मंगलवार, 15 अप्रैल 2008

६ खास खबर

नया वन कानून कहीं मखौल बनकर नहीं रह जाए
(हमारे विशेष संवाददाता द्वारा)
आजादी के साठ बरसों बाद वन अधिनियम को लागू किया जाना आदिवासियों के हितार्थ एक सार्थक कदम के रूप में ही देखा जाना चाहिए । जंगल में रहने वाले अनुसूचित जनजाति के लोगों और अन्य पारम्परिक वनवासियों के लिए यह कानून थोड़ी-बहुत उम्मीद तो अवश्य ही जगाने में सहायक बनेगा यह आशा तो की ही जा सकती है । इस अधिनियम को देखते हुए तो लगता है कि वनवासियों के अधिकारों का कुछ तो संरक्षण मिल ही सकता है । लेकिन अधिनियम का लाभ इस पर निर्भर करता है कि इसे पाने के लिए सरकारी स्तर पर स्वयंसेवी संस्था के स्तर पर किस हद तक जागरूक होते हैं । क्योंकि सरकार द्वारा पारित कानून के लाभों को हासिल करने के लिए सबसे पहले तो आदिवासियों को संगठित होने की जरूरत होगी । इसके साथ ही स्वयंसेवी संस्थाआें को भी अहम भूमिका निभाने के लिए कमर कसकर तैयार होना पड़ेगा। इससे कानून की आड़ में आदिवासियों के साथ किसी किस्म का धोखा नहीं हो सकेगा । वैसे यह अलग बात है कि जब स्वयंसेवी संस्थाएं आदिवासियों के पक्ष में खड़ी होंगी तो उन्हें कानून में परिलक्षित लाभ मिलने की संभावनाएं बढ़ जायेंंगी । फिर चाहे इसके लिए आंदोलन का रास्ता ही क्यों न अपनाना पड़े लेकिन जहां आदिवासी संगठित नहीं होंगे वहां उन तक कानून के लाभ पहुंचने में कई साल भी लग सकते है । यह भी हो सकता है कि असंगठित और गैर आदिवासियों के नाम पर जो जमीन हैं उनके दुरुपयोग के मामले तो पहले ही सामने आ भी चुके हैं । ऐसी दशा में वन कानून को लागू करने के लिए सरकारी स्तर पर जनजागरण अभियान चलाये जाने की जरुरत को नकारा नहीं जा सकता है। ऐसा करने से जंगल में रहने वालो को भी कानून से मिलने वाले लाभों की जानकारी आसानी से मिल सकती है । सरकारी स्तर पर स्थानीय भाषा में अधिनियम आदिवासियों तक पहुचने की व्यवस्था तो करनी ही पड़ेंगी। जहां तक वन अधिनियम का ताल्लुक हैं तो इसे संसद ने वर्ष २००६ में ही पारित कर दिया था किन्तु इसके बावजूद केन्द्र सरकार ने इसे अधिसूचित करने में लम्बा समय लगा दिया और इसे लागू भी काफी दबाव के बाद दिया जा सका है । इसे लागू करने से पहले सरकार के पर्यावरण और आदिवासी मंत्रालय में लम्बी बहस हुई । यहां तक कि अधिनियम को पूरा राजनीतिक समर्थन भी नहीं मिला और वन्य जीव प्रेमियों की आपत्ति भी इसके देरी की वजह रही । जंगलों में रहने वालों को यह आशा है कि कानून के लागू हो जाने से वनों को संरक्षण मिल पाएगा और अधिकारियों द्वारा वनों में रहने वालों को प्रताड़ित करने की घटनाआें में भी कमी आ सकेगी । आदिवासियों को जमीन का अधिकार मिल पाएगा । साथ ही जंगलों में पाए जाने वाली वनोपज और अन्य उत्पादों के उपयोग का अवसर उन्हें मिल पाएगा । इन उम्मीदों पर खरा उतरने के लिए जरूरी है कि इनका फायदा बाहरी तत्व न उठा सकें । इसके लिए सरकारी स्तर पर गंभीरता पूर्ण ध्यान देना पड़ेगा । इतना ही नहीं बल्कि इस कानून में पट्टा देने की निर्धारित की गई समय सीमा की आड़ में गलत लोग इसका लाभ नहीं ले सके इसको भी प्रमुख रूप से ध्यान रखने की जिम्मेदारी का निर्वहन करना पड़ेगा । क्योंकि राजनीति से जुड़े लोगों को यह कहते भी सुना गया है कि जंगल की जमीन पर कब्जा कर लो तो पट्टा दिलाने मेंउसका सहयोग होगा । वनों को बचाने के लिए वन विभाग और स्थानीय लोगों को मिलकर ही संरक्षण की जिम्मेदारी निभाने को आगे आना होगा । कोशिश तो यह होना चाहिये कि वन विभाग को मिलकर जंगल को बाहरी तत्वों से बचाने में सक्रियता दिखाना चाहिये । सरकार को आदिवासियों के छोटे-छोटे लाभों के लिए कठोर कदम उठाने की जरूरत को भी नकारा नहीं जा सकता । क्योंकि तभी वास्तविक लाभ सभी तक पहुंचाये जा सकते हैं । आदिवासियों को वनोपज का अधिकार दिये जाने से राज्यों को राजस्व की हानि होना तय है । यह हानि मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों को और भी अधिक उठाने को तैयार रहना होगा क्योंकि इन राज्यों की वन उपजों पर पूरी तरह से राज्य का अधिकार होता है लेकिन इसका बड़ा लाभ वनवासियों के उन्नयन के रूप में अवश्य ही सामने आएगा । इस कानून के लागू हो जाने से अब वनवासियों के वनोपज का शत प्रतिशत लाभ मिलने की उम्मीद है । लेकिन यह भी गौरतलब बात है कि राज्य सरकारें आसानी से वनोपज पर से अपने कब्जे को जाते देखती नहीं रहने वाली है । जहां आदिवासी और अन्य समाज के लोग मिलजुलकर रहते हैं वहां इस कानून को अमल में लाने में परेशानियां पैदा हो सकती हैं । ग्रामीण स्तर पर जिन समितियों का निर्माण किया जा रहा है वह इन समस्याआेंं से किस तरह निपट सकेंगी । यही अपने आप में मुख्य समस्या बने बिना रहने वाली नहीं है । बेहतर हो कि कानून लागू होने से उत्पन्न होने वाली समस्याआें के निदान का रास्ता भी तलाश लिया जाए ताकि यह अधिनियम मखौल बनकर ही नहीं रह जाएं और आदिवासयिों के उन्नयन की उम्मीदें आधे-अधूरे रास्ते में ही खो नहीं जाए । नये कानून का लाभ वास्तविक हकदार को मिलेगा । ऐसी आशा सभी क्षेत्रों में व्यक्त की जा रही है ।***

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