सोमवार, 14 अप्रैल 2008

४ जनजीवन

कचरे को सोना बनाने की साजिश
भारती चतुर्वेदी
शहरी भारत में परिवर्तन की सुगबुगाहट अब सुनाई देने लगी है । शहरों को कुछ इस पुर्नआकल्पित किया जा रहा है । कि वे स्वयं को पोषित करते हुुए बेलेंस शीट में लाभकारी इकाई के रुप में स्वयं को नोद करा पांए । अधिसंरचना के प्रत्येक अंग और सेवा को अब लाभकारी निवेश संभावना के रुप में देखा जा रहा है। अब यह कहा जा सकता है, अलविदा सरकार । बाजार तुम्हारा स्वागत है । बदलते संसार में कचरा न सिर्फ अपने भौतिक मूल्य की वजह मे बल्कि इसके निपटान के लिए आवश्यक तंत्र की वजह से भी महत्वपूर्ण हो गया है । कबाड़ से संपत्तिय की अवधारणा के दबाव के चलते शहरी उपशिष्ट निपटान हेतु सरकारे ने बड़ी पूंजी वाली गैर सरकारी संस्थाआें पर निर्भर होना शुरू कर दिया । इन संस्थाआें का काम है कचरे को इकट्ठा करना (कुछ मामलों में तो सीधे घरों से) और उन्है निपटान क्षेत्र तक पहुंचाना। भारत के २५ शहरों में फेडरेशन ऑफ इण्डिया चेम्बर ऑफ कॉमर्स द्वारा कराए गए एक अध्ययन में पाया गया कि सिर्फ दो शहरों के कुछ हिस्सों को छोड़कर शेष सभी में कचरा निपटान निजी क्षेत्र में चला गया है तथा इस अध्ययन का निष्कर्ष यह था कि कचरा निपटान के क्षेत्र मे निजीकरण हेतु अपार संभावनाएं हैं । लेकिन भारत में कचरे के निपटान और पूनर्चक्रीकरण में हमेशा से निजी स्त्रोतो का दखल रहा है । हमारी शहरी आबादी का लगभग एक प्रतिशत, जिनमें कचरा बीनने वाले, अटाले और कबाड़ी शामिल हैं, इस से अपनी जीविका चलाते आ रहे है । इस धंधे में उनका व्यक्तिगत निवेश है उनका समय, मेहनत तथ अनुभव से उपजा व्यवसाय कौशल और वे इसकी कीमत तथा चुकाते हैं अपने स्वास्थ्य के रुप में । रोजगार के अवसरों व सामाजिक सुरक्षा की अनुपब्धता के बावजूद एवं न्यूनतम के अवसरो व सामाजिक सुरक्षा की अनुपलब्धता के बावजूद एवं न्यूनतम पूंजी व बिना किसी सब्सिडी के यह वर्ग ९ से ५० प्रतिशत तक अपशिष्ट का निपटान करता है । अब न्यून पूंजी धारकों का कचरा निपटान के लिए बनने वाली बड़ी-बड़ी योजनाआें में कोई हिस्सा नहीं होता । इन छोटे उद्यमियों क उपेक्षा कर हमारे योजनाकार कचरा निपटान क्षेत्र में बड़ी पूंजी, बड़ी अस्तियों और बड़े अमले वाली ऐसी कंपनियों में संभावना तलाश रहे हैं जिन्हे अपशिष्ट निपटान का कोई अनुभव नहीं है । इस तरह के निजीकरण में असंगठित क्षेत्र तबके के रोजगार लगभग पूरी तरह से छिन जाते है क्योंकि बड़ी कंपनियों का काम तो सिर्फ बिन गाईड (कूड़ाकर्मी) जैसे इकलौते कर्मचारी से पूरा हो जाता है । ऐसे में घर का काम निपटाकर घरेलू आया में सहायता करने वाली कचरा बिनने वाली की चिंता किसे है ? बड़े ठेकेदार द्वारा पुनर्चक्रीकरण योग्य कचरे को या तो सीधे कारखाने या बड़े व्यापारियों के हाथ बेचने से सैकड़ों छोटे अटाले वाले और कबाड़ियों का काम छिन जाता है । यह एक तरह से साझा सम्पत्ति पर एकाधिकार का मामला भी है। असंगत प्रतियोगिता के कारण असंगठित क्षेत्र बाजार में टिक ही नहीं पाएगा क्योंकि उसकी पहुंच इस कच्च्े माल तक ही नहीं हो पाएगी । अब तक अलिखित आचार संहिता, सामाजिक नातेदारी या समान स्तर की प्रतियोगिता के बल पर यह तबका इतने बड़े स्तर पर अपशिष्ट पुनर्चक्रीकरण संभव कर पाता हैं। निजीकरण के पक्ष में सबसे महत्वपूर्ण तर्क है निकायों को होने वाली बचत । विश्व बैंक अपनी २००६ की रपट `इम्प्रूविंग मेनेजमेंट ऑफ म्यूनिसिपल सॉलिड वेस्ट इन इण्डिया : ओवरव्यू एण्ड चेलेन्जेज' निजीकरण से निकायों के खर्च में २० से ४० प्रतिशत तक की कमी की बात करती है । लेकिन यह बचत ठेकेदारों द्वारा अपने कर्मचारियों को दी जाने वाली मजदूरी में कटौती की वजह से होगी क्योंकि वे सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी नहीं देते हैं । तेजी से शहरीकरण की ओर बढ़ते भारत में जहां तीस करोड़ लोग आज भी एक डॉलर से कम प्रतिदिन आय पर गुजारा करते हों, में इस तरह से गरीबों से उनका रोजगार छीनना जनहित विरोधी हैं। स्टेनफोर्ड सोशल इनोवेशन रिव्यू के २००७ के ग्रीष्म संस्करण में छपे अपने प्रपत्र में अनिल करनानी कहते हैं `अगर समाज वास्तव में अपने सबसे निचले स्तर के गरीबों की चिंता करता है तो उसने माइक्रो-क्रेडिट (लघुऋणों) के बजाए श्रम आधारित उद्योगों पर अधिक ध्यान देना चाहिए । क्योंकि गरीबी के दुष्चक्र से बाहर आने हेतु स्थायी रोजगार ही सबसे अच्छा माध्यम है ।' अपशिष्ट निपटान का निजीकरण इस अवधारणा के विपरीत कार्य करता है । इसका कुप्रभाव सिर्फ गरीबों पर ही नहीं शहर के अन्य बाशिंदों पर भी पड़ेगा । गत वर्ष जर्मनी की द्विपक्षीय एजेंसी जीटी झेड और कोलेबोरेटिव वर्किंग ग्रुप ऑन सॉलिड वेस्ट मेनेजमेंट (सी डब्ल्यू जी) ने एक सवाल किया कि असंगठित क्षेत्र के पुनर्चक्रीकरण का अर्थगणित क्या है ? विश्व में भिन्न महाद्वीपों के छ: विकासशील शहरों से इकट्ठा किए आंकड़ों के आधार पर निकले निष्कर्ष हमारी आंखे खोल देती हैं । उन्होंने पाया कि असंगठित क्षेत्र तो कमोवेश अपशिष्ट निपटान के माध्यम से सब्सिडी प्रदान करता है । संगठित क्षेत्र को पुनर्चक्रीकरण के लिए कीमत अदा करनी पड़ती है जबकि असंगठित क्षेत्र इससे लाभ कमाता है । कैरो (मिस्त्र, अफ्रीका) से इकट्ठा किए गए आंकड़ें बताते हैं कि असंगठित क्षेत्र द्वारा कचरा निपटान करने की लागत प्रति टन महज ४.३० डॉलर थी । वहीं संगठित क्षेत्र की लागत १४.४० डॉलर रही । लीमा (इटली, यूरोप) में अनुपात आश्चर्यजनक रूप से १:३० का था । अध्ययन का निष्कर्ष यह था कि कचरा निपटान को संगठित क्षेत्र को सौंपना एक `गलत निर्णय' था । अगर असंगठित क्षेत्र धंधे से बाहर हो गया तो पुनर्चक्रीकरण की लागत में अप्रत्याशित वृद्धि होगी । फिलीपीन्स (एशिया) में असंगठित क्षेत्र की पुनर्चक्रीकरण लागत १७ यूरो प्रतिदिन होती है वहीं संगठित क्षेत्र इसके लिए ८१ यूरो चुकाता है । इसका असर अंतत: शहर और इसके नागरिकों पर ही पड़ता है क्योंकि अंतत: उन्हें ही इसकी कीमत अदा करनी है । अपने देश में दिल्ली का ही उदाहरण लें । अपशिष्ट निजीकरण का जो समझौता इन्फ्रास्ट्रक्चरल डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन ने तैयार किया है उसमें कचरा बीनने वालों का सिर्फ रस्मी उल्लेख भर है। प्रक्रिया की अन्य कड़ियों का तो उल्लेख भी नहीं है । छंटाई के नियम भी शिथिल किए गए हैं और कार्य के लिए उपयुक्त परिस्थितियों की भी अनदेखी की गई है । पुनर्चक्रीकरण योग्य कचरे पर निजी प्रवर्तकों के अधिकार को मान्य किया गया है । वही कुल कचरे के सिर्फ २० प्रतिशत की ही छंटाई की इनसे अपेक्षा की गई है। अभी कचरा बीनने वाले ९० प्रतिशत से ज्यादा कचरे की छंटाई कर देते हैं । जाहिर है बचा हुआ कचरा सीधे भराव के लिए चला जाएगा और प्रदूषण का कारण बनेगा । इस प्रक्रिया में आपसी झगड़े भी बढ़ेंगे । दिल्ली के आर.के.पुरम इलाके से जुटाए गए साक्ष्य बताते हैं कि वहां के कचरा ठेकेदारों द्वारा आए दिन कचरा बीनने वालों के साथ गालीगलौच और मारपीट भी की जाती है क्योंकि यह क्षेत्र उन्हें आबंटित हो चुका है । कूड़ा इकट्ठा करने वालों को भी कूड़ादान से भी कचरा नहीं छांटने दिया जाता फलत: वे छंटाई के लिए सारा कचरा घर ले आते हैं । इसके फलस्वरूप उनकी स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ती हैं । अगर उन्होंने कचरे की छंटाई कर भी ली होती है तो भी उन्हें शेष कचरे को ढलावों (कूड़ा घरों) में फेंकने नहीं दिया जाता है । ऐसा नहीं है कि सिर्फ भारत में ही असंगठित क्षेत्र के माध्यम से अपशिष्ट निपटान का कार्य होता है । कुछ अन्य देशों ने तो इसके लिए बहुत प्रभावी नीतियां बनाई हैं, जैसे अर्जेन्टीना में निजी प्रवर्तकों को असंगठित क्षेत्र को कचरा छांटने और पुनर्चक्रीकरण योग्य कचरे के भंडारण के लिए सुविधाएं प्रदान करना आवश्यक है । रोजेरियों में तो कचरा बीनने वालों के पास न केवल पुनर्चक्रीकरण के लिए आधारभूत सुविधाएं मौजूद हैं बल्कि उन्हें उसके प्रयोग की जानकारी भी है । फिलिपींस में अटाले वालों को लायसेंस दिए गए हैं और अच्छे प्रदर्शन के लिए आधार बिंदु भी तय किए गए हैं । कोलम्बिया में २००३ से कचरा बीनने वालों को कानूनन निपटान प्रबंधक योजनाआें में शामिल करने का प्रावधान किया गया है और उनकी सहायता के लिए एक सहकारी आंदोलन और संघ भी है । भारत के नीति निर्माताआें को इन सबसे सबक लेना चाहिए । असंगठित क्षेत्र को बढ़ावा देकर स्थानीय निकाय कचरा निपटान के क्षेत्र में लागत में कमी ला सकते हैं क्योंकि यह क्षेत्र पुनर्चक्रीकरण लागत से ज्यादा वसूली करके देता है । पुनर्चक्रीकरण योग्य कचरे पर असंगठित क्षेत्र को पहला अधिकार मिलना इस दिशा में पहला कदम होगा । इसके पश्चात द्वितीय स्तर पर छंटाई और भंडारण की सुविधाएं निर्मित करना होगी । इस मामले में परिवहन के लिए सायकल रिक्शा जैसे गैर इंर्धन वाहनों का उपयोग एक अच्छी पहल हो सकती है । परंतु इतना ही काफी नहीं है भविष्य में यह भी ध्यान में रखना होगा कि निजीकरण के ठेकों का आकार २० लाख रू. तक सीमित रखा जाए ताकि छोटे स्तर के उद्यमी भी प्रतियोगिता में टिक पाएं । मौजूदा बड़े ठेकों को भी निरस्त करना होगा क्योंकि ये भारत के विकास की मूल अवधारणा के विरूद्ध है। हर संभव तरीके से कचरे के स्थानीय स्तर पर ही पुनर्चक्रीकरण, कंपोस्ट और जैविक उपयोग की व्यवस्थाएं की जानी चाहिए । इससे परिवहन में बचत, ढलावों (ट्रेचिंग ग्राउण्ड) से निकलने वाली ग्रीन हाउस गैसों में कमी और गरीब को और अधिक गरीब होने से रोकने में मदद मिलेगी । शहरी गरीबों की मूल पंूजी तो उनकी मेहनत ही होती है । नवीन विचारों और अच्छी योजनाआें का समागम इन लोगों में उम्मीद की किरण पैदा करेगा । अन्यथा ये गरीब ही बने रहेंगे और इनकी भारी आर्थिक लागत हम सबको चुकानी पड़ेगी। भारत में शहरीकरण की दूरगामी भविष्यवाणियों का निष्कर्ष है शहरी गरीबों और कचरों में बढ़ोत्तरी । इसी में ऐसी रचनात्मक नव विचारों वाली योजनाआें के लिए भी अवसर छुपे हैं जो टिकाऊ पर्यावरण और शहरी गरीबों के हित में हो। अपशिष्ट इस हेतु अनमोल अवसर उपलब्ध करवा सकता है । तो हम उसकी अनदेखी क्यों करें ?***

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