मंगलवार, 15 अप्रैल 2008

७ आवरण कथा

विकल्पहीन नहीं है खेती
डॉ. आर.एस. धनोतिया
मजबूत अर्थव्यवस्था ही सर्वांगीण विकास का परिचायक है । या यों कहें मजबूत अर्थव्यवस्था एवं सर्वांगीण विकास एक दूसरे के पूरक ही हैं । मजबूत अर्थव्यवस्था के लिए अर्थशास्त्री एवं चिंतक अपने-अपने सुझाव एवं विकास का मॉडल प्रस्तुत करते रहे हैं । सरकारें उन पर अमल भी करती हैं और कुछ ही सालों में उस मॉडल के तथाकथित `विकास' हमारे सामने आने लगते हैं । विस्तार में जाने से पूर्व विवेकानंद के विचारों पर ध्यान देना समीचीन होगा, `नया भारत किसानों के हल, मजदूरों की भट्टी, झोपड़ियों, जंगलों, किसानों और मजदूरी से जन्म लेगा ।' किंतु वर्तमान में इसके विपरीत ही हो रहा है । किसानों के हल की जगह ट्रेक्टर ले रहे हैं, मजदूरों की भट्टी को बड़ी-बड़ी मशीनें विस्थापित कर रही है, जंगल नष्ट हो रहे हैं और मजदूर भूखे पेट सो रहे हैं। ऐसे में नया भारत कैसे जन्म लेगा ? हरे-भरे जंगल सीमेंट कांक्रीट के जंगलों में तब्दील हो रहे हैं । फूलों की महक का स्थान चिमनियों के धुएं एवं रसायनों की गंध ने ले लिया है । एकतरफा फसल उत्पादन की ओर भागता किसान न केवल फसल का उचित मूल्य प्राप्त् करने से चूक रहा है बल्कि अपना अस्तित्व ही मिटाता जा रहा है । बहुआयामी चुनौतियों का सामना करता ऋणग्रस्त किसान आखिर मनुष्य ही है । मुसीबत में वह बहुराष्ट्रीय कंपनियों के भुलावे में फंस जाता है । ऊपर से वोट बैंक की तरह भी उसका इस्तेमाल भी होता आया है । किसान इन परिस्थितियों में रेडिमेड कृषि संसाधनों जैसे रासायनिक खाद, तथाकथित उन्नत बीज, कीटनाशकों और यहां तक कि ग्रोथ प्रमोटर एवं अधिक उत्पादन दिलाने वाले कई उत्पादों के चक्कर में फंस जाता है, परिणाम हमारे सामने है । कृषि पर लागत अनाप-शनाप बढ़ती गई एवं कर्ज में डूबते किसान सामाजिक पारिवारिक जिल्लतों को न झेल पाने के कारण आत्महत्या जैसा जघन्य मानवीय अपराध करने लगे । देश को विकसित करने के लिए जरूरी है कि गांवों का भी विकास हो । देश को विकसित राष्ट्र की पंक्ति में खड़ा करने के हमारे प्रयासों का केन्द्र बिंदु ये गांव ही होने चाहिए । अधिकांश गांवों में मूलभूत सुविधांए उपलब्ध नहीं है । जंगलों के कट जाने तथ अत्यधिक कुपोषण के चलते आदिवासी तो पलायन कर गुलामों जैसा स्थिति में काम कररने पर मजबूर हैं लेकिन क्या गांवो को मूलभूत सुविधाएं जैसे पक्के मकान, पक्की सड़कें उपलब्ध करा देने मात्र से गा्रमीणो के जीवन स्तर में आमूल चूल परिवर्तन आना संभव है? समय-समय पर विचारक व चिंतक समस्याआें से रुबरु कराते हुए विकल्प भी प्रस्तुत करते हैं । किंतु यंे सब एकांगी या आंशिक विकास को प्रतिपादित करते हैं । सर्वप्रथम हमें विकास को देश, काल एवं परिस्थितियों के अनुरुप सही स्वरुप में परिभाषित करने की पुरजोर आवश्यकता है । हम जब तक एकात्म विकास को नही समझेंगे, स्वीकार नहीं करेंगे एवं अपनाएेंगे नहीं तब तक सर्वागीण विकास नही होगा । एकात्म विकास वस्तुत: सर्वागीण विकास ही है । ग्रामीण विकास पर आर्थिक विश्लेषकों, चिंतको, चिंतको, समाजिक कार्यकर्ताआें व राजनेताआें द्वारा अपने-अपने स्तर पर एवं समय-समय पर चिंतन प्रस्तुत किए गए । प्रथम हरित क्रांति का असर अब लगभग समाप्त् सा हो गया है और रासायनिक उर्वरकों के साथ कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग की वजह से हाल ही के वर्षो में भूमि की उर्वरा शक्ति अत्यधिक क्षीण होने से गेहूं उत्पादन और उत्पादकता दोनों में भारी कमी आ गई है। दूसरे हरित क्रंति के बीजों की तलाश शुरु हो गई है । सिंचित क्षेत्रों के साथ कृषि ऋणों का दायरा बढ़ाने पर भी जोर दिया जाने लगा है । कृषि ऋण ही तो किसान को पथभ्रष्ट कर रहे हैं और यें ही आत्महत्या के लिए उत्तरदायी भी हैं । बीटी कपास एंव बीटी धान की तरह ही गेहूं में भी ऐसा ही कोई प्रयोग करने की वकालत की जाने लगी है । किंतु बीटी प्रजाति अथवा जीएम प्रजाति से आसन्न खतरों की ओर या तो किसी का ध्यान नहीं जा रहा है या इस तरफ से जान बूझकर आँखें मूंद ली गई है । मर्ज कुछ और है और दवा कुछ और दी जा रही हैं । वस्तुत: इस विकराल समस्या का हल सिंचित कृषि क्षेत्र बढ़ाना, कृषि ऋण का दायरा बढ़ाना, बीटी प्रजाति, मेक्सिकन ड्वार्फ वेराईटी गेंहू अथवा रासायनिक उर्वरकों के चलन को बढ़ाना बिल्कुल नहीं है । ये सभी विकल्प तो इस समस्या को बढ़ाएेंगे ही । साथ ही इससे कभी न सुलझाने वाली समस्या का जन्म होगा । मेरे विचार से इस समस्या का एक हल है। नेच्युको कृषि । गेंहू की जिन प्रजातियों से हरित क्रांति संभव हुई है वह भरपूर पेट्रोलियम ऊर्जा, पानी, रासायनिक खाद एवं विद्युत आपूर्ति पर निभर है । एक बार में ही मिट्टी की समूची ऊर्जा का दोहन कर मिट्टी को निर्जीव बना डालने के बाद हमें यह सफलता प्राप्त् हुई है। हरित क्रंाति के चमत्कारिक परिणामों, मशीनीकरण एवं रासायनिक खेती से जितना आर्थिक लाभ किसान को मिला उससे कहीं अधिक उसने खोया है । इतना ही नहीं किसान ने इस दौरान अपनी संवेदनशीलता भी खोई है । कृषि को आत्मनिर्भर बनाने के लिए एक नए वैज्ञानिक चिंतन की आवश्यकता है जिसमें जीवन के मूलभूत सिद्धांतोंकी अवहेलना न हो । स्थायित्व देने वाली सदाबहार कृषि क्रांति की बात हम तभी कर सकते हैं जब किसानों का संसाधनों, ऊर्जा भंडारण एवं बाजार पर नियंत्रण हो और यह तभी संभव हो सकता है जब प्रोज्यूमर (उत्पादक - उपभोक्ता) सोसायटी अस्तित्व में आ जाए । प्रथम हरित क्रांति के चालीस साल बाद आज भारतीय खेती विचित्र संकट के दौर से गुजर रही है । हरित क्रांति के सभी व्यावहारिक उद्देश्य आज ध्वस्त हो चुके है । एक ओर किसानो द्वारा आत्महत्याआें का दौर जारी है वहीं योजनाकार और कृषि वैज्ञानिक दूसरी हरित क्रांति की नीव रखने में व्यस्त हैं । लेकिन यह नींव किस और कैसी जमीन पर रखी जा रही है ? नींव रखने के संसाधनों की रुपरेखा में वही तत्व निहित हैं जो प्रथम हरित क्रांति में थे । बल्कि वे तत्व अब ओैर अधिक विराट रुप में सामने आने वाले हैं । हमारे देश में एक ओर कृषि भूमि को बचांए रखना मुश्किल होता जा रहा है, वही सबसे बड़ी चुनौती यह है कि छोटे और सीमांत किसानों के लिए कृषि के कैसे ज्यादा से ज्यादा आकर्षक बनाया जाए ताकि उनका रुझान खेती की ओर बढ़े । भारत के संदर्भ मेंयह एक सर्वमान्य तथ्य है कि कृषि पर बाजार कभी हावी नहीं रहा । ऐसे में कृषि पर नियंत्रण हासिल करे के लिए जैव तकनीक का सहारा लिया गया । जैव तकनीक अब बहुत तेजी से कृषि का बाजारीकरण तो कर ही रही है परंतु अतिरिक्त चिंताजनक तथ्य यह है कि इससे संपूर्ण मानवता पर ही संकट छा रहा है । तथ्यों के विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि हमारी अर्थव्यवस्था के स्त्रोत एवं दृंढ़ स्तंभ कृषि एवं काश्तकार दोनों का ही अस्त्वि खतरे में है । हमारी कृषि एवं कृषि संस्कृति पर आधुनिक रासायनिक खेती का बहुराष्ट्रीय कंपनियों के माध्यम से जो हमला हुआ है, का सामना करने के लिए हमें बाहरी विशेषज्ञों की कतई आवश्यकता नहीं है । जो घातक तत्व इस हमले में सम्मिलित हो गए हैं उन्हें हम अपने स्तर पर ही नेच्युको कल्चर संस्कृति के विकास , सामग्री चेतना एवं जनजागृति के द्वारा बिना विशेष प्रयासों एंव निवेश के दूर कर सकते है। किसानों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रलोभनों से बचकर रहने की आवश्यकता है । क्योंकि जब एक बार निर्जीव मिट्टी सजीव को जाएगी तो निश्चित है उत्पादन एवं उत्पादक्ता बढ़ने के साथ किसानो की समृद्धि भी बढ़ेगी ही । नेच्यूको कल्चर से न केवल रसायनोंपर होने वाला व्यय एवं ऊर्जा का अपव्यय बचेगा, बल्कि कई बहुआयामी लाभ, जैसे मानव स्वास्थ्य के लिए उत्तम कृषि उत्पाद, फल, सब्जियाँ आदि प्राप्त् होगी जिससे मानव में रोग प्रतिरोध क्षमता भी निश्चित ही बढ़ेगी । औषधियों पर खर्च में कमी आएगी साथ ही बायो एनर्जी का सदुपयोग मिट्टी की सजीवता के लिए संजीवनी सिद्ध होगा । इन सबसे सर्वोपरि कृषि लागत में कमी किसानों के लिए सुकून से जीने का सबब होगा । किसानों के पन में यह आशंका है कि इससे उत्पादन घट जायेगा । यदि हम इसे पूर्ण मनोयोग से करें तो यह आशंका निर्मूल सिद्ध होगी । यहां तक कि वर्तमान बोये जाने वाल रकबे से भी कम में हमारी खाद्य पूर्ति न हो सकती है । यह प्रश्न उठता है क्या इतना अधिक बिगाड़ हो जाने के बाद भी नेच्यूको कल्चर की कल्पना क्या प्रासंगिक एवं व्यवहारिक है ? उत्तर निश्चित ही हां में है । आवश्यकता है दृढ़ इच्छाशक्ति की । इस महायज्ञ में सामाजिक कार्यकर्ता, गैर सरकारी संगठन आगे आएं एवं सरकारी सहायता का मुंह न देखें । खेतो को ही प्रयोगशाला बना कर नूतन प्रयोगों से एक एकड़ जमीन से बोवाई के तीन से चार माह बाद ४० क्विंटल ज्वार या प्रतिवर्ष प्रति एकड़ १६ टन अंगूर का उत्पादन किसान कैसे लेंजैसे सफल प्रयोग करने की आवश्यकता है । ***

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