मंगलवार, 15 अप्रैल 2008

१२ प्रकृति का क्रोध

सुंदरबन : ग्लोबल वार्मिंग का पहला शिकार
डेन मेक्डॉवल
बंगाल की खाड़ी में उठने वाले तीव्र ज्वार-भाटे दीपेन्द्र दास के रोजमर्रा के जीवन का अंग बन चुके हैं ।झुर्रियों भरी चमड़ी, हडि्डयों का ढांचा बाहें, शरीर पर जगह-जगह पर उभरे समुद्री खारे पानी से उपजे घाव इस ७० वर्षीय बूढ़े की दर्दनाक दास्तान खुद बयां कर देते हैं । दुनिया के सबसे बड़े मेनग्रोव जंगल सुदरबन डेल्टा पर स्थित इस दूरस्थ द्वीप के अपने छोटे से मकान को लहरों के थपेड़े से बचाने के प्रयास में इस बूढ़े इंसान को गीली मिट्टी में हर रोज ६ घंटे काम करना पड़ता है । दीपेन्द्र अकेला नहीं है, गोरामा द्वीप के कई ग्रामीणों जिनमें महिलांए भी शामिल हैं के लिए काली मिट्टी व रेती से तटबंध बनाना ही जीवनचर्या है । सुबह जागने पर वे पूवनिर्मित दीवारों को समुद्र की लहरों से ध्वस्त किया हुआ पाएंगे और एक बार फिर उन्हें बनाने के काम में लग जाएंगे । इस ग्रह के सबसे बड़े मेनग्रोव जंगल सुंदरबन में दीपेन्द्र का तीसरा मकान भी डूबने की स्थिति में जा चुका है । वहज है बढ़ते समुद्रा । सात बच्चें के इस दादा के लिए ग्लोबल वामिंग, मौसम विभाग के कम्पयूटर के आंकड़े नहीं बल्कि जीवन का सत्य है । सुंदरबन में अपनी तीन दीनी बोट यात्रा के दौरान चार द्वीपों में आधा दर्जन गांवो की स्थिति देखकर सहज अंदाजा हो गाया कि इस विकट स्थिति में सिर्फ दीपेन्द्र ही नहीं है । डेल्टा के भारतीय हिस्से में बेतहाशा मानसूनी वर्षा और समुद्री लहरों ने मिलकर घरों, खोतों और फलों के पेड़ो को तहस-नहस कर दिया है । सारा जीवन छिन्न-भिन्न हो चुका है । विशेषज्ञों की यह चेतावनी कि ग्लोबल वार्मिंग का सबसे ज्यादा उन पर होगा जिनका इसे बढ़ाने में सबसे कम योगदान है, यहां सच साबित हो रहा है । आज उनके पस उस आपदा से बचने का एकमात्र तरीका है लगातार अपने आस पास मिट्टी की दीवारें बनाना । सुंदरबन का एक तिहाई हिस्सा भारत और दो तिहाई नजदीकी बंग्लादेश में पड़ता है जहां एशीया की दो सबसे बड़ी नदियों गंगा और ब्रम्हपुत्र की विशाल जलराशि दुनिया के इस सबसे बड़े डेल्टा प्रदेश पर अपने पूरे वेग से बहती हैं । वैज्ञानिकों का मानना है कि गोरामा द्वीपवासियों का भविष्य दो हजार किलोमीट दूर स्थित गंगा के उद्गम में निर्धारित होता है । जहां हिमालय के ग्लेिश्यरों में हो रहे तेज पिघलाव का आधात इतनी दूर स्थित इस द्वीप पर जाकर होता है । गोरामा द्वीप से पूर्व की ओर दो किलोमीटर दूर स्थित लोहाचरा द्वीप जो कभी यहां से दिखाई पड़ता था, पांच वर्ष पहले ही समुद्र में समा चुका है । पर्यावरण परिवर्तन की भेंट चढ़ने वाला दूनिया का यह सबसे पहला आबाद द्वीप था जिसने सात हजार निवासियों को बेधर किया । गोरामा की भी कुल भूमि का एक तिहाई हिस्सा गत पंाच वर्षो के दौरान समुद्र में समा चुका है । इसके उत्तर में स्थित भारत के सबसे बड़े का एक तिहाई हिस्सा उत्तर में स्थित भारत के सबसे बड़े सुंदरबन द्वीप सागर में कोई २०००० समुद्री भरणार्थी अभी भी निवास कर रहे है । शरणार्थियों की लगातार बढ़ती संख्या ने सागर के मूल निवासियों और मोजूद न्यून संसाधनों पर अनावश्यक दबाव बना दिया है । हिमालय के ग्लेशियरों में बढ़ते पिघलव नदियों के जल की मात्रा में वृद्धि कर रहा है जिसके फलस्वरुप निचले डेल्टा प्रदेशों में यह पानी तीव्र घुसपैठ करता है। सुंदरबन और इसके भारतीय हिस्से में रहने वाले चालीस लाख निवासिंयों की स्थिति बहुत खराब है । गत कुछ दशकों में यहां का १८६ वर्ग किलोमीटर हिस्सा जलप्लावित हो चुका है । पूरा प्रदेश विनाशा के मुहाने पर है और आगामी घटनाआे की चेतावनी दे रहा है । पर्यावरण शरणार्थियों की स्थिति सबसे बुरी होती है क्योंकि उनके पास लौटने की कोई जगह नहीं होती । उनकी भूमि उनसे हमेशा के लिए छिन चुकी है और सरकारों के पास उनके पुनर्वास के लिए कोइ ठोस योजना नहीं होती । निरी कष्टभोगी - स्थानीय निवासियों के लिए रोज छोटे-छोटे काम ंभी बहुत कष्टसाध्य हो गए हैं । गोरामा के एक छोटे से टोले में रहने वाली गीता पंधार के घर तक पहुंचने के लिए समुद्री लहरों से बचने के लिए बनाई गई मिट्टी की उस दीवार के सहारे-सहारे कीचड़ भरे रास्ते से ही जाया जा सकता है । गीता के लिए द्वीप के एक मात्र बाजार तक पहुंचने के लिए रोज तीन किलोमीटर उसी कीचड़ भरे व फिसलने भरे रास्ते से गुजरना मजबूरी है । सुंदरबन में बाढ़ आना सामान्य बात है । यहां आने वाले पानी के ९२ प्रतिशत स्त्रोत भारत, तिब्बत, भूटान और नेपाल में स्थित हैं । जिनमें विश्व की तीन बड़ी नदियां गंगा, ब्रम्हपुत्र और मेघना भी शामिल है । मानसून के दौर तो यहां का एक तिहाई हिस्सा डूबा ही रहता है तूफान की बढ़ती तादात से रहने के लिए दूनिय की सबसे खतड़नाक जगह हो गई है । समुद्र रात में बहुत भयानक हो जाता है । स्थानीय निवासियों के अनुसार हमें ग्लोबल वामिंग के बारे में तो ज्यादा जानकारी नहीं है, लेकिन यहां आने वाले वैज्ञनिकां का कहना है कि इसके जिम्मेदार पश्चिमी देश और प्रदूषण हैं । वैसे भी यह बहुत पिछड़ा हुआ स्थान हे । रहने वालों के पास अपना कहने को सिर्फ कुछ बरतन हैं । यहां न तो बिजली है, न रोशनी न टेलीविजन । मनोरंजन के नाम पर बस बैटरी से चलने वाला ट्रांजिस्टर है । अखबार भी यहां नही पहुंचता । सरकार से सम्पर्क का भी कोई जरिया नहीं है । इस तरह से ये ग्लोबल वामिंग के पहले शिकार हैं और दुर्भाग्य देखिए कि इन्हें उसकी जानकारी सबसे आखिर में हो रही है । जो प्रकृति खाना और फसल देती आ रही है । यह द्वीप सब्जी और अन्य फसलों के साथ-साथ अपनी उम्दा किस्म की मर्चा के लिए मशहूर था । अब खुद के खाने के इंतजाम के लिए घर की महिलाआे को उन्हीं खेतों मे मछलियों और झींगो की तलाश में भेजना पड़ता है । ठहरे पानी में मच्छरों ने अपने अड्डे बना लिए हैं । आसमानी लहरों के सामने बौनी पड़ती हिम्मत - रात होते ही इस द्वीप का दुर्भाग्य प्रकट होने लगता है । लहरों के चढ़ते ही पानी मिट्टी की दीवारों को दरकाते हुए जगह बनाता हुआ गांव मे घुसने लगता है । लहरों से सुर मिलातीं गहरे पानी की नदियां समुद्र को और विकराल रूप देती हैं । ज्वार के समय पानी जब मुख्य धरती तक पहुंचता है तो पेड़-पौधों का अस्तित्व ही खत्म हो जाता है । समुद्र के समक्ष कोई सुरक्षा साधन कारगर नहीं है । मिट्टी की दीवारें हमेशा ही टूटती रहती हैं । द्वीप के लगभग एक तिहाई लोगों की खेती खत्म हो चुकी है और उनमें से अधिकांश `सागर' की तरफ पलायन कर गए हैं । यहां रहने का मतलब है सतत संघर्ष । लेकिन यहां रहने वाले कोई अन्य काम भी तो नहीं कर सकते । जल्द ही यहां बूढ़ों और छोटे बच्चें के सिवा कोई नहीं बचेगा और वह भी कितने दिन ? यह द्वीप भी दूसरे द्वीपों की तरह डूब ही जाएगा। बिजली के अभाव में रोशनी करने के लिए तेल के दीपक जलाए जाते हैं । बच्च्े अपनी पढ़ाई भी इसी रोशनी में करते हैं । यहां के निवासियों को पिछले साल की वह रात याद आती है जब उनका घर और सारा सामान पानी में बह गया था । पानी जैसे ही घर को तोड़ता हुआ आ घुसा और यहां की दुनिया ही बदल गई । यहां के निवासियों को पानी ने बर्बाद कर दिया है । सबने सरकारी शिविर में जाने का मन बनाया । लेकिन वहां भी हालात अच्छे नहीं हैं । `सागर' में भी धरती की स्थिति ठीक नहीं है । सारा पानी खारा हो चुका है जो किसी काम का नहीं है । यहां भी दलदल नजदीक ही है । स्थानीय निवासियों का कहना है कि `लगता है समुद्र हमारा पीछा नहीं छोड़ेगा ।'***

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