मंगलवार, 15 अप्रैल 2008

३ विशेष लेख

एक श्राप : मिथक या प्राकृतिक विपदा ?
के.एन. गणेशैया
कर्नाटक में गांव का बच्च-बच्च `तलकाडू के श्राप' के बारे में जानता है। १६वीं सदी से चले आ रहे लोकगीतों में भी इसका उल्लेख मिलता है । किंवदंति के अनुसार मैसूर घराने के राजा वाडेयार के हाथोंविजयनगर साम्राज्य के एक शासक की पराजय के बाद उसकी पत्नी ने श्राप देते हुए कहा था - `तलकाडू रेत में बदल जाएगा और वाडेयार घराने में कोई वंशज पैदा नहीं होगा ।' यह श्राप अगर आज एक मिथक बन गया है तो इसकी दो प्रमुख वजह हैं : एक, तलकाडू वाकई रेत के टीलों में दबता गया है और दूसरा, करीब चार सौ सालों से मैसूर राजघराने में कोई वारिस पैदा नहीं हुआ है । विभिन्न सूत्रों से मिली जानकारियों और क्षेत्र के अध्ययन के बाद मैंने इस `चमत्कार' की घटनाआें के संभावित कालक्रम का पता लगाया है । मेरा मानना है कि तलकाडू की यह घटना प्राकृतिक आपदा का परिणाम है जो इस शहर की जीवंत सभ्यता को लील गई । फिर इस घटना को बड़ी ही होशियारी से श्राप के साथ जोड़कर एक कहानी गढ़ ली गई । वैज्ञानिक आम तौर पर मिथकों या चमत्कारों से दूर ही रहते हैं, खास तौर पर उन मिथकों से जो पहली नज़र में ही असंगत या अतार्किक नज़र आते हैं । दरअसल, किसी मिथक की यही अतार्किकता उसे समाज में प्रतिष्ठित कर देती है और तमाम तर्को को ठेंगा दिखाते हुए यह मिथक लगातार अपनी जड़ें मजबूत करता जाता है । आश्चर्य की बात यह है कि अगर किसी मिथक या चमत्कार के पीछे कोई तर्क है तो वह धीरे-धीरे अपनी कुदरती मौत पर मर जाता है क्योंकि चमत्कार के साथ तर्क के जुड़ने से आम लोगों में उसका आकर्षण नहीं रहा जाता है । केवल कर्तहीन मिथक ही जिंदा रहते हैं; यानी जिन मिथकों का कोई स्पष्टीकरण नहीं है, वे ही टिके रहते हैं । ऐसे में मिथकों, खासकर लंबे समय से चले आ रहे मिथकों के फैलाव के पैटर्न को जानना बेहद रोचक होगा । तलकाडू का श्राप - कर्नाटक में पिछली चार सदियों से तकलाडू के श्राप का मिथक चला आ रहा है । इस श्राप की मुख्य तीन बातों में से दो साफ दिखाई देती हैं जो इसे `विश्वसनीय' बनाती हैं । पहली बात यह है कि यहां रेत का साम्राज्य फैला हुआ है । यहां के मंदिर बार-बार रेत से ढक जाते हैं । एक विशेष पूजा ओर और महत्वपूर्ण धार्मिक मेले के आयोजन के दौरान इन मंदिरों से रेत हटानी पड़ती है ।दूसरा प्रमुख संयोग मैसूर राजघराने के वारिस से संबंधित है । मैसूर के शासकों के दावानुसार वे २० प्रीढ़ियों से इस श्राप को झेलते आ रहे हैं और सार्वजनिक तौर पर इसे सच भी मानते हैं; यानी उनका भी विश्वास है कि इस श्राप की वजह से उनके यहां कोई वारिस पैदा नहीं हो रहा है । श्राप के इतने स्पष्ट परिणामों की वजह से कोई तर्कशील व्यक्ति भी इसे स्वीकार लेता है । अत: इसकी गहन समीक्षा जरूरी है ।श्राप कथा - तलकाडू राज्य के मैसूर के निकट कावेरी नदी के किनारे स्थित एक ऐतिहासिक स्थल है । मानव सभ्यता के विकास का यहां लंबा इतिहास रहा है। यह होयसला काल (१२वीं-१३वीं सदीं) में एक बहुत ही समृद्ध शहर था । यह गंग राजाआें के काल (छठीं सदी से नवीं सदीं) और चोल राजाआें के काल (दसवीं सदी का उत्तरार्द्ध) में एक महत्वपूर्ण व्यापार केन्द्र भी रहा । १५वीं सदी की शुरूआत में यह विजयनगर साम्राज्य का हिस्सा बन गया जो १६वीं सदी के अंत तक बना रहा । यहां चार वर्ग किलोमीटर के छोटे से दायरे में ही करीब एक दर्जन मंदिर बने हुए हैं । इन मंदिरों की भव्यता बताती है कि इस क्षेत्र में एक जमाने में समृद्ध कला व संस्कृति और व्यापार व मानव गतिविधियों का अस्तित्व रहा होगा। किसी काल में व्यापार और संस्कृतिका यह जीवंत केन्द्र आज उजाड़ नजर आता है । केवल कुछ वर्षो के अंतराल पर होने वाले धार्मिक मेले के दौरान ही चहल-पहल होती है । इस शहर के उजाड़ होने के पीछे भी उसी श्राप को जिम्मेदार माना जाता है । माना जाता है कि यह श्राप १६१० में एक धार्मिक महिला ने उस समय दिया था जब मैसूर के वाडेयार राजा ने विजयनगर शासकों से श्रीरंगपट्टन छीन लिया था । उस दौरान विजयनगर साम्राज्य की ओर से श्रीरंगपट्टन में रंगराय शासन कर रहे थे । श्रीरंगपट्टन पर कब्जे के बाद मैसूर के राजा को सूचना मिली कि रंगराय की पत्नी अलामेलम्मा (कुछ लोग उसका नाम रंगम्मा भी बताते हैं) के पास हीरे-जवाहरात का खजाना है जो दरअसल एक प्रसिद्ध मंदिर की सम्पत्ति है । इस सूचना के आधार पर मैसूर शासक ने उन हीरे-जवाहरात को अलामेलम्मा के कब्जे से हासिल करने के लिए कुछ सैनिक भेजे । बताया जाता है कि अलामेलम्मा ने संपत्ति देने से इंकार कर दिया और भागकर श्रीरंगपट्टन से करीब ४० किलोमीटर दूर स्थित तलकाडू आ गई । सैनिकों ने उसका वहां तक पीछा किया । इससे कुपित होकर उसने तीन श्राप दिए और मालंगी गांव के निकट बह रही कावेरी नदी में कूद गई । उसने जो कहा, उसका अनुवाद इस प्रकार हैं :-१. तलकाडू रेगिस्तान में बदल जाए । २. मालंगी के पास बह रही नदी में भंवर बन जाए । ३. मैसूर राजाआें के घर कोई वारिस पैदा न हो । यह मिथक पिछले चार सौ सालों से अगर जीवित है तो इसकी तीन प्रमुख वजहें हैं :-१. मालंगी के निकट कावेरी नदी में भंवर है और अलामेलम्मा ने उसी भंवर में छलांग लगाई थी ।२. तलकाडू शहर और विशेषकर पुराने शहर पर रेत की १० से २० मीटर परत बिछी हुई है । होयसला काल में बने मंदिर तो २० मीटर गहराई में दबे हैं । इससे साफ है कि इन बीते चार सौ सालों में शहर पूरी तरह रेतमय हो चुका है । कुछ मंदिरों पर जमी रेत को सार्वजनिक पूजा कार्यक्रमों के दौरान हटाना पड़ता है । बाद में वे फिर रेत से ढक जाते हैं । नदी किनारे से उड़कर आती रेत को रोकने के लिए कई रेत-अवरोधक महान इंजीनियर एम.विश्वेश्वरैया ने खड़े किये थे । हाल के दिनों में रेत उड़ना कम हुई है और इसीलिए मंदिरों को रेत में से खोदकर बाहर निकालने की जरूरत भी अपेक्षाकृत कम पड़ने लगी है । ३. मैसूर का शाही परिवार १६वीं शताब्दीं से उचित वारिस की समस्या से जूझता आ रहा है और वह इस विपत्ति को सार्वजनिक तौर पर भी स्वीकारता रहा है। अगर परिवार की वंशावली पर एक सरसरी निगाह भी डाल ली जाए तो पता चल जाएगा कि समस्या वाकई गंभीर है । इन तीन बातों में से पहली यानी श्राप क्रमांक १ को नकारा जा सकता है क्योंकि अगर इस कहानी को एकदम सच मान लिया जाए तो जाहिर है कि नदी में पहले से ही भंवर था, अन्यथा शायद अलामेलम्मा आत्महत्या ही नहीं करती । लेकिन अन्य दोनों श्रापों के बारे में क्या कहा जाए ? इसीलिए मैंने पुरातात्विक आंकड़े व इलाके की भूगर्भीय विशेषताएं समझने की कोशिश की, क्षेत्र के रेतीले इलाके में बदलने के कारणों की पुरानी व्याख्याआें का अध्ययन किया और नदी से लेकर शहर तक पाई जाने वाली रेत के आकार के प्रोफाइल का आकलन किया। इसके बाद मैंने मैसूर के महल स्थित हेरीटेज विभाग से वाडेयार राजघराने की वंशावली की जानकारी हासिल की । इनसे प्राप्त् जानकारी से मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि कथित श्राप की तीनों बातें उस जमाने में पहले से ही अस्तित्व मे थीं और इन तथ्यों को कुछ स्वार्थी ने अपने हिसाब से बड़ी ही चतुराई से `श्रापरूपी' सूत्र में पिरो दिया । मेरा यह भी मानना है कि तलकाडू में आने वाली प्राकृतिक विपत्ति के लक्षण भी पहले से ही दिख रहे थे और इसे भांपकर ही मिथक को बढ़ावा दिया गया । हालांकि यह ज्ञात नहीं हो पाया है कि आखिर इसकी वजह क्या थी, इसके पीछे किन लोगों के क्या स्वार्थ जुड़े हुए थे । अपने निष्कर्ष पेश करते हुए उस प्रक्रिया पर भी विचार कर रहा हूंू जिससे होकर मिथक बड़ी तेजी से आम जनता के बीच अपनी जड़ें जमा लेते हैं ।तलकाडू का रेत में बदलना - इसके तीन कारण हो सकते हैं :- १. भूवैज्ञानिक परिदृश्य : भूगर्भशास्त्री पहले ही बता चुके हैं कि मैसूर और होग्गेनेक्कल के बीच नदी के मार्ग के साथ-साथ एक छोटा लेकिन सक्रिय फॉल्ट जोन है जो शिवन समुद्र, बी.आर. हिल्स और माले मघेश्वर हिल्स तक फैला हुआ है । इसी वजह से नदी बड़ी तेजी से अपनी दिशा बदलती रहती है । कई जगहों पर नदी ने बड़े ही घुमावदार मोड़ ले रखे हैं । ऐसा ही एक घुमावदार मोड़ तालकाडू शहर के पास भी है । दरअसल, यहां नदी ने अर्द्ध वृत्ताकार रूप से शहर को घेर रहा है । इसलिए इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि मानसून में जब नदी में बाढ़ आती होगी तो उसे साथ बड़ी मात्रा में रेत भी तलकाडू तक आ जाती होगी । लेकिन दूसरी ओर नदी के लेटराइट निर्मित अपेक्षाकृत कठोर किनारे की वजह से मालंगी में रेत के ढेर नहीं लग पाए । हालांकि इस किनारे से नदी का तेज प्रवाह लगातार टकराता रहा है । ऐसे में मालंगी का भी कटाव होता जा रहा है । इसी के परिणामस्वरूप मालंगी के पूर्व में स्थित एक भव्य मंदिर अब क्षत-विक्षत हो चुका है । यहां एक अहम सवाल भी उठता है । भूवैज्ञानिक बदलाव की प्रकिया लाखों वर्षो से जारी है, जबकि तलकाडू में रेत के जमाव की प्रक्रिया कुछ सौ वर्ष पुरानी ही है । इसलिए यह भी संभव है कि इस रेत के जमाव की प्रक्रिया के कुछ स्थानीय कारण भी रहे हों और भूवैज्ञानिक बदलाव की सतत जारी प्रक्रिया ने बस उनकी गति में वृद्धि की हो ।२. एनीकट का निर्माण : कहा जाता है कि सन् १३३६ में विजयनगर साम्राज्य के एक मंत्री माधव मंत्री ने हेमिगे के पास तलकाडू के ऊपरी क्षेत्र में कावेरी नदी पर एक एनीकट (छोटां बांध) बनवाया था । इस वजह से नदी सूख गई होगी और उसकी रेत वर्षो हवा के संपर्क में खुली पड़ी रही होगी । तलकाडू में उत्तर-पश्चिम और दक्षिण-पश्चिम से तेज हवाएं आती हैं । माना जाता है कि हवाआें के तेज झोंको में रेत के कण तलकाडू आते रहे होंगे । डी.वी. देवराज का आकलन है कि रेत के कण ७ से १० फीट प्रतिवर्ष की दर से तलकाडू की ओर बढ़े होंगे । इससे मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि तलकाडू की रेत कावेरी नदी से ही उड़कर आई होगी । तलकाडू के पास कावेरी में जो गहरे मोड़ हैं, उसकी वजह से नदी के मार्ग में भी रेत का जमाव अपेक्षाकृत अधिक हुआ होगा, जिसने तलकाडू में रेत जमाव की प्रक्रिया को और तेज़ किया होगा । पुरातत्वीय सर्वेक्षणों के साफ़ होता है कि तलकाडू में रेत का जमाव १६वीं सदी के उत्तरार्द्ध में शुरू हुआ था । इसलिए इस संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता कि रेत के तलकाडू की ओर विचलन या रेत की जमाव प्रक्रिया का आगाज १६वीं सदी के पहले से हो गया होगा । जानकार व समझदार पर्यवेक्षक ने भावी परिणाम का अंदाजा लगा लिया होगा और इस प्रकार `श्राप' के रूप में भविष्यवाणी कर दी होगी । रेत जमाव की प्रक्रिया में तेजी आने पर जब लोग यहां से धीरे-धीरे जाने लगे और अंतत: तलकाडू को निर्जन कर गए तो यह `श्राप' आम लोगों के बीच मिथक के रूप में गहरे पैठ गया ।३. शहर का धंसना : तलकाडू के प्राचीन भवनों के सावधानीपूर्वक अध्ययन से स्पष्ट होता है कि शहर खुद ही धीरे-धीरे ज़मीन के भीतर धंसता गया है । यहां की गई खुदाई में पुराना निर्माण कार्य नदी तल से काफी नीचे पाया गया जो बिल्कुल असामान्य बात हैं, क्योंकि कोई भी निर्माण जमीन के नीचे नहीं किया जाएगा, कम से कम उस जमाने में तो बिल्कुल ही नहीं । यानी उस समय किया गया निर्माण धीरे-धीरे धंसककर नदी तल से नीचे चला गया। उदाहरण के लिए कीर्तिनारायण मंदिर के नीचे बनाए गए ड्रेनेज पाइप मौजूदा नदी तल के काफी नीचे पाए गए । ड्रेनेज पाइप का तभी कोई मतलब है जब वे नदी तल से ऊपर लगाए जाएं । इससे साफ है कि ये ड्रेनेज पाइप निर्माण के समय तो नदी तल से ऊपर ही लगाए गए होंगे, लेकिन फिर वे धंसते-धंसते काफी नीचे चले गए। चंूकि यह क्षेत्र फॉल्ट जोन में आता है, इसलिए यह भी संवभावना है कि किसी भूगर्भीय घटना की वजह से यह क्षेत्र धंस गया होगा । जाहिर है कि इस निचली सतह की वजह से यहां नदी का बाढ़ क्षेत्र बढ़ा होगा । तलकाडू के पास नदी के पाट का विस्तृत होना इस संभावना को पुष्ट करता है ।वारिस की समस्या - मैसूर राजघराने की वंशावली पर नज़र दौड़ाने से साफ दिखाई देता है कि वारिस (पुत्र) की समस्या लगातार बनी हुई है । मैंने पाया कि इस राजघराने के कई राजाआें की एक दर्जन से भी अधिक रानियां रही हैं, लेकिन इसके बावजूद यहां कोई वारिस पैदा नहीं हो पाया । इसी वजह से शाही परिवार को हर बार बाहर से एक राजकुमार को गोद लेना पड़ा है । हालांकि अगर राजघराने की वंशावली का गहराई से विश्लेषण किया जाए तो पता चलता है कि १९में से केवल १० पीढ़ियों के साथ ही वंश की समस्या रही और इसकी भी कई अन्य वजह हो सकती हैं, न कि अलामेलम्मा का श्राप । कुछ प्रमुख तथ्य इस श्राप के असर को निष्प्रभावी ठहराते हैं।१. इस कथित श्राप के कुछ ही वर्षो बाद मैसूर घराने के एक राजा के यहां पुत्र का जन्म हुआ था, लेकिन बाद में उसकी मृत्यु हो गई थी । इससे यह बात निराधार साबित हुई कि श्राप की वजह से शाही परिवार में वारिस पैदा ही नहीं होगा ।२. कम से कम तीन मामले ऐसे भी थे जिनमें परिवार का वंश आगे इसलिए नहीं बढ़ पाया क्योंकि विवाह से पहले ही वारिस की मृत्यु हो गई ।३. अधिकांश दत्तक निकट अनुवांशिक संबंधियों से ही लिए गए जिससे सगोत्र विवाहों को बढ़ावा मिला । संभवत: इस वजह से परिवार में निस्संतति की समस्या पैदा हुई । इस प्रकार तथ्यों के आईने में शाही परिवार में वंश की समस्या के कारण साफ नज़र आते हैं जिनका श्राप से कोई लेना-देना नहीं है ।प्राकृतिक विपदा - तलकाडू का प्रकरण प्राकृतिक विपदा का एक अद्वितीय उदाहरण है जो विकास गतिविधियों का नतीजा थी । नदी के ऊपर एक बांध के निर्माण ने एक अच्छे-भले सम्पन्न शहर को रेगिस्तान में बदल दिया जिससे धीरे-धीरे इसने व्यापारिक केन्द्र का दर्जा भी खो दिया और संस्कृति भी रेत में गहरे दफन हो गई । अंतत: सदियों से विकसित हो रही एक महान सभ्यता भी जमीदोज हो गई । आज इस निर्जन स्थल की पूर्व दिशा में एक छोटा सा गांव स्थित है जिसे एक जीवंत शहर की स्मृति माना जा सकता है। तलकाडू का श्राप एक अतार्किक मिथक (वैसे अधिकांश मिथक तर्कहीन ही होते हैं) के इतने सालों बाद भी जीवित रहने का अनूठा नमूना है । इसकी प्रमुख वजह यह है कि श्राप के रूप में जो भविष्यवाणियां की गई थीं, वे आज भी साकार नजर आती हैं । इसी कारण यह मिथक तर्कशील और वैज्ञानिक दिमाग रखने वाले लोगों के लिए एक बड़ी चुनौती था । मैंने यह साबित करने की कोशिश की है कि जो भविष्यवाणियां की गई थीं, उनकी तार्किक व वैज्ञानिक व्याख्या कर इस कथित श्राप को बेमानी ठहराया जा सकता है । किसी मिथक का अस्तित्व समाज विशेष के शिक्षा और वैज्ञानिक सोच के स्तर पर निर्भर करता है । हालांकि अत्यंत विकसित और शिक्षित समाज भी मिथक के चमत्कारों से बच नहीं सके हैं। जिस समाज में धार्मिक आस्था जितनी गहरी होगी, मिथकों का प्रभाव उतना ही अधिक व्यापक होगा, लेकिन यह भी सच है कि कम धार्मिक आस्था वाले समाजों में भी मिथक पाए जाते हैं । इस प्रकार मिथकों के निर्माण और उनके फैलाव के बारे में दावे के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता । वे केवल मस्तिष्क की एक मनोदशा को प्रतिबिंबित करते हैं ।***

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