.पी. जैसी पूरक व्यवस्था ट्रिब्यूनल के फैसले और सर्वोच्च् न्यायालय के स्वयं के पूर्व फैसलेे से विचलन है । यह एक गैर कानूनी कार्य है जिस हेतु न तो कोई प्रयत्न ही किया जाना चाहिए था ना ही उसे प्रोत्साहित किया जाना था । ऐसे में क्या किया जाना चाहिए? सर्वप्रथम इससे संबंधित सरकारों को यह मानना होगा कि सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है । साथ ही यह कि अधिकारों का (विस्थापितों के) उल्लंघन हुआ है एवं ट्रिब्यूनल के अवार्ड एवं न्यायिक आदेशों के पालन में भी चूक हुई है । दूसरा, सरकारों को इन गलतियों को ठीक करना होगा । संक्षेप में कहें जो आगे का निर्माण कार्य प्रारंभ होने के पूर्व पहले की सभी गड़बड़ियों को दूर कर लिया जाए । जब तक पूर्व का बकाया पुनर्वास पूर्ण रूप से न हो जाए तब तक डूब क्षेत्र में व विस्थापन में कोई वृद्धि न की जाए । हालांकि न्यायालय में हमने जो कुछ सुना उसमें इस तरह की भावना परिलिक्षित नहीं हो रही थी । वहां की फिजां में क्लांति, अधीरता और चिड़चिड़ाहट का आभास हो रहा था । यह भावना भी उभर रही थी कि पुनरावर्ती हो रही है एवं यही सब कुछ बार-बार कहा जा चुका है । परंतु न्यायालय में बिंदुआें की पुनरावर्ती से यह साफ-साफ नजर आ रहा है कि जमीनी हकीकत यही है कि अभी भी गलत हो रहा है । ये सर्वोच्च् न्यायालय में न्याय की आकांक्षा के लिए आए हैं । शासकीय अधिवक्ता द्वारा अपीलकर्ताआें के प्रति की गई टिप्पणी कि ये तो लगातार एक ही बिंदु पर `राग अलापते' रहते हैं एवं `विकास' के रास्ते में रोड़ा बनकर खड़े हैं, सरकार की अधीरता ही दिखाई है । ऐसा मालूम पड़ रहा है कि न्यायमूर्ति भी इस मामले को निपटाने हेतु चिंतित हैं । वे भी न्याय व अधिकारों संबंधित अमूर्त अनुनय विनय से अधीर हो चुके है और सहज ही यह पूछने लगे हैं कि इस गतिरोध को ताे़डने के लिए आपके पास क्या व्यावहारिक समाधान है ? सुनने में यह बहुत ही यथोचित जान पड़ता है । परंतु वास्तव में क्या यह उन परियोजना प्रभावित परिवारों जिनमें से अधिकांश आदिवासी हैं और जो इस भूमि की सबसे बड़ी अदालत में न्याय व अधिकारों के लिए आए हैं के प्रति समुचित विचार का क्या कोई निष्कर्ष नहीं निकलेगा ? क्या उच्च्तम न्यायालय की मुख्य आकांक्षा बजाय न्याय देने के लिए समस्या की व्यावहारिक निष्पत्ति है ? इस अवसर पर कोई अंतिम निर्णय पारित नहीं किया गया । मध्यप्रदेश सरकार से एक रिपोर्ट मांगी गई है और मसला अंतिम सुनवाई के लिए आगे बढ़ा दिया गया है । अपीलकर्ता की न्याय के प्रति उम्मीद अभी भी देदीप्यमान है । हालांकि प्रक्रिया की मुख्य उद्विग्नता न्याय पर अवलम्बित उम्मीद है न कि व्यावहारिकता । ***

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