मंगलवार, 15 अप्रैल 2008

१ सामयिक

रोजगार गांरटी कानून और पर्यावरण
सुश्री सुनीता नारायण
राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून १ अप्रैल ०८ से पूरे देश में लागू हो गया है इसे लागू किए जाने के साथ ही इसके अंतर्गत होने वाले कार्योंा की उपयोगिता का मूल्यांकन भी जरूरी है । महाराष्ट्र जो कि इस नई रोजगार योजना का आधार रहा है, के दर्शन का समावेश भी कार्ययोजना मेे होना चाहिए । साथ ही चुनी हुई पंचायती राज संस्थाआें की भूमिका में भी स्पष्टता होनी चाहिए । अस्सी के दशक के मध्य पर्यावरणविद अनिल अग्रवाल जब महाराष्ट्र की रोजगार ग्यारंटी योजना के सूत्रधार की खोज में निकले तो मैं भी उनके साथ हो ली । इस खोज में हमने स्वयं को सचिवालय में फाइलों से अटे धूलभरे दफ्तर में पाया । वहां हमारी मुलाकात वी.एस.पागे से हुई, वे छोटी कद-काठी के बहुत ही मृदुभाषी इंसान थे । उन्होंने हमें बताया कि सन् १९७२ में जब राज्य में भीषण सूखा पड़ा था और लोग पलायन पर मजबूर थे तब यहां एक ऐसी कार्ययोजना तैयार की गई जिसकी मूल भावना थी ग्रामीण इलाकों मेंे रोजगार पैदाकर भुगतान के लिए बड़े शहरों के व्यवसाइयों पर दायित्व डालना । ये रोजगार कानूनन ग्यारंटी से युक्त थे । यह पहल गरीबी को हटाने के ध्येय को लेकर निर्मित रोजगार अधिकार सम्पन्नता की और पहला कदम थी । चूंकि काम स्थानीय स्तर पर ही उपलब्ध था अत: लोगों को रोजगार की तलाश में शहरों की ओर नहीं भागना पड़ा । संकट के ऐसे दौर मेंरोजगार निर्माण की इस पहल से तो अनिल न केवल उत्साहित थे ही बल्कि एक और बड़ा पर्यावरण पुननिर्माण का लाभ वे इसमें देख पा रहे थे । इसी दौरान हम अण्णा हजारे से मिलने रालेगांव सिद्धि गए थे । वहां उनके निर्देशन मेंे पहाड़ियों की परिधियों में पानी रोकने और जमीनी जल पुर्नभरण के उद्देश्य से छोटी खाईयां निर्मित की जा रही थीं । वहां हमें प्याज की भरपूर पैदावार देखने को मिली इसकी वजह थी सिंचाई की बढ़ी हुई मात्रा । पागे साहब भी अनिल के इसमें निहित पर्यावरण लाभ के विचार से सहमत तो थे किंतु उन्होंने बताया कि चूंकि योजना संकट के दौर का सामना करने के लिए बनाई गई थी, अत: जिला प्रशासन ने ज्यादातर मामलों मेें पत्थर तोड़ने, सड़कें बनाने और सार्वजनिक निर्माण के कार्य करवाकर अपना कर्तव्य पूरा कर लिया । अगले कुछ वर्षोंा में इस श्रमधन का उपयोग प्राकृतिक आस्तियो के निर्माण में किए जाने के विचार ने महाराष्ट्र में जोर पकड़ा, अब मिट्टी और पानी को बचाने की ओर ध्यान केन्द्रित हुआ । इस दिशा में चेक डेम निर्माण खेतों में मिट्टी उपचार, पहाड़ियों में खाई रचना और पौधारोपण के कार्य होने लगे । महाराष्ट्र रोजगार योजना की तर्ज पर बनाए गए केन्द्रीय रोजगार कार्यक्रम ने भी अनुसरण करते हुए कुछ मामलों में पर्यावरण पुननिर्माण की गरज से एक न्यूनतम प्रतिशत पौधारोपण पर ही खर्च करने की व्यवस्था अनिवार्य कर दी । इसी दौर में देश ने जीवित वाले सार्थक पौधारोपण या ऐसे तालाब निर्मित करने का कौशल भी सीखा जो हर बारिश में गाद से न भर जाएं । प्रशासक एन.सी. सक्सेना ने आकलन किया कि रोपा गया हर पौधा अगर जीवित रह पाए तो हर गांव मेें इतने पेड़ होंगे कि प्रत्येक गांव के नजदीक एक अच्छा खासा जंगल होगा, जो कि अब तक वास्तव में सिर्फ कागजों तक ही सीमित था । अनिल ने बाद में लिखा भी था कि ये सब किस तरह अनुत्पादक रोजगार निर्माण में सिद्धहस्त हो चुके हैं, जिसके अंतर्गत हर वर्ष सिर्फ पौधरोपण जो कि प्रतिवर्ष रोपों के पशुआें द्वारा खा लिए जाने या मर जाने के कारण उन्हीं गढ्ढों को बार-बार खुदवाए जाने से शाश्वत होता जा रहा था । इस प्रशासकीय खेल ने ग्रामवासियों को नई चेतना दी और उन्होंने नाजुक प्रकृति की सुरक्षा का जिम्मा खुद उठाने का प्रण लिया । स्थानीय लोगो की राय ली जाने लगी । इसके फलस्वरूप उन्हें इसके सीधे फायदे भी मिलने लगे । चरनोई पेेड़-पौधे, जल स्त्रोत आदि पुनर्जीवित हुए । प्रशासकीय अमला वन-विभाग, कृषि विभाग सिंचाई विभाग गांवों के लिए जो योजनाएं बनाता था वे उतनी उपयोगी नहीं होती थीं । यह वह दौर था जब विकास के लिए प्रयोगधर्मिता की शुरूआत हुई । मध्यप्रदेश में गांवों में वाटर शेड्स बनाने के लिए मात्र एक एजेंसी को माध्यम बनाने का प्रयोग हुआ । इस दौर के ही अध्ययनों से खुलासा हुआ कि भूमि और जल स्त्रोत के बेहतर उपयोग के द्वारा गांवों में आर्थिक उन्नति के द्वार खुल सकते है । लेकिन मैं आज इन बातो को फिर क्यों याद कर रही हूँ ? सीधी सी बात है । राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी भी इसी भवन में तैयार की गई है और इसमें पिछली योजनाआें की अपेक्षा बेहतर प्रावधान किए गए हैं जैसे प्राकृतिक आस्तियों के निर्माण (मिट्टी और जल के बचाव) पर खर्च के महत्व को प्रतिपादित किया जाना और इस हेतु ग्रामीण स्तर पर योजना बनाने को अनिवार्य किया जाना एवं चुनी हुई पंचायतों को लोक निर्माण कार्योंा के लिए शासकीय विभागों से वरीयता देते हुए उत्तरदायी बनाना । लेकिन योजना प्रारंभ होने के बाद भी एक सवाल मुंह बाए खड़ा है । क्या इससे स्थितियों में वास्तव में कोई परिवर्तन हुआ है ? तपती गर्मी के मौसम में राजस्थान प्रवास के दौरान मैंने महिलाआें के एक झुण्ड को ग्रामीण सौ दिनी योजना (स्थानीय लोग इसे यही कहते है) के अंतर्गत कार्य पर लगे पाया । वे तपते सूरज के नीचे तालाब की खुदाई कर रहीं थीं । देखरेख कर रहे इंजीनियर ने बताया कि पंचायत की सलाह पर तालाब मेें जमा मिट्टी को हटाकर दिवारों का निर्माण किया जाना है । हर महिला एक चौकोर गढ्ढा खोद रही थी । कारण पूछने पर सुपरवाईजर ने बताया कि इसी तरह से खुदाई के निर्देश मिले है । इसके पीछे कारण है एक वैज्ञानिक अध्ययन, जिसके मुताबिक एक व्यक्ति एक दिन में कितने क्यूबिक मीटर खोदता है इसका अंदाजा हो जाता हैै । उन महिलाआें को चौकोर गढ्ढे का लक्ष्य दे दिया जाता है और काम और मजदूरी का हिसाब उसी के द्वारा लगाया जाता है । मौके पर मौजूद मजदूर महिलाआें का कहना था कि इस कवायद का मकसद सिर्फ यह है कि हमें सप्तह या पंद्रह दिनों की अपनी मजदूरी का अंदाजा न लग पाए क्योंकि कार्य का आकलन व्यक्ति के रूप से किया जाएगा। मैंने महसूस किया कि दिल्ली में बैठे आका अकर्मण्यता और भ्रष्टाचार से निपटने के चक्कर में व्यावहारिकता को भूल जाते हैं । किसी के पास इस सवाल की जवाब नही था कि इन चौकोर गढ्ढों से क्या तालाब बन पाएगा ? किसी को इस बात की फिक्र नहीं थी कि तालाब तक पानी लाने वाली नहरों की गाद निकाली भी गई है या नहीं । या कि इस सौ दिनी योजना में काम पूरा हो भी पाएगा या नहीं । इसी दौरान मैंने सुंदरवन शेर अभ्यारण्य के नजदीक स्थित एक गांव में देखा कि रा.ग्रा.रो.गा. योजना के अंतर्गत खोदी जा रही एक नहर के ग्रामीण अर्थव्यवस्था का किस तरह प्रभावित किया है । स्थानीय मछुआरों को अब मछली पकड़ने के लिए अवैध तरीकों पर निर्भर नही रहना पड़ रहा था । इसकी वजह से अब कृषक भी एक अतिरिक्त फसल ले पा रहे थे । योजना की इस उपादेयत से उत्साहित हेाकर मैंने पूछा कि क्या इसकी रूपरेखा पंचायत ने बनाई थी ? जवाब नकारात्मक था । स्थानीय निवासियों का कहना था कि अगर पंचायत के द्वारा काम हो रहा होता ता हमें भुगतान मिलने में कठिनाई होती क्योंकि पंचायतों के लिए भुगतान को जिला अधिकारियों द्वारा स्वीकृत करवाया जाना आवश्यक है । जिसके लिए अधिकारी कार्य पूर्णता का विस्तृत सबूत चाहते हैं । यह कार्यवाही इतनी जटिल है कि या तो भुगतान प्राप्त् ही नहीं होता या होता भी तो बहुत कम । इस कार्य को वन विभाग के माध्यम से सम्पन्न करवाया जा रहा है जिसके पास योजना बनाने और उसे सम्पन्न कराने के अधिकार हैं । राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना की मूल भावना में कोई कमी नहीं है । लेकिन कार्य सम्पादन के स्तर पर इसमें कमी है । इसे अतिशीघ्र ठीक किए जाने की आवश्यकता है । पर्यावरणीय पुनर्चक्रीकरण के देवता भी यही चाहते हैं कि विस्तृत कार्ययोजना बने । ***

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