सोमवार, 14 अप्रैल 2008

३ होली पर विशेष

संश्लेषित रंग , करते जीवन बदरंग
डॉ. सुनील अग्रवाल
प्रकृति रंग बिरंगी है । जीवन रंग बिरंगा है और हमारा मन भी रंगीला है । हमारे यहां तो रंगो का त्योहार होली भी है । रंगो से खेलते हुए परम्परागत ढंग से हरियाली को सजाने वाले पेड़-पौधे अपने हरे रंग क्लोरोफिल के कारण ही सूर्य प्रकाश की सहायता से प्रकाश संश्लेषण क्रिया द्वारा भोजन बनाते है । सभी जानते हैं कि मिट्टी में नानाविध रंग छिपे रहते हैं। उन रंगो को फूल ही उजागर करते हैं और फूलों के ऊपर मंडराने वाली तितलियों के पंखों पर सज जाता है, रंग बिरंगा आलेखन । कीट पतंगे भंवरे जानते हैं फूलों की रूमानियत का राज । फूलों के साथ-साथ पेड़-पोधों के अन्य कुछ भागों से भी प्राकृतिक रंग बनाने का प्रचलन पुराना है और इन्हीं रंगों से खेली जाती रही थी होली और सजाया जाता रहा ऋतु पर्व बसंत । रंग ही सबको रिझाते है । हम तमाम जीव-जंतुआे में रंग आकर्षण पाते हैं । दरअसल रंगों की दर्शनीयता प्रकाश के अवशोषण एवं उसके परावर्तन से जुड़ी भौतिक क्रिया है । हम सभी जानते हैं कि प्रकाश में सात रंग होते हैं। इन्द्र धनुष में यही सात रंग सजते है । सूर्य के सात घोड़ों का मिथक भी इन्हीं रंगों से जुड़ा है । यह रंग क्रमश: है बेंगनी, नीला, आसमानी, हरा, पीला, नारंगी और लाल। इनमें बेंगनी नीला और आसमानी शीतल तथा पीला नारंगी और लाल उष्ण रंग कहलाते हैं । मध्य का हरा रंग शीतलता एवं उष्णता में संतुलन कायम करता है । यदि कोई वस्तु तत्व या धरातल आवर्तित सभी प्रकाश किरणों को अवशोषित कर लेता है तो वह हमें काला दिखता है । यदि सभी किरणों का परावर्तन हो जाता है तो श्वेत धवल दृश्य होता है और यदि वह अपने वर्णक्रम की कुछ किरणों को अवशोषित तथा शेष को परावर्तित करता है तो वह स्थिति के अनुसार रंग बिरंगा दिखलाई देता है । किरणों का अवशोषण एवं परावर्तन उनके तरंग देर्ध्य पर निर्भर करता है । वर्ण विज्ञान के अनुसार हर हरा रंग का एक विशेष वर्णक (पिंगमेन्ट) होता है । और इन वर्णको के मिश्रण से ही विविध मिश्रित रंग तैयार होते हैं । मूल रंग केवल नीला पीला और लाल ही होते हैं । रंग हमारे जीवन के अहम अंग है । रंग हमारी लोकानुरंजक पर्वोत्सव परम्पराआे से लेकर हमारे लोक जीवन, संस्कृति एवं संस्कारों से जुड़ें हुए है । होली तो है ही रंगो का त्योहार । होली पर हर कोई होना चाहता है रंगो से सरोबार । इसलिए इस अवसर पर निरापद प्राकृतिक रंगों का प्रयोग प्राचीन काल से ही होता रहा था । यह सजीले रंग प्रकृति में सुगमता से उपलब्ध वनस्पति जन्य पदार्थो के निष्कर्षण द्वारा प्राप्त् किये जाते हैं । पलाश के फूलों से पीला बसंती रंग बनता है । हर सिंगार एवं गेंदा के फूलों से चटक पीला रंग प्राप्त् होता है । सिंदूरी के बीजों को जल में उबालने से सिंदूरी रंग प्राप्त् किया जाता है । हल्दी की गांठों को पीसकर उन्हें चूने के पानी में घोलकर लाल रंग बनाया जाता है । चुकन्दर की जड़ों की लुगदी को भी गर्म जल में घोलकर लाल रंग बनता है। चंदन की लकड़ी के चूरे को भी यदि पानी के साथ उबाल कर उसमें चूना मिलाया दिया जाये तब सुगंधित लाल रंग मिलता है । मेहंदी का प्रयोग तो सामान्यत: हर घर में होता ही है । मेहंदी हमारी लोक परम्पराआें से जुड़ी हुई है । कथ्था एक विशेष पेड़ के तने के आंतरिक भाग से उबाल कर प्राप्त् किया जाता है । इसे भी प्राकृतिक रंग के रूप में इस्तेमाल किया जाता है । यह प्राकृतिक रंग निरापद तो हैं ही आरोग्यवर्धक भी है । ऐसा नहीं है कि प्राकृतिक रंग केवल वनस्पति उत्पाद रूप में ही प्राप्त् होते हों । जन्तुआे की भी कुछ प्रजातियां प्राकृतिक रंगों के निष्कर्षण में अहम भूमिका निभाती है । इसके अलावा अन्य बहुत से रंग जैसे कैरोटीन आदि अन्य जीव जन्तुआें से सहउत्पादक के रूप में प्राप्त् होते हैं । जन्तु जनित रंगों को भी अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता है क्योंकि यह जीव हत्या से जुड़े होने के कारण वर्जित होते हैं । औद्योगिक रूप से भले ही इनका उपयोग हो किन्तु इन रंगों से होली खेलना भला कौन व्यक्ति चाहेगा ? परम्परागत रूप से प्रचलित वनस्पति जन्य प्रकृतिक रंगों के निष्कर्षण में हमने अपनी रूचि कम कर ली है तथा संश्लेषित रंजकांे को अपना लिया है और यही हमारी चिंता एवं चिंतन का बिन्दु है क्योंकि संश्लेषित रंजकों के दुष्पप्रभावों से हम अनभिज्ञ तो है ही साथ ही उनके प्रयोग के प्रति भी लापरवाह है । संश्लेषित रंजक अनेक घातक रसायनों के मिश्रण से बनते हैं । टाइटेनियम आक्साइड से सफेद पेन्ट बनता है । बेरियम सल्फेट कागज को सफेद करता है । काँच को रंगने में क्रोमियन से ग्रीन कलर, मैंगनीज से पिंक कलर, कोबाल्ट से यलो कलर, केडमियम से डार्क ब्लू कलर, निकल द्वारा वायलेट कलर बनाया जाता है । यह संश्लेषित रंजक रंग बिरंगे झाड-फानूस सजाते हैं । और रंग बिरंगी चुड़ियों की खनखनाहट को आकर्षक बनाते हैं । कहनें का तात्पर्य यह है कि रंगो को बनाने में भारी धातुआें का सर्वाधिक प्रयोग होता है और यह धात्विक रसायन हमारे स्वास्थ्य को अत्यधिक हानि पहुचाते है । दरअसल जलवायु और संश्लेषित रंजको से भी प्रदूषित होते है । तथा यह रंजक हमारे स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालते है । संश्लेषित रंग-रंजको में विभिन्न प्रकार के हानिकारक रसायन मिले होते है। हर रंग में किसी न किसी धातु या रासायनिक यौगिक की प्रमुखता एवं प्रचुरता होती है । चिकित्सा शास्त्रियों एवं वैज्ञानिकों के अनुसार ब्लेक कलर में लेड की प्रमुखता है जो हमारी किडनी (वृक्कों) को प्रभावित करता है । इन अंगो की कार्य क्षमता को कम करता है । रेड कलर में पारा अधिक होता है । जो मिनामाटा नामक बीमारी को जन्म देता है । ग्रीन कलर में कॉपर सल्फेट की अधिकता होती है जो हमारी आँखों को अधिक नुकसान पहुँचाता है । इसी प्रकार अन्य मूल अथवा मिश्रत रसायन अन्य अनेक प्रकार से हमें नुकसान पहुचाते है और हमारी नेत्र ज्योति को भी क्षीण करते है । सश्लेषित रंजको में अनेक वर्ज्य पदार्थ पाये जाते है किन्तु विडम्बना है कि इन घातक संश्लेषित रंजको का प्रयोग हम इन प्राकृतिक रंगो के स्थान पर होली जैसे पवित्र सौहार्द पूर्ण पर्व पर करने लगे हैं हमारे स्वास्थ्य के लिए तो खतरा है ही हमारी संस्कृति को भी विकृत करते है । प्रकृति और पर्यावरण को संदषित करते हैं। जल वायु और मिट्टी में भी रंग समा कर वहाँ के माइकोक्लाइमेट (सूक्ष्म वातावरण) को प्रभवित करते है । जल में पहुँचकर यह रंजक उसकी प्रकाशिकी को प्रभावित करते हैं । जब रंगीन उपशिष्ट किसी भी जलस्रोत नदी सरिता तालाब या झील में समाता है तो सूर्य का प्रकाश उसके जल की गहराई तक नहीं पहुँच पाता है जिस्से जल में प्लवकों की वृद्धि प्रभावित होती है । जल में आक्सीजन की कमी हो जाती है, उत्पादकता कम हो जाती है । खाद्य श्रंखला बाधित होती है, मत्स्य उत्पादन एवं अन्य जल जीवों की वृद्धि भी रुक तक जाती है । जब रंगों की बात चली है तो इस तथ्य पर भी गौर करना जरुरी है कि जहाँ शुरु-शुरु में संश्लेषित रंग केवल कपड़ा मिलो में कपड़ो की रंगाई-छपाई हेतु प्रयुक्त होता था । सिविल निर्माण जैसे भवन, पुल या अन्य इमारतो को सजाने संवारने हेतु रंग रोगन का प्रयोग होता था। चमड़ा एवं अन्य सिन्थेटिक तथा प्लास्टिक उत्पादो हेतु रंगो का प्रयोग बड़ा । ज्ञातव्य है कि प्लास्तिक स्वयं में अत्यधिक हानिकारक पोलीमर होते है । उनकी घटिया (इन्फीरियर क्वालिटी के अवगुणों को छिपाने हेतु भी सिन्थेटिक रंगो का प्रयोग अंधाधुंध हो रहा है । मूर्ति निर्माण, चित्रकारी, सौन्दर्य प्रसाधन एवं अन्य सजावटी सामान में संश्लेषित रंग प्रयोग किये जाते है । यहाँ यह तथ्य उजागर करना भी समीचीन है कि आजकल पर्वोत्सव अवसरों पर नदियों जलाशयों या तालाबों आदि में मूर्ति विसर्जन का प्रचलन पहले से अधिक बढ़ा हुआ है । इन मूर्तियो को रंग बिरंगा सजाने में अत्यधिक घातक रंगो का प्रयोग होता है। जिसके प्रभाव के कारण विसर्जन स्थलो पर जल जीव बहुतायत मेंमर जाते हैं । यह तो कुछ अनुप्रयुक्त सामान्य बाते है । जो संश्लेषित रंगो की बुराई के रुप में सामने आई हैं । किन्तु अब तो सुन्दरता बढ़ाने वाले विषैले रंगो का प्रयोग खाद्य सामग्री में भी होने लगा है । क्यों कि यह संश्लेषित रंग प्राकृतिक रंगो की तुलना में काफी सस्ते पड़ते हैं । खाद्य पदार्थो मे मिलावट का बाजार गर्म है। घटिया खाद्य सामग्री (कच्ची एवं पकी हुई) में रंग मिलाकर उसे सुन्दर बना दिया जाता है । और उस सुन्दरता के पीछे छिपी विषात्मकता हमको दिखलाई नहीं देती है । अब तो फल एवं सब्जियाँ, शाक-भाजी को सुन्दर बनाने हेतु रंगो के घोले में रखा जाने लगा है । हम रंगो के खिलवाड़ के इस विद्रूप को मौनवत साक्षी भाव से देखते है, और प्रतिवाद भी नहीं करते है। यह घातक रंग खाद्य सामग्री के साथ समाकर हमारे शरीर में पहुँचकर हमारे शरीर को विषात्मक करते है । आजकल पेय पदार्थ(सॉफ्ट ड्रिंक) का प्रचलन भी अत्यधिक बढ़ा है । उनमें भी इन संश्लेषित रंजको का प्रयोग हो रहा है । हम धीमा जहर पी रहें हैं और स्वास्थ्य को खो रहे हैं । जिन संश्लेषित रंजको से हम अपने जीवन को सजाते है अपने सामान को सजाते है, वही सुन्दर दिखलाई देने वाले कारखानो में काम करने वाले कर्मचारी कई प्रकार के केंसर के शिकार हो जाते हैं। रंजक उद्योग में त्वचा शोथ एव व्यापक रोग है । कप़़डा तथा चमड़ा उद्योग के श्रमिक इसका शिकार अधिक बनते हैं । इन कारखानो में काम करने वाले लोग रक्त अल्पता, दमा, सायनूसाइटिस आदि के शिकार भी हो जाते है । स्नायुदुर्बलता अनिन्द्रा याददाश्त में कमी, चक्कर, उल्टी, सुस्ती आदि के लक्षण भी उभारते हैं । अत: इन संश्लेषित रंजको के प्रयोग को न्यूनतम स्तर पर लाना चाहिए। सम्बन्धित कारखाने में सभी सावधानियों तथा सुरक्षा के प्रबन्ध समुचित होने चाहिए ताकि रंग ही किसी की जिन्दगी को बदरंग न कर दें । रंग प्रदूषण के नियंत्रण के उपाय भी जरुरी हैं। जल वायुऔर मिट्टी में जाने से पूर्व अपशिष्ट वहित को उपचारित करके रंजको के दूष्प्रभाव से मुक्त करना चाहिए। अब तो नई तकनीक इजाद की गई है । फिटकरी चूना फैरस तथा फेरिक साल्ट से रसायन क्रिया के द्वारा रंगो का पृथकीकरण किया जा सकता है । इसके अलावा विशेषज्ञो की सलाह लेकर अन्य अवशेषक पदार्थो जैसे अभिप्रेरित कोयला (एक्टीवेटेड कॉल), फलरअर्थ, थीट, लकडी तथा अन्य पदार्थो पर रंगो का अवशोषण कराकर उन्हें अलग किया सकता है । कागज का अवशोषण कराकर उन्हें अलग किया जा सकता है । कागज के कारखानो के अपशिष्ट विशेषज्ञ कर रहे हैं । हमें इन बिन्दुआें पर सजग होना ही पड़ेगा, तभी रंग बिरंगी दुनिया में रंगनियाँ हमारे जीवन को रंगीला कर सकेंगे और रंग हमारे जीवन को अभिशप्त् न कर सकेंगे । हमें गोरा या काला प्रकृति ने बनाया है किन्तु प्रकृति के इस विधान को हम रंगभेद के रुप में कूरुप कर देेते हैं । श्वेत-अश्वेत की राजनीति से विश्व आक्रांत है यह सर्वथा निंदनीय है । काला रंग होना अभिशाप नही है । प्रकृति में विविध रंग है । विविध गंध हैं विविध रुप हैं । विभिन्नताओ से भरा है जीवन यही विविधता तो हमारी धरोहर है और हमारी सांस्कृतिक वल्गाएं हमारी थाती हैं । हमें सजग होना होगा । रंगो से खेले रंगो से सजे किन्तु घातक रासायनिक संश्लेषित रंजको से सावधान रहें । होली पर फूलों के बने सुगंधित रंग प्रयोग करे ताकि प्यार भरी खुशबु से जीवन महक उठे ।***

कोई टिप्पणी नहीं: